हिमाचल प्रदेश, नवनीत शर्मा। हिमाचल प्रदेश में कुछ समय से एक सवाल तैर रहा था जिसे समय ने बहस का विषय बना दिया। लॉकडाउन हो या न हो। प्रदेश सरकार ने रायशुमारी करवाई कि जनता चाहती क्या है। सरकार के इस कदम पर भी दो प्रकार के विचार आए हैं। एक यह कि राय से बेहतर था कि सरकार स्वयं निर्णय ले। दूसरा यह कि लोकलाज से चलता है, इसलिए लोक का मत लिया जाए। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री ने अंतत: वही किया जो एक प्रशासक को करना चाहिए था, लॉकडाउन से इन्कार।

महामारी से डर जायज है, लेकिन डर के आगे ही जीत है। लॉकडाउन की वकालत करना वैसा ही है, जैसा यह कहना कि हम बिना ताले के नहीं रह सकते, अगर ताला खुला रहा तो हम खुद पर काबू नहीं रख पाएंगे और पता नहीं किस हद से गुजर जाएंगे। सच यही है। जिस जनता को महामारी से डर भी हो, आíथक स्थिति की चिंता भी हो, लेकिन शारीरिक दूरी या मास्क का पता न हो, वहां कोरोना मीटर के आंकड़ों की वृद्धि कौन रोक सकता है? कतिपय जिम्मेदार लोग भी अनुशासित रह कर नजीर पेश करें तो बात बनेगी। इसके लिए सबसे पहले जन प्रतिनिधियों को आगे आना होगा।

लॉकडाउन की हिमायत का अर्थ था प्रदेश को फिर से उसी दिशा में ले जाना जहां आर्थिक गतिविधि के लिए कोई स्थान न रहे, जहां चौके चूल्हे उदास हो जाएं, जहां औद्योगिक सक्रियता ताले के अंदर हो जाए। सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा है। असाधारण स्थिति है, क्योंकि महामारी भी सामान्य नहीं है। शुरुआती लॉकडाउन के विपक्ष में कुछ इसलिए नहीं कहा जा सका, क्योंकि नई चुनौती थी, भय के आकार, रोग के प्रकार का पता नहीं था। बचाव को ही उपाय समझा गया, पर अब जब ताले खुल गए हैं कुछ मामले अधिक हो जाने के कारण यह कहना उचित नहीं है कि लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है। सख्ती बढ़े, जनता का विवेक जगे, जन प्रतिनिधि पक्ष के हों या विपक्ष के, चित्रों में मास्क पहने हुए नजर आएं तो लोक में भी संदेश जाता है।

ये दीया कैसे जलता हुआ रह गया : हिमाचल के ज्वालामुखी के गुम्मर गांव के रहने वाले एक गरीब नागरिक कुलदीप की गाय और फोन अचानक चर्चा में आ गए। उसने बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए कर्ज लेकर फोन लिया था। उस कर्ज को चुकाने के लिए उसे अपनी एक गाय बेचनी पड़ी। छोटी बातें बड़ा असर करती हैं। यहां भी मतभिन्नता हो गई। अधिक तब हुई जब अभिनेता और समाजसेवी सोनू सूद ने भी उसकी मदद करने की इच्छा जताई। उसके बाद गरीबी सूंघने वाले और एकपक्ष ही देखने वाली दिल्ली की एक पत्रकार भी कुलदीप के साथ ऑनलाइन कनेक्ट हुईं। उनके एजेंडा में थी यह बात।

एक पक्ष यह कह रहा था कि कुलदीप के बच्चे निजी स्कूल में पढ़ते हैं इसलिए वह अमीर है। एक अधिकारी को कुलदीप के कुछ माह पहले खरीदे फोन के डिब्बे पर कीमत अवश्य दिखी, पशुओं के साथ कमरा साझा करता कुलदीप का परिवार नहीं दिखा। सारांश यह कि कुछ को कुलदीप को अमीर घोषित करना था। इसके विपरीत, कुछ को उसे इतना गरीब घोषित करना था कि सरकार कुछ नहीं कर रही।

एक तीसरा पक्ष भी है जो केवल तथ्य जानता है। तथ्य यह कि इसमें सरकार की भूमिका से अधिक पंचायत प्रधान, विधायक और समाज की भूमिका होनी चाहिए थी। कि कुलदीप जिस कमरे में रहता है, वहां पांच पशु भी साथ बंधते हैं। कि कमरे के ठीक बाहर छोटी सी जगह है, जहां कुछ बोरियों को यह काम दिया गया है कि वे बौछार भी रोकें और हवा को भी। कि एक बेटा और एक बेटी पूरा दिन साथ के पीपल के टियाले के पास खेलते रहते हैं। रात होने पर ही उन्हें घर जैसा कुछ जरूरी लगता है। कि निजी स्कूल में उसके बच्चों के टिफिन बॉक्स में दही, नमक और रोटियां होती थीं। कि एक बार उसके बच्चे को सांप ने भी काटा था। कि घर के बाहर बीपीएल का बोर्ड लगा था जिसका रंग अब मिट गया है, क्योंकि कुलदीप ने मनरेगा में काम नहीं किया था, पीठ में दर्द रहता है। कुछ वर्षो से गरीबी रेखा कागजों में उससे नीचे रह गई। जिस निजी स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं, उसने बच्चों की आधी फीस माफ कर रखी थी, अब पूरी माफ कर दी है।

विधायक रमेश धवाला उसकी स्थिति पर पसीजे हैं, सरकार ने भी उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाए हैं। खंड विकास अधिकारी उसकी मदद कर रही हैं। कुलदीप के खाते में अब करीब साढ़े चार लाख रुपये आ भी चुके हैं। कुलदीप जैसे दीये रोशनी देते रहें, इसके लिए पंच परमेश्वर भी चिंतित हों। शायद उसका और बच्चों का जीवन अब आसान हो। वसीम बरेलवी याद आ रहे हैं:

आंधियों के इरादे तो अच्छे न थे

ये दीया कैसे जलता हुआ रह गया।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]