[ संतोष त्रिवेदी ]: एक खालिस राजनीतिक समय में मेरा मन अचानक साहित्यिक होने के लिए मचल उठा। राजनीति में रहते हुए भी अपन हमेशा ‘अराजक’ रहे। कभी खुलकर नहीं आए। खुलने के अपने खतरे होते हैं। राजनीति में भी, साहित्य में भी। एकदम से खुलना कइयों को खलने लगता है। सत्ता और राजनीति में चुप रहकर ही रसपान किया जा सकता है। इससे किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता। मैैं यह मानता हूं कि मुखरता मूर्खता की पर्याय है। इधर आप मुखर हुए नहीं कि राजनीति और साहित्य दोनों आपसे मुकरने लगते हैं। जबकि चुप्पी साधकर दोनों हाथों से लड्डू खाए जा सकते हैं। एक स्थापित बुद्धिजीवी होने के नाते मैं उखड़ने का खतरा कभी नहीं मोल लेता। आज भी नहीं लूंगा। जब भी दुविधा में होता हूं, अंतर्मन की सुनता हूं। वह सदैव हमारी आत्मा का भला सोचता है। आज भी वह पुकार-पुकार कर कह रहा है कि मौका है, साहित्यिक हो जाओ।

हमने ‘मन की बात’ सुनी और साहित्य के सबसे बड़े पथ-प्रदर्शक से मिलने निकल पड़े। जब भी साहित्य मुख्यधारा से भटकने लगता है, वही सही दिशा पकड़ा देते हैं। कहते हैं उनके पास ऐसा ‘दिशासूचक यंत्र’ है जिससे वह अगली-पिछली सारी दिशाएं जान लेते हैं। वह पूरी तरह मौलिकता के पक्षधर हैं। अपनी तरह के इकलौते। यह बात उनके ‘परिचय’ से खुलती है। सोशल मीडिया की उनकी प्रोफाइल में साफ-साफ दर्ज है कि पचासी पुस्तकों के एकमात्र लेखक वही हैं। यह संख्या उनके संकोच का का नतीजा है। अन्यथा सूत्रों के हवाले से खबर यह भी है कि इससे कहीं अधिक उनकी किताबें प्रकाशकों के यहां पड़ी हैं।

किताबें इतनी परतों में दबी हैं कि छह की छह एक साथ विमोचित हो जाती हैं। कृपया इसे उनका रचनाकर्म ही समझें। उनकी किताबों को पढ़कर अभी तक किसी तरह की दुर्घटना की खबर भी नहीं आई है। साहित्य में उनका जबरदस्त आतंक है। सभी सम्मान उनके चरणों में गिरते हैं। वे उन सम्मानों को ‘सम्मान’ देने के लिए स्वयं गिर लेते हैं। इसे ही साहित्य में कला की संज्ञा दी गई है। वह हर हाल में साहित्य के साथ हैं। लोग नाहक आरोप लगाते हैं कि वह राजनीति से बचते हैं। सच तो यह है कि वह साहित्य में अब तक इसीलिए बचे हुए हैं। शायद वह हमारा ही इंतजार कर रहे थे। ऐसा उनके हावभाव देखकर लगा। हम उनके चरणों को श्रद्धापूर्वक ताक ही रहे थे कि वे हमारी मंशा भांप गए। हमें गिरने से बचा लिया। हो सकता है, वह साहित्य में किसी तरह की प्रतियोगिता को बढ़ावा नहीं देना चाह रहे हों। हमने उनसे गले लिपटकर क्षतिपूर्ति कर ली। हम कुछ बोलते, इससे पहले ही वह शुरू हो गए।

‘वत्स, साहित्य को तुम जैसे युवाओं की सख्त जरूरत है। हम अकेले कब तक इसे चरते रहेंगे! कहां राजनीति में फंसे हो, इधर आ जाओ। वहां बहुत कीचड़ है। साहित्य को हम उससे आगे ले जाना चाहते हैं। कुछ लोग कीचड़ वहां से ले आए हैं। हम राजनीति से क्यों उधार लें जब तमाम कीचड़ साहित्य में हम स्वयं उपलब्ध करा रहे हैं। तुम राजनीति में क्या हासिल कर पाए अब तक? साहित्य में रहोगे तो आजीवन ‘संभावनाशील’ तो बने रहोगे।’ इतना कहकर वह हमारी ओर ताकने लगे।

‘नहीं गुरुदेव, हमें तो साहित्य का ‘क-ख-ग’ भी नहीं आता। हम यहां क्या करेंगे? राजनीति में चाहे कुछ करना आता हो या नहीं, बस अतीत पर कीचड़ उछालने से उसमें उबाल आ जाता है। एक बयान से रातोंरात चर्चित हो सकते हैं। साहित्य में तो पूरा ग्रंथ लिखना पड़ता है। अब आप को ही देखिए, किताबों का शतक मारने के करीब हैं। यह हमसे न हो पाएगा प्रभु!’

वह तुरंत हमारे कंधे पर हाथ रखकर बोले-‘बेटा, तुम्हें साहित्य की कुछ भी समझ नहीं है। तुम क्या जानते हो कि इतना लिखकर मैं टिका हुआ हूं! लिखना और बने रहना दोनों अलग बातें हैं। साहित्य में वही जीवित नहीं है जो लिखता है। यहां जो दिखता है, वही टिकता है। लिखने का क्या है, वह भी हो जाएगा। वसंत, फागुन, होली, चमेली न जाने कितने विषय भरे पड़े हैं। एक-दो किताबें घसीट दो बस। बाद में उन्हीं को ‘रीसाइकिल’ करते रहना। एक बार साहित्य में तुम घुस गए तो मेरे सिवा तुम्हें कोई नहीं रोक पाएगा। दस प्रतियों के संस्करण को भी ‘बेस्टसेलर’ बनवा दूंगा। मुझे तुम पर अधिक भरोसा है, क्योंकि राजनीति में तुम्हारी ‘डिलिवरी’ देख चुका हूं।

तुम अच्छी तरह दीक्षित हो। साहित्य में ऐसे ‘पीस’ आजकल मिलते कहां हैं! मंच, समारोह, विमोचन, विमर्श सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। एक साथ इतनी संभावनाएं राजनीति में नहीं हैं। गिरने की कला में तुम हमसे भी निपुण हो। हमारे बाद साहित्य के असली वारिस तुम्हीं हो। यहां रहोगे तो तुम पर शोध होंगे। राजनीति में रहोगे तो पचास साल बाद भी ‘प्रतिशोध’ के पात्र बनोगे। इसलिए आओ, अंधेरे से उजाले की ओर चलें।’ हमारे चक्षु खुल चुके थे। साहित्य की सत्ता हमारे आलिंगन के लिए बेकरार हो रही थी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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