डॉ. विजय अग्रवाल। हाल की इन चार फिल्मों को याद करिए- द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, बाल ठाकरे, उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक और मणिकर्णिका। अब इन दो प्रश्नों पर विचार करिए कि क्या इन चार अलग-अलग नाम वाली फिल्मों को कोई एक नाम दिया जा सकता है? मतलब है कि क्या कोई एक ऐसा तत्व है जो इन चारों में समान रूप से मौजूद है? दूसरा प्रश्न यह है कि यदि ऐसा है तो फिर समान तत्व वाली फिल्मों को लगभग एक साथ लाने का व्यावसायिक जोखिम क्यों उठाया गया? पहली दो बायोपिक फिल्मों को मुख्यत: बायोपिक फिल्म न कहकर राजनीतिक फिल्म कहना सत्य के अधिक निकट होगा।

यदि बायोपिक कहने की मजबूरी ही हो तो इन्हें अधिक से अधिक बायोपिक इन डिस्गाइस यानी छद्म जीवनी कथा कहा जा सकता है। लोकसभा चुनावों से चंद माह पहले आई इन दोनों फिल्मों का राजनीतिक मकसद बिल्कुल साफ था-कांग्रेस के शासन की पोल खोलना और महाराष्ट्र में शिवसेना के पक्ष में भावनात्मक माहौल तैयार करना। इसीलिए कांग्रेस ने भरपूर कोशिश की कि द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज ही न हो पाए, लेकिन उसका इस मामले में असफल होना तय था और ऐसा ही हुआ। यदि किसी निर्देशक ने एन एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर फिल्म रिलीज करनी चाही होती तो शायद वह संभव नहीं होता।

सवाल किसी पार्टी विशेष की विचारधारा का नहीं है, बल्कि सत्ता के चरित्र का है, जो अपने थोड़े से विरोध में या विरोध की आशंका मात्र से सिहरकर अनुदारता के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो यही कांग्रेस आपातकाल के दौरान आंधी फिल्म के प्रदर्शन पर रोक नहीं लगाती, जो प्रत्यक्षत: बायोग्राफी ही नहीं थी, इंदु सरकार की तरह। हां, उसमें इंदिरा गांधी के जीवन की झलक अवश्य थी। उरी और मणिकर्णिका के विषय तो बिल्कुल अलग-अलग हैं, लेकिन इन दोनों का उद्देश्य बिल्कुल एक है- राष्ट्रवाद की भावना की लहर उठाना। उरी जहां पाकिस्तान के खिलाफ सैनिकों के शौर्य को बयान करती है वहीं मणिकर्णिका साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध वीरतापूर्ण संघर्ष को दिखाती है। एक में राष्ट्र की रक्षा का आवेग है तो दूसरे में स्वतंत्रता का उत्सर्ग। दोनों फिल्मों के केंद्र में राष्ट्रवादी भावनाएं हैं।

आगामी लोकसभा चुनाव के संदर्भ में राजनीतिक दलों के विचारधारात्मक स्वरूप को देखते हुए इस राष्ट्रवादी भावना का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है। यह न तो कोई गलत बात है और न ही चिंताजनक। अवैधानिक होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ध्यान रहे कि जब सिनेमा नामक आश्चर्यजनक विधा को जन्म लिए दो दशक ही हुए थे तब ग्रीफिथ ने 1915 में द बर्थ ऑफ नेशन फिल्म बनाकर राजनीति के साथ सिनेमा के घनिष्ठ रिश्ते की खुलेआम घोषणा कर दी थी। बाद में साम्यवादी रूस ने उसका भरपूर इस्तेमाल किया। हिटलर ने तो इस्तेमाल करने की हद ही कर दी। उसे लार्जर दैन लाइफ की उस चरम सीमा तक दिखाया गया कि लोगों में भय फैलाने के साथ-साथ सिनेमा खुद भी भय का शिकार हो गया।

आज के अपेक्षाकृत यथार्थवादी दौर में तो यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि राजनीतिक सिनेमा अपनी घटनागत सत्यता के माध्यम से दर्शकों की विश्वसनीयता को कहां तक हासिल कर पाता है? यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो फिर सैकड़ों भव्य दृश्यों एवं ताली बटोरने वाले संवादों के बावजूद वह अपने प्रभाव को खोकर अंतत: अपने उद्देश्य में असफल हो जाता है। द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर एवं बाल ठाकरे फिल्मों की असफलता इस सच्चाई को प्रमाणित करती है।

राजनीतिक फिल्मों की आंतरिक राजनीति कुछ भी क्यों न हो, इसमें दोराय नहीं कि ऐसी फिल्में बड़ी संख्या में बननी चाहिए, किंतु अधिकतम तटस्थता के सिद्धांत के साथ। यदि अमेरिका में ओबामास अमेरिका और हिलेरीस अमेरिका-द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ डेमोक्रेटिक पार्टी जैसी फिल्में बन सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं? भारत में भी अमेरिका की तरह कुछ क्यों नहीं होना चाहिए? ऐसा होने पर ही भारत दुनिया के सामने सीना ठोककर स्वयं को केवल सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि सबसे सच्चा उदारवादी लोकतांत्रिक देश कह सकेगा।

इससे भी बड़ी बात यह कि भारत में सही अर्थो में एक आलोचनात्मक राजनीतिक चेतना जागृत हो सकेगी। राजनीतिक दलों पर भी उसका अप्रत्यक्ष सकारात्मक नैतिक दबाव पड़ेगा, क्योंकि उन्हें इस बात का भय रहेगा कि उन पर फिल्में बनाई जा सकती हैं। मुश्किल यह है कि जिस देश में पद्मावत को लेकर इतनी बड़ी राजनीति की जा सकती है वहां यह कहना कठिन है कि राजनीतिक फिल्मों का राजनीतिक परिदृश्य क्या हो सकता है? ध्यान रहे कि अधिकांश फिल्मों में राजनीति होती है। फिल्मों पर भी जमकर राजनीति होती है। फिल्म-जगत की भी अपनी राजनीति होती रहती है। ऐसे में यह जरूरी है कि सशक्त राजनीतिक फिल्मों की शुरुआत की जाए।