दिव्य कुमार सोती। पिछले दिनों अमेरिकी दौरे पर गए विदेश मंत्री एस. जयशंकर का एक बयान बहुत चर्चित रहा। उन्होंने कहा कि ‘हम भी दूसरे देशों में मानवाधिकारों की स्थिति पर राय रखते हैं और इनमें अमेरिका भी शामिल है।’ उनके इस बयान ने मानवाधिकारों के मसले पर अमेरिका को आईना दिखाने का काम किया। वास्तविकता यही है कि अभी तक पश्चिमी देश ही भारत समेत तमाम देशों को मानवाधिकारों पर उपदेश देते आए हैं। जबकि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में जारी मानवाधिकारों के उल्लंघन पर बोलने की किसी में हिम्मत नहीं होती थी। दरअसल अमेरिका अपनी ताकत के दम पर खुद ही दुनिया में मानवाधिकारों का ठेकेदार बन बैठा। मानवाधिकारों को लेकर अमेरिकी संस्थाओं द्वारा तय विमर्श ही अंतिम सत्य माना जाता रहा।

पश्चिम के दबदबे वाला अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी इसी विमर्श को आगे बढ़ाता रहा। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर भी पश्चिमी देशों का ही वर्चस्व है तो अमेरिका जैसे देशों ने गरीब या विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाने के लिए वित्तीय सहायता को इन देशों में मानवाधिकारों की स्थिति से जोड़ दिया। किसी गरीब या विकासशील देश में उन्हें रास न आने वाली सरकार बनती तो वे उस पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाकर उसे बैकफुट पर धकेलने लगते हैं। पश्चिम प्रायोजित इस विमर्श को चुनौती देने का साहस किसी में नहीं था। कारण यही कि पश्चिमी मानवाधिकार संस्थाएं और अंतरराष्ट्रीय मीडिया उसके बचाव के लिए सदैव तत्पर था। ऐसी स्थिति में जयशंकर का बयान न केवल क्रांतिकारी, बल्कि स्वागतयोग्य भी है।

मानवाधिकार संगठनों पर वामपंथी -उदारवादियों का सदा से नियंत्रण रहा है और वामपंथी राजनीति वर्ग संघर्ष पर आधारित रही है। ये संस्थाएं वामपंथी उदारवादी विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपों का वर्ग संघर्ष को जन्म देने और उसकी तीव्रता बढ़ाने के लिए उपयोग करने लगीं। मानवाधिकार वर्गाधिकार बना दिए गए और वर्ग वोट बैंक। चूंकि बढ़ा हुआ वर्ग संघर्ष अक्सर अलगाववाद को जन्म देता है तो तमाम विभाजनकारी शक्तियों को इस उपक्रम में अपनी दाल गलती दिखी। परिणामस्वरूप संप्रदायों के धार्मिक अधिकारों को व्यक्ति के मानवाधिकारों से जोड़ दिया गया। इसने समस्या को और विकट बना दिया, क्योंकि जिन संप्रदायों में दूसरों का मतांतरण करना कर्तव्य बताया गया है तो उन संप्रदायों के मानने वाले का दूसरों का मतांतरण करना उसके निजी मानवाधिकार में गिना जाने लगा। अगर कोई उसे ऐसा करने से रोके तो मानवाधिकार उल्लंघन के नाम पर ये संस्थाएं हंगामा करने लगतीं। नतीजा यह हुआ कि मतांतरण का धंधा चलाकर पश्चिम का प्रभाव एशियाई और अफ्रीकी देशों में बढ़ाने में लगीं तमाम संस्थाएं भी मानवाधिकार के रथ पर सवार हो गईं। मतांतरण की धार्मिक स्वतंत्रता मानवाधिकार और इस पर कोई भी रोक-टोक मानवाधिकार हनन बन गया।

यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन आन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम यानी यूएससीआइआरएफ जैसी वे संस्थाएं, जो अमेरिकी सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करती हैं, विभिन्न देशों को धार्मिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों का सर्टिफिकेट प्रदान करने वाली मठाधीश बन बैठीं। इन संस्थाओं की रिपोर्ट कभी निष्पक्ष एवं न्यायसंगत नहीं रहीं। पश्चिम के निहित स्वार्थो के अनुरूप विमर्श गढ़ना ही उनका उद्देश्य रहा है। यही कारण है कि जहां चर्च में छोटी-मोटी चोरी को भी उन्होंने भयंकर मानवाधिकार उल्लंघन और धार्मिक स्वतंत्रता का हनन बताया, वहीं कश्मीरी हिंदुओं और रियांग हिंदुओं के निर्मम नरसंहारों पर चुप्पी साधे रखी। अमेरिकी सरकार ने यूएससीआइआरएफ जैसी संस्थाओं को दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर नजर रखने और नीतिगत सिफारिशों के साथ अपनी रिपोर्ट सौंपने का काम सौंप रखा है, लेकिन खुद अमेरिका के भीतर मानवाधिकारों एवं धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई बात नहीं होती। यह चिराग तले अंधेरे वाली स्थिति है।

भला यह कैसे विस्मृत किया जा सकता है कि आचार्य रजनीश के बढ़ते प्रभाव के कारण चर्च के दबाव में उन्हें अमेरिका और अन्य ईसाई बहुल देशों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति भारत दौरे पर आए बराक ओबामा ने प्रधानमंत्री मोदी के बगल में बैठकर चर्च की खिड़की का कांच टूटने जैसी घटनाओं को लेकर मानवाधिकारों और धार्मिक सहिष्णुता का राग छेड़ा था। वहीं अमेरिका के केंटुकी स्थित स्वामीनारायण मंदिर में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों पर कालिख पोतकर मंदिर की दीवारों पर ‘जीसस इज द ओनली ट्रू लार्ड’ लिखे जाने जैसी घटनाओं की आपने कभी चर्चा नहीं सुनी होगी।

2001-19 के बीच अमेरिका में हिंदू मंदिरों पर इस प्रकार के 19 हमले हुए। इतना ही नहीं, अमेरिका में चर्च ने योग को लेकर घृणा फैलाने का खुला अभियान छेड़ रखा है। सिएटल के बिशप तो सार्वजनिक रूप से योग को ‘शैतान की पूजा’ बता चुके हैं। अमेरिका में अश्वेतों के साथ भेदभाव और ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ जैसे आंदोलनों के बारे में आपने सुना होगा, परंतु उनसे भी ज्यादा बुरी स्थिति वहां के रेड इंडियन आदिवासियों के मानवाधिकारों की है, जो अमेरिकी संघीय गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आने से लेकर आज तक नहीं सुलझी। अमेरिका के राष्ट्र निर्माताओं ने भारी नरसंहार के बाद वहां के आदिवासी राज्यों को अमेरिकी परिसंघ में शामिल करते समय तमाम लिखित संधियां की थीं, जो बाद में तोड़ दी गईं। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने इस कदम को सही भी ठहरा दिया।

यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र तक जा चुका है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय विमर्श पर अमेरिकी दबदबे के चलते अधिकांश लोग इन मुद्दों से अनभिज्ञ हैं। ऐसे में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के विदेश मंत्री का इन मुद्दों की ओर संकेत करना स्थापित पाश्चात्य विमर्श को साहसिक वैचारिक चुनौती है, जिसे तथ्यों का साथ मिलने वाला है।

(लेखक काउंसिल आफस्ट्रेटजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)