शिखा गौतम। शार्ली आब्दो फ्रांस का एक साप्ताहिक प्रकाशन है। वर्ष 2015 में इसके द्वारा प्रकाशित किए गए मुहम्मद साहब के कार्टूनों को पुन: प्रकाशित किए जाने की वजह से फ्रांस में बना सांप्रदायिक तनाव लगातार बढ़ता गया, जो अब वैश्विक बनता जा रहा है। हाल ही में शार्ली आब्दो के एक कार्टून को एक शिक्षक सैम्युल पैटी टीजे जोसेफ ने धर्मनिरपेक्षता तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उदाहरण रूप में प्रयोग करते हुए कक्षा में दिखाया। हालांकि उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि एक खास समुदाय छात्रों की भावनाएं आहत न हों।

फ्रांस के राष्ट्रपति ने जिहादियों के विरुद्ध चल रहे प्रयासों पर दिया बल : इस दृष्टि से सावधानी बरतते हुए उन्होंने उन छात्रों से बाहर जाने का अनुरोध किया, लेकिन बाद में एक 18 वर्षीय फ्रांसीसी नागरिक जो मूल रूप से चेचेन शरणार्थी था, उसने शिक्षक की हत्या कर दी। इसके बाद फ्रांस के राष्ट्रपति ने फ्रांस की लोकतांत्रिक संस्कृति के समर्थन एवं संरक्षण को प्राथमिकता देने की बात पर जोर दिया और साथ ही जिहादियों के विरुद्ध चल रहे प्रयासों पर बल भी दिया। इस क्रम में एक प्रकार से पैटी के कदम का समर्थन करते हुए फ्रांस के शहर मोंटपेलियर और टुलुस में सार्वजनिक भवनों पर उन्हीं कार्टूनों को प्रदर्शित किया गया, जिसके बाद तनाव और बढ़ गया। इसी क्रम में फ्रांस के एक अन्य शहर नीस के एक चर्च में तीन लोगों की हत्या कर दी गई।

यूरोपीय एवं इस्लामिक मूल्यों के बीच की असहजता : अगर इन घटनाओं की प्रकृति को देखें तो ये घटनाएं पहले हुई धाíमक हिंसा की घटनाओं से, जिनमें 2015 में फ्रांस में शार्ली आब्दो की घटना भी शामिल है, उसके अलावा 2005 में डेनमार्क के एक अखबार के विवाद से मिलती है। दोनों ही विवाद कार्टून से ही संबंधित थे और दोनों में हमले एकाकी प्रयासों, जिसमें हिंसा की घटनाओं को बिना किसी संगठित प्रयास के संचालित किया जाता है, द्वारा किया गया। इन सभी घटनाओं ने फ्रांसीसी या कहें तो पूरे यूरोपीय एवं इस्लामिक मूल्यों के बीच की असहजता एवं संघर्ष की पहले से तैयार पृष्ठभूमि को उत्तरोत्तर सशक्त बनाने की दिशा में कार्य किया। इन घटनाओं ने फ्रांसीसी प्रशासन एवं वहां के मूल निवासियों को सांस्कृतिक चेतना के साथ ही रक्षात्मक प्रतिरोध की नीति का पालन करने के लिए बाध्य किया है। स्थिति की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि राष्ट्रपति मैक्रों जो सोशलिस्ट पार्टी से संबंध रखते हैं, उन्हें भी अलगाववादी गतिविधियों के संदर्भ में इस व्यवस्था को फ्रांसीसी सेकुलरिज्म के अंतर्गत लाने की जरूरत महसूस हो रही है।

इन हालिया घटनाओं को इसी संदर्भ में हुए अन्य घटनाक्रमों के साथ लेकर देखा जाना आवश्यक है। ध्यान रहे कि 2015 में भी फ्रांस के इसी शार्ली आब्दो के कार्यालय को हथियारबंद लोगों द्वारा निशाना बनाया गया, जिसमें 12 लोगों की हत्या कर दी गई थी और 11 अन्य लोग घायल हुए थे। इस हमले की वजह शार्ली आब्दो द्वारा बनाए गए कार्टून ही रहे थे। उस समय भी फ्रांस में रह रहे जिहादियों के द्वारा प्रतिवाद के तौर पर इन हमलों को देखा गया था। उस वक्त भी हिंसा की घटना की निंदा करते हुए दुनिया के लगभग सभी देशों ने फ्रांस के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया था। हालांकि हालिया घटना के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस बार कई मुस्लिम देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने फ्रांस सरकार के रुख की आलोचना भी की है।

फ्रांसीसी उपनिवेशों से यहां पहुंची मुस्लिम आबादी : फ्रांस में मुसलमानों की संख्या करीब 50 लाख है और इस तरह यह जर्मनी के बाद सबसे बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाला यूरोपीय देश है। फ्रांसीसी मुस्लिम मूलत: अल्जीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया के फ्रांसीसी औपनिवेशिक क्षेत्रों से 20वीं शताब्दी में फ्रांस में बसने वाले अप्रवासी हैं जो क्रमश: फ्रांस के निवासी बन गए। औपनिवेशिक फ्रांस में इस्लाम के प्रवेश को 20वीं सदी में ज्यादा चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा, जिसका कारण फ्रांस में औद्योगिक विनिर्माण के लिए श्रमशक्ति की जरूरत थी, जिसे अफ्रीकी मुस्लिम अप्रवासियों द्वारा पूरा किया गया। फिर वर्ष 2015 में राजनीतिक अस्थिरता के कारण निकटतम एशियाई देशों से बड़ी संख्या में लोगों का यूरोप की ओर पलायन हुआ, जिस दौरान हजारों की संख्या में शरणाíथयों ने फ्रांस में प्रवेश किया।

यूरोप और इस्लाम या यूं कहें तो ईसाई-इस्लामिक संबंधों की शुरुआत इससे कहीं पहले की है, जिनके ऐतिहासिक और वैचारिक पृष्ठभूमि को समझने की आवश्यकता है। ईसाइयत और इस्लाम के बीच यूरोप में प्रभुता स्थापित करने के प्रयास और आठवीं शताब्दी से शुरू हुई धाíमक असंबद्धता मध्ययुग तक कायम रही। दोनों ही धार्मिक समुदायों के द्वारा अपने धर्म की महत्ता को स्थापित करने के 11वीं, 12वीं और 13वीं शताब्दी में किए गए प्रयास सशस्त्र प्रयास में परिवíतत हो गए, जो ओटोमन साम्राज्य एवं औपनिवेशिक व्यवस्था के प्रतीकात्मक अंत के बाद ही समाप्त हुआ।

यूरोपीय राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक : दूसरा, वैचारिक पृष्ठभूमि पर मतभेद को समकालीन तौर पर देखा जा सकता है, जहां जनतांत्रिक आधारों पर स्वयं को व्यवस्थित करने के बाद यूरोपीय देशों ने अपनी आíथक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सभी महाद्वीपों के लोगों के लिए यूरोप के द्वार खोल दिए, जिसने यूरोप को उत्तरोत्तर विकसित एवं सभ्य बनाया। समावेश की यह प्रक्रिया न केवल सामाजिक एवं धार्मिक आधारों पर अवलंबित थी, किंतु राजनीतिक एवं आर्थिक तौर पर भी सभी को समान अवसर देने की पक्षधर थी। उपरोक्त ऐतिहासिक एवं वैचारिक मतभेदों के अलावा यूरोपीय राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि को समझना भी आवश्यक है, जहां कई यूरोपीय राष्ट्रों के गठन मात्र सौ-दौ सौ वर्ष पहले ही हुए हैं और इस प्रकार नए यूरोपीय देश अपनी विशिष्ट पहचान को लेकर काफी सतर्क हैं। इन राष्ट्रों में शरणार्थी संकट के बाद इस्लाम का प्रवेश एक समानांतर संस्कृति के विकास एवं उनके ध्रुवीकरण को दर्शाता है जो यूरोपीय राष्ट्रों में सांस्कृतिक संचेतना को बढ़ावा देता है।

इस संघर्ष को मात्र प्रशासनिक तौर पर नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसकी जड़ें यूरोपीय समाज के अंदर भी देखी जा सकती हैं। सामाजिक मुद्दों पर शोध करने वाली संस्था प्यू रिसर्च की 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि 43 प्रतिशत यूरोपियन यूनियन जनसंख्या मुस्लिमों के बारे में नकारात्मक विचार रखती है। इसका कारण मात्र इस्लामिक रूढ़िवाद और धार्मिक अनुपालन ही नहीं, बल्कि इस्लामिक विचारकों द्वारा कुरान की अलग-अलग और भ्रामक व्याख्या, आतंकी गतिविधियों, अराजकता को बढ़ावा देना, धर्मातरण के सक्रिय प्रयास, लोकतंत्र में अविश्वास और धार्मिक असहिष्णुता का अंतíनहित होना भी है। ये सभी तत्व मिलकर इस्लाम को और भी संकीर्ण बना देते हैं। साथ ही दुनिया भर में बीते दो दशकों में सामूहिक हिंसा के मामलों को जिहादियों द्वारा अंजाम देने से इनके प्रति आशंका बढ़ती गई है।

राष्ट्रवादी दलों का उभार : इस तरह की नीति को आगे बढ़ाने के लिए यूरोपीय जन प्रतिनिधियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें हंग्री के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबन, पोलिश प्रधानमंत्री मातेयुस मोरवीएसकी महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने सीमित संख्या में शरणाíथयों के आगमन के बाद अपनी सीमाओं को बंद कर दिया तथा पारंपरिक यूरोपीय व्यवस्था की तरफ लौटने के पक्ष में अपने तर्क दिए। इसके अलावा इटली में वित्तीय संकट के बाद उत्तरी अफ्रीका से आने वाले आप्रवासियों, शरणाíथयों के मामले में द लीग पार्टी के नेता मातेओ साल्विनि ने पिछले वर्ष इटली के बंदरगाहों को बंद करने की बात कही।

स्पेन में द वॉक्स का उदय, पूर्व जर्मनी में अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी, ऑस्टिया में फ्रीडम पार्टी, फ्रांस में नेशनल फ्रंट, स्वीडन में स्वीडन डेमोक्रेट सभी उभरते राष्ट्रवादी दलों के लिए शरणार्थी और अप्रवासी एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं, जिसके जरिये न सिर्फ जनता के बढ़ते असंतोष को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जा रहा है, बल्कि यूरोपीय राष्ट्रों की खोई प्रतिष्ठा को उसके सांस्कृतिक पुनर्जागरण के द्वारा वापस लाने का प्रयास भी किया जा रहा है। इन पहचान आधारित राष्ट्रवाद के समर्थक दलों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता और इनकी चुनावी सफलता जनता में इनके बढ़ते प्रभाव और तत्कालीन मुद्दों की प्रासंगिकता को भी स्पष्ट करती है। स्थापित धार्मिक मूल्यों के साथ फ्रांस का टकराव नई बात नहीं है। इसे पिछले दशकों के अनुभव से समझा जा सकता है, जहां धार्मिक प्रतीकों और फ्रांसीसी गणराज्य के बीच पहले भी टकराव होते रहे हैं। इन घटनाओं ने न केवल फ्रांसीसी गणराज्य के धर्म के साथ असहज संबंधों को उजागर किया है, बल्कि धर्म को पूर्णत: व्यक्तिगत विषय घोषित करके फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता को भी स्थापित किया है।

इस संदर्भ में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए इस्लामिक अलगाववाद के विरुद्ध गणतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की बात कही, जहां इस्लाम को फ्रांस के सेक्युलर आधारों पर स्थापित करके इस्लामिक प्रबोधन को आवश्यक बताया, ताकि इस्लाम को फ्रांसीसी समाज के साथ एकीकृत किया जा सके। इसके साथ ही मैक्रों ने संपूर्ण इस्लामिक संस्कृति को समानांतर व्यवस्था के तौर पर स्थापित किया जो गणतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध एक अलगाववादी समाज की स्थापना पर बल देता है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वविवेक एवं निंदा के अधिकार को पूर्णत: खारिज किया जाता है।

इस तत्कालीन घटना पर मैक्रों के हालिया बयान के बाद से ही विश्व के देश दो गुटों में बंट गए दिखते हैं, जहां एक ओर विभिन्न गणतांत्रिक देशों ने कार्टूनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में स्वीकार किया, तो वहीं दूसरी ओर कुछ देशों के द्वारा कार्टून और मैक्रों के बयान की आलोचना भी की गई। इन गुटों को गणतंत्र बनाम इस्लाम के रूप में देखा जा सकता है, जहां एक ओर लगभग सभी यूरोपीय देशों, अमेरिका एवं एशिया के सभी गणतांत्रिक देशों ने फ्रांस के आतंकी हमले की आलोचना करते हुए मैक्रों के साथ सहयोग की बात कही। इसके विपरीत, कई इस्लामिक देशों, जिनमें पाकिस्तान और टर्की प्रमुख है, उन्होंने मुख्य रूप से फ्रांसीसी साप्ताहिक शार्ली आब्दो और राष्ट्रपति मैक्रों की पूरे प्रकरण पर निंदा की है और फ्रांस के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को समाप्त करने तक की बात की है।

[शोधार्थी, यूरोपीय अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]