किसान आज भी सबसे बड़े वोट बैंक हैं और उनकी अनदेखी किसी भी दल पर भारी पड़ सकती है
केंद्र सरकार द्वारा 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की कवायद जारी है। यह भी सुनिश्चित हो कि आमदनी बढ़ती महंगाई के अनुकूल तय हो।केंद्र सरकार
[ केसी त्यागी ]: सियासी गलियारों में इन दिनों किसान हितों से जुड़े मुद्दों की धूम है। चर्चा है कि आम चुनावों के मद्देनजर केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र के कायाकल्प की तैयारी में जुट गई है। इससे प्रतीत होता है कि आगामी चुनाव किसानों के मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा। यह किसान और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। हाल के चुनावी नतीजों के बाद कृषि दुर्दशा पर बहस तेज होने से स्पष्ट हुआ है कि किसान आज भी सबसे बड़े वोट बैंक हैं और उनकी अनदेखी किसी भी दल पर भारी पड़ सकती है। चुनावी चाल ही सही, अभी आनन-फानन में कांग्रेस द्वारा तीन राज्यों में कर्ज माफी की अविलंब घोषणा सुर्खियों में रही। इन घोषणाओं के बीच अहम सवाल है कि क्या कर्ज माफी से ही किसानों का संकट दूर हो जाएगा? क्या अगली बार वे किसान कर्ज नहीं लेंगे? क्या इस पहल मात्र से खेती-बाड़ी फायदे का सौदा बन जाएगी?
दरअसल कृषि संकट दो-चार वर्षों की देन नहीं है। यह दशकों पुरानी खराब नीतियों का नतीजा है। 50 के दशक में राष्ट्रीय जीडीपी में कृषि क्षेत्र की जहां 50 फीसद हिस्सेदारी थी वह आज सिकुड़कर 14 फीसद तक पहुंच गई है। वैश्वीकरण और उदारवाद के सहारे बाजार को जहां खूब बल मिला वहीं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था निरंतर बदहाली का शिकार होती रही। बाजारवाद के उभार से आर्थिक संपन्नता तो दिखी, लेकिन समृद्धि कुछ क्षेत्रों तक ही सिमटकर रह गई। इसने ग्रामीण भारत और इंडिया के बीच एक बड़ी लकीर खींचने का भी काम किया है।
अभी भी देश में 60 फीसद से अधिक आबादी कृषि व्यवसाय से जुड़ी है। यही आबादी अपने जीवन-यापन के लिए आंदोलनरत और आत्महत्या तक को मजबूर होती रही है। कभी सूखा, कभी बाढ़ और ओलावृष्टि कुदरती आपदाओं के रूप में किसानों पर आफत बनकर टूटती हैं तो कभी उचित लागत मूल्य न मिल पाना, सिंचाई की असुविधा, जीएम बीजों के दुष्परिणाम, गन्ना किसानों को असमय भुगतान आदि कृत्रिम परेशानियां भी सामने आती रही हैं। ऐसी स्थिति में कृषि जगत को छोटी-मोटी और लोकलुभावन राहतों के बजाय बड़ी सर्जरी की आवश्यकता है।
राजनीतिक दलों और सरकारों को अब प्राथमिकता से किसान हितों के मुद्दे साधने होंगे। इस लिहाज से उनके चुनाव पूर्व घोषणा पत्रों में कृषि और कृषक समेत उनकी अर्थव्यवस्था की रक्षा की बातें स्पष्ट होनी चाहिए। एक ऐसा प्रारूप तैयार हो जिसमें कृषि आर्थिक विकास की केंद्र बिंदु रहे। एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाए जाने की गुंजाइश है जिसमें ग्रामीण आबादी की बेरोजगारी दूर की जा सके, पलायन पर काबू पाया जा सके और यह तभी संभव होगा जब खेती-बाड़ी लाभकारी बन पाएगी। इसके लिए एक किसान आयोग बनाने की सख्त जरूरत है जो कृषि संबंधित समग्र्र नीतियों पर विचार करे। इसमें किसान पृष्ठभूमि के विशेषज्ञों को शामिल कर उनकी वास्तविक जरूरतों को समझकर उनका समाधान सही निदान होगा।
कृषि के लिए अलग से बजटीय प्रावधान मौजूदा संकट के समाधान के लिए बड़ा उपाय हो सकता है। यह बजट सिंचाई, उर्वरक, दामों की भरपाई समेत सूखे और बाढ़ की स्थिति में क्षतिपूर्ति आदि के लिए होना चाहिए। देश के भीतर कुल कृषि योग्य भूमि का मात्र 35 फीसद भूभाग ही सिंचित है। यही कारण है कि देश की अर्थव्यवस्था भी मानसून की मेहरबानी पर टिकी रहती है। सिंचाई के अभाव में भूमि का बड़ा रकबा खाली रह जाता है। इस स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग की तरह राष्ट्रीय सिंचाई मार्ग की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती? केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय द्वारा गत वर्ष 27 किमी प्रतिदिन की रफ्तार से 9,829 किमी राजमार्ग का निर्माण इस सरकार की बड़ी उपलब्धि भी है। इसी तरह राष्ट्रीय सिंचाई मार्ग का निर्माण करोड़ों किसानों के लिए जीवन रक्षक साबित होगा।
हाल के दिनों में कई किसान आंदोलन हुए। इस दौरान देश भर के किसानों की एक समान मांग रही-न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी। अब यह बात तो कृषि मंत्री और नीति आयोग द्वारा भी स्वीकार की जा चुकी है कि किसानों को एमएसपी नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में स्वामीनाथन आयोग द्वारा अनुशंसित सी-2 के तहत लागत मूल्य पर 50 फीसद का लाभकारी मूल्य किसानों को घाटे से उबारने की दिशा में बड़ी पहल होगी। हालांकि वर्तमान सरकार ने एमएसपी में इजाफा कर फसलों के दाम बढ़ाने का काम किया है, लेकिन यह ए-2 एफएल प्रणाली के तहत हुआ था। ए-2 एफएल और सी-2 व्यवस्था के तहत मूल्य निर्धारण में बड़ा अंतर है। और यही किसानों के असंतोष का कारण भी है। एमएसपी से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि किसानों को घोषित एमएसपी नहीं मिल पाता। इसके कारण मध्य प्रदेश में भावांतर भुगतान योजना शुरू की गई थी।
ऐसी ही समस्या से गन्ना किसानों को भी प्रतिवर्ष गुजरना पड़ता है जब उन्हें गन्ने की कीमत के लिए साल भर मिलों के चक्कर काटने पड़ते हैं। यहां भी मौजूदा व्यवस्था विफल है। सेंट्रल शुगरकेन ऑर्डर के अनुसार मिलों द्वारा किसानों को खरीद के 14 दिनों के भीतर कीमत भुगतान करने का आदेश है। ऐसा नहीं होने पर 15 फीसद वार्षिक दर से ब्याज देने का प्रावधान है। इस परिदृश्य में लाभकारी एमएसपी की घोषणा से कहीं अधिक इसका सफल और सख्त क्रियान्वयन महत्वपूर्ण होगा। टमाटर, प्याज, आलू समेत अन्य मौसमी सब्जियों के साथ समस्या और गंभीर है। इस दिशा में सरकार किसानों से उचित लाभकारी मूल्य पर सब्जियां खरीद कर भंडारण कर सकती है। इसके लिए कोल्ड स्टोरेज की संख्या पर्याप्त करनी होगी। फसल नुकसान होने की स्थिति में बीमा योजना की प्रासंगिकता बढ़ी है, लेकिन इसका अनुभव बुरा रहा है।
सरकारी तंत्र के तहत इसका क्रियान्वयन किसानों को फायदा दिलाने में कामयाब हो सकता है। तेलंगाना की केसीआर सरकार द्वारा रैयत बंधु योजना के तहत किसानों को प्रत्येक फसल मौसम में प्रति एकड़ 4000 रुपये लागत सहायता स्वरूप दिए जाने की पहल इन दिनों आदर्श पहल के रूप में देखी जा रही है। सीधे किसानों के खाते में जाने वाली इस रकम का सदुपयोग बीज, खाद आदि के लिए होगा। इससे कर्ज लेने की जरूरत और प्रवृत्ति दोनों ही कम होंगी।
मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की कवायद जारी है। इस बीच यह भी सुनिश्चित हो कि आमदनी बढ़ती महंगाई के अनुकूल तय हो। इस पहल से न सिर्फ खेतिहरों का उत्थान होगा, बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी स्वस्थ, शिक्षित और समृद्ध होकर देश की आर्थिकी में भागीदार बनेंगी। देश एक हरित क्रांति देख चुका है। ऐसे में इन पहल पर अमल कर ग्रामीण भारत को सर्वदा हरित किया जा सकता है।
[ लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]