प्रणय कुमार: इतिहास के बारे में यह एक मान्यता खूब प्रचलित है कि उसे प्राय: विजेताओं द्वारा लिखा जाता है, परंतु भारतीय इतिहास लेखन के क्षेत्र में ठीक विपरीत चलन देखने को मिलता है। हम अपने आदर्शों, मानबिंदुओं और संस्कृति की रक्षा एवं स्वतंत्रता के लिए डटे, लड़े, बहुधा जीते और यदि छल-बल से कभी पराजित भी हुए तो विदेशी आक्रांताओं के दुर्बल पड़ते ही बारंबार खड़े हुए और अपनी स्वाधीनता का पुन: परचम लहराया।

इस प्रामाणिक तथ्य को जानने के बावजूद तथाकथित प्रगतिशील चेतना के नाम पर लगातार यह झूठ दोहराया जाता रहा कि भारत का इतिहास तो पराजय का इतिहास है और हम करीब आठ सौ वर्षों तक गुलाम रहे, जबकि सत्य यह है कि भारत का कोई बड़ा भूभाग लंबे समय तक किसी विदेशी हमलावर के पूरी तरह अधीन कभी नहीं रहा। हर क्षेत्र में कोई न कोई भारतीय राजा या राजवंश विदेशी शासकों के मार्ग में या तो अवरोधक बनकर खड़ा रहा या उन्हें युद्ध की चुनौती देता रहा और उनके पतन का कारण बनता रहा। यदि ऐसा न हुआ होता तो पूरा भारत दुनिया के अन्य देशों की तरह एक ही रंग में रंग गया होता।

यह सत्य है कि अरबों ने तलवार के बल पर दुनिया के एक बड़े हिस्से में इस्लाम को तेजी से फैलाया। उसकी आंधी को अधिकांश सभ्यताएं झेल नहीं पाईं। जहां-जहां उसके कदम पड़े, वहां-वहां किसी अन्य मत-संस्कृति-परंपरा के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहा। भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां अरब, तुर्क, अफगान हमलावरों को दुनिया के अन्य भूभागों की तुलना में बहुत कम सफलता मिली। मध्य पूर्व, पर्शिया, मेसोपोटामिया, सीरिया, उत्तरी अफ्रीका आदि में उन्होंने जो सफलता पाई, उसे वे भारत में नहीं दोहरा पाए। अकेले मेवाड़ वंश के राजाओं ने सैकड़ों वर्षों तक इस्लामिक आक्रांताओं का डटकर सामना किया, अनेक युद्धों में उन्हें पराजित किया, संकट में घिरने पर जंगलों की खाक भी छानीं, परंतु स्वधर्म और स्वाभिमान की टेक कभी नहीं छोड़ी। इसी तरह असम के अहोम राजाओं ने बख्तियार खिलजी से लेकर औरंगजेब तक को पराजित किया और उन्हें असम में प्रवेश तक नहीं करने दिया।

अहोम राजा लाचित बोड़फूकन के तो नाम से भी मुगल सेना थर्राती थी। वास्तव में हमारे अनेक ऐसे राजा और राजवंश हुए, जिन्होंने अरबों-तुर्कों-मुगलों के छक्के छुड़ा दिए, उन्हें कई बार पीछे हटने पर मजबूर किया, परंतु दुर्भाग्य से इतिहास की हमारी पाठ्य-पुस्तकें ऐसे रणबांकुरों के शौर्य पर आश्चर्यजनक रूप से मौन हैं।

भारत पर प्रथम एवं प्रभावी आक्रमण मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ईस्वी में किया, जिसमें सिंध के राजा दाहिर की हार हुई, परंतु कालांतर में मेवाड़ के शासक बप्पा रावल, प्रतिहार राजा नागभट्ट प्रथम, चालुक्य राजा पुलकेशी आदि ने मिलकर अरबों को बुरी तरह पराजित कर उन्हें खदेड़ा। सिंध, मुल्तान, गजनी, रावलपिंडी जैसे स्थानों पर महापराक्रमी बप्पा रावल ने इस्लामिक शासकों को गद्दी से उतार अपने प्रतिनिधियों को शासन की बागडोर सौंपी। रावलपिंडी का नामकरण उनके ही नाम पर हुआ। इस्लामिक आक्रांताओं में उनके पराक्रम का ऐसा आतंक छाया कि दशकों तक वे भारत में पांव जमाने का साहस नहीं जुटा सके। महमूद गजनी जैसे कुछ आक्रांता आए भी तो प्रतिरोध के भय से लूटपाट कर शीघ्र ही वापस लौट गए।

विदेशी आक्रांताओं को रोकने में भारतीय राजाओं द्वारा किए गए साझा प्रयासों के बावजूद प्रचारित यही किया जाता रहा कि वे आपस में ही लड़ते रहे और उनमें प्रजा के हित की दूर-दूर तक कोई चिंता नहीं थी। उनके संघर्ष को मात्र सत्ता संघर्ष कहकर विदेशी आक्रमणों को स्वाभाविक एवं उचित सिद्ध किया जाता रहा? यदि यह मात्र सत्ता संघर्ष होता तो असहनीय कष्ट झेलकर विदेशी आक्रांताओं से युद्धरत राज्यों की प्रजा अपने राजाओं के साथ दृढ़ता से क्यों खड़ी रहती? शत्रु-मित्र के यथार्थबोध के बिना क्या यह संभव था? सत्य यही है कि यह सत्ता नहीं, स्वतंत्रता का संघर्ष था, जिस पर खुलकर लिखने-बोलने की आज महती आवश्यकता है।

इतिहास की गौरवशाली घटनाओं को इसलिए सामने लाने की आवश्यकता है, जिससे युवा पीढ़ी में गौरव एवं स्वाभिमान का संचार हो। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कथित इतिहासकारों ने दिल्ली सल्तनत एवं मुगल साम्राज्य की तो अतिरंजित विवेचना की, परंतु कई-कई शताब्दियों तक शासन करने वाले मौर्य, गुप्त, चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, मैत्रक, राष्ट्रकूट, वाकाटक, कलिंग, कार्कोट, काकतीय, सातवाहन, विजयनगर, ओडेयर, अहोम, नागा आदि साम्राज्यों की भरपूर उपेक्षा की। जबकि इनके शासन काल में कला, साहित्य, संस्कृति का अभूतपूर्व विकास हुआ।

विस्मृति के गर्त में षड्यंत्र पूर्वक धकेल दिए गए अपने तमाम उपेक्षित नायकों एवं अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों को सामने लाने की दृष्टि से हाल में ओमेंद्र रतनू द्वारा लिखित 'महाराणा: सहस्र वर्षों का धर्मयुद्ध पुस्तक के विमोचन के अवसर पर गृहमंत्री अमित शाह का यह वक्तव्य समाधनपरक है कि 'झूठ पर टीका-टिप्पणी करने से वह और अधिक प्रचारित होता है। जब हमारा प्रयास बड़ा होता है तो झूठ का प्रयास अपने आप छोटा हो जाता है। अत: हमें प्रयास बड़ा करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सरकारों की एक सीमा होती है। उन्होंने यह भी सही कहा कि सरकारें इतिहास नहीं लिख-गढ़ सकतीं, उसके लिए विद्वान एवं प्रबुद्ध व्यक्तियों को ही आगे आना होगा और अपने नायकों-योद्धाओं से लेकर गौरवशाली अतीत पर विपुल संदर्भ-ग्रंथ लिखने होंगे। इस कार्य में अब और देर नहीं होनी चाहिए।

(लेखक सामाजिक संस्था शिक्षा सोपान के संस्थापक-संचालक हैं)