[ गिरीश्वर मिश्र ]: स्वाधीनता प्राप्ति देश के सहस्राब्दियों पुराने इतिहास में एक प्रस्थान बिंदु जैसा है जब एक स्वतंत्र देश की राजनीतिक सत्ता भारत की जनता के हाथों में सौंपी जाती है। विदेशी पराधीनता के हजार साल से मुक्ति कई पीढ़ियों के बलिदान और त्याग से 1947 में मिली। देश-यज्ञ में समाज के विभिन्न वर्गों ने आहुति डाली थी। स्वाधीनता स्वराज के लक्ष्य की सिर्फ आंशिक पूर्ति थी, क्योंकि अनेक क्षेत्रों में हमारी स्थिति दुर्बल थी। इसी के साथ बाह्य नियंत्रण से मुक्ति और स्वयं अपने निर्णय के आधार पर देश को गतिशील करने की जिम्मेदारी थी। आज जब स्वतंत्रता मिले लगभग तीन चौथाई सदी बीत रही है तब यह विचार सबके मन में उठता है कि देश ने क्या किया और कैसे जिया? इस पर गौर करना जरूरी है ताकि आगे के रास्ते पर चलना सहज और सार्थक हो सके।

सत्ता में भागीदारी की प्रवृत्तियों में विकेंद्रीकरण और लोगों की उपस्थिति से राजनीतिक कोलाहल बढ़ा है

व्यक्ति के जीवन की ही तरह समाज और देश का भी जीवन होता है, जिसमें खोने और पाने के साथ संजोने का भी काम होता रहता है। हम यात्रा के बीच पुनर्नवीन होते रहते हैं। इसमें सामाजिक चेतना के स्तर पर भावनाएं भी सक्रिय होती हैं जो अस्मिता को रचती हैं और देश के मिजाज को दर्शाती हैं। अब तक हुए आम चुनावों को यदि संकेत के रूप में लें तो जनता के मिजाज में अब तक हुए बदलावों का अनुमान लगाया जा सकता है। सत्ता में भागीदारी की प्रवृत्तियों में विकेंद्रीकरण और विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों की उपस्थिति से राजनीतिक कोलाहल बढ़ा है।

विकास की प्रक्रिया में असंतुलन

आज यह अनुभव किया जा रहा है कि हममें से बहुतों ने स्वतंत्रता की प्राप्ति को लक्ष्य या उपलब्धि मान कर उसका उपभोग करना शुरू कर दिया, जिसने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों को विपथगामी बना दिया। कर्तव्य की जगह अधिकार के ऊपर अधिकाधिक बल देने की प्रवृत्ति ने अनैतिक आचरण को बढ़ावा दिया। सत्ता के दुरुपयोग और आर्थिक कदाचार के मामले और राजनीतिक दलों की उठापटक समाज की नैतिक जरूरतों को रेखांकित कर रही है। संसाधनों के लिए स्पर्धा और शांति के उपायों की जगह संघर्ष के तरीकों का उपयोग बढ़ता गया है। इन सबसे विकास की प्रक्रिया में असंतुलन का संकेत मिलता है।

हम देश से कटते से गए और स्वदेशी तथा स्वराज प्रचलित फैशन से बाहर होते गए

देश को लेकर जिस तरह के बौद्धिक विमर्श का प्रचलन रहा उसमें भारतीय, भारतीय संस्कृति, लोकजीवन, गांव, देशज कला और साहित्य आदि हाशिये पर चले गए और उनकी जगह आधुनिकता का पक्षधर होना और परंपरा यानी स्वदेशी को त्याग कर विज्ञान और प्रौद्योगिकी और उसी के साथ पश्चिमी सभ्यता और उसकी ज्ञान परंपरा को प्रासंगिक मानना प्रमुख होता गया। हम देश से कटते से गए और स्वदेशी तथा स्वराज प्रचलित फैशन से बाहर होते गए।

पश्चिमी ज्ञान के संस्कार का स्वाद सिर पर चढ़ता गया

स्थानीय संस्थाएं, लोक संपदाएं, लोकाचार और देसी बीज, वनस्पति सब कुछ वैश्वीकरण के आकर्षण के आगे फीका पड़ता गया। इसकी जगह पश्चिमी ज्ञान के संस्कार का स्वाद सिर पर चढ़ता गया। बिना किसी प्रतिकार के जो घर का था वह बाहर होता गया और बाहर का घर के भीतर आता गया। हमारा अपना ज्ञान और स्मृति सभी प्रतिबंधित होता गया और उसे लेकर संशय और संदेह तीव्र होते गए। इसके साथ ही पारस्परिक संवाद की जगह वर्चस्व की लड़ाई बढ़ती गई। सतही स्तर पर कुछ अनुष्ठान जरूर चलते रहे।

संवाद के अभाव में तिरंगे पर टंका धर्म चक्र, सत्यमेव जयते का बोध वाक्य निष्क्रिय प्रतीक बन गए

इस बीच देश की भाषाओं, संस्कृत की ज्ञान राशि, आयुर्वेद आदि का भी जो दावा हो सकता था उसे खारिज कर दिया गया। परंपरा से संवाद के अभाव में तिरंगे पर टंका धर्म चक्र या सरकारी प्रयोग में आने वाला सत्यमेव जयते का बोध वाक्य निष्क्रिय प्रतीक बनते गए।

स्वतंत्रता अपने प्रति ईमानदारी और अपने ढंग से जीवन जीने का अवसर है

अपने समय से संवाद के लिए पूर्व परंपरा और ज्ञान को पचाना जरूरी होता है। बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर, तुलसी, विवेकानंद, गांधी आदि ने यह काम किया था। लोक जीवन से निकटता और उसे स्रोत के रूप में ग्रहण करने का यह जो काम किया गया उसके प्रति जन नेताओं की लोकरुचि धीरे-धीरे कम होती गई। आम आदमी राज्य नामक मशीन का पुर्जा होता गया। आर्थिक और राजनीतिक जीवन के केंद्र में मनुष्य की सत्ता कमजोर पड़ने लगी। विभिन्न रूपों में हिंसा अपरिहार्य होती गई। स्वतंत्रता अपने प्रति ईमानदारी और अपने ढंग से जीवन जीने का अवसर है, परंतु यह नहीं भूलना चाहिए मनुष्य परस्पर निर्भर होते हैं। इसलिए हमें समग्र या अखंड जीवन की अभिव्यक्ति भी बनना होगा।

राष्ट्र निर्माण के लिए निजी लाभ के भाव से ऊपर उठने की आवश्यकता है

राष्ट्र निर्माण के लिए निजी लाभ के भाव से ऊपर उठने की आवश्यकता है। इसके लिए आत्मानुशासन आवश्यक होगा। गांधी जी ने आगाह किया था कि भारत की राह पश्चिमी दुनिया की अनुकृति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वैसा करने में भारत की आत्मा खो जाएगी और उसे खोकर वह बचेगा नहीं। अपने और विश्व के हित में उसे इसका प्रतिकार करना चाहिए। इसी के साथ वह यह भी कहते थे कि जड़ों से जुड़ाव का यह अर्थ नहीं है कि उसकी पहचान में कैद हो जाएं। यह आश्चर्यजनक है कि औपनिवेशिक काल में रहते हुए गांधी जी उसके प्रभाव से मुक्त रह सके और स्वाधीन भारत अनिश्चय की मुद्रा में बना रहा या फिर पश्चिम से आस लगाए रहा।

मोदी सरकार ने समाज के हाशिये पर स्थित लोगों की सुधि ली

वर्तमान सरकार ने अनेक स्तरों पर समाज के हाशिये पर स्थित लोगों की सुधि ली है और किसानों की खासतौर पर चिंता की है। यह जड़ों को जीवंत करने से कम नहीं है। आज जब आत्मनिर्भर भारत और देसी प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने या फिर भारत केंद्रित शिक्षा की गंभीर चर्चा हो रही है तो यह आशा बंधती है कि देश स्वयं को और अपनी सांस्कृतिक शक्ति को जानेगा और उसके स्रोतों से ऊर्जा ग्रहण करेगा। वैश्विकता के आग्रह में कितना छलावा है, यह कोविड-19 महामारी के कहर से स्पष्ट हो रहा है। स्थानीय और आंतरिक शक्ति ही अंतत: जीवनदायी सिद्ध हो रही है। ऐसे में इस स्वाधीनता दिवस पर देश की प्रकृति के निकट जाने और उसके साथ आत्मीयता स्थापित करने का संकल्प लिया जाना चाहिए।

( लेखक प्रोफेसर एवं कुलपति रहे हैं )