नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। गरमा रहे चुनावी माहौल के बीच अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 50 फीसद के कोटे को छेड़े बिना सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 फीसद  आरक्षण फैसले को मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। सरकार के इस कदम ने आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की राह भी खोली है। निश्चित समयावधि के लिए की गई जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को राजनीतिक और सामाजिक कारणों से बार-बार बढ़ाना पड़ा। पिछड़ों के आरक्षण और कल्याण योजनाओं का बड़ा हिस्सा पिछड़ों में अगड़ा समूह मार ले जा रहा है। ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण को बल मिलता है। सौ बात की एक बात तो यह है कि अगर देश के सभी नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं आसानी से मुहैया हों, तो आरक्षण जैसी किसी चिड़िया की जरूरत ही नहीं है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा और विवशता के चलते न तो सरकारें इसके लिए तैयार हैं और न ही हम भारत के लोग। ऐसे में आरक्षण को ही ब्रह्मास्त्र मानने की सोच की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। आइए जानते हैं इस पर क्‍या है जानकारों की राय।      

आरक्षण का लॉलीपॉप
वर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आर्थिक-आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने के संविधान संशोधन पारित होने से आरक्षण पर नई बहस छिड़ गई है। क्या यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम है या ‘लॉलीपॉप-पॉलिटिक्स’? आरक्षण विरोधियों का यही तर्क हुआ करता था कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए। इस मुद्दे पर आज न तो कोई आंदोलन था, न ही सवर्णों की कोई मांग। पूर्व-प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को संविधान के विरुद्ध बताया था, पर अब तो संविधान संशोधन हो गया। इसके द्वारा संविधान में अनुच्छेद 15(6) और अनुच्छेद 16(6) जोड़ा गया, जिस सुप्रीम कोर्ट में इस आधार पर चुनौती दी गई है कि वह संविधान के मूल-ढांचे के विरुद्ध है। ‘आर्थिक रूप से पिछड़े’ वर्ग की परिभाषा को भी चुनौती दी गई है क्योंकि उसको तय करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है।



न्यायालय द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर आरक्षण देने पर 50 फीसद की बंदिश लगी हुई है। तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र आदि राज्यों ने उसे तोड़ा जरूर है पर वह न्यायालय में विवादित है। लेकिन आर्थिक आधार पर किया जाने वाला आरक्षण उस लक्ष्मणरेखा के बाहर है। तो क्या अब 50 फीसद वाली बंदिश निष्प्रभावी हो जाएगी? केशवानंद भारती मुकदमे (1973) में ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ को संविधान का मूल-ढांचा माना गया था। आर्थिक-आधार पर आरक्षण देने वाला यह संशोधन देश के गरीब सवर्णों और गरीब मुस्लिमों को आर्थिक न्याय दिलाने की दिशा में एक कदम है। तो क्या न्यायालय को अपना निर्णय बदलना पड़ेगा? जो भी हो पर इसका राजनीतिक लाभ संभवत: मोदी सरकार और भाजपा को मिल सकता है।

क्या इस आरक्षण से गरीब सवर्णों का कुछ भला होगा? एससी-एसटी आरक्षण में तो क्रीमी लेयर लागू नहीं होती जिससे 70 वर्षों बाद भी अति-दलित वहीं खड़े हैं। ओबीसी में क्रीमी-लेयर की सीमा आठ लाख रुपये बढ़ाने से गिनी-चुनी पिछड़ी जातियां ही आरक्षण का लाभ ले पा रही हैं। यदि क्रीमी-लेयर की यही सीमा सामान्य-वर्ग में भी लागू हो गई तो वास्तव में किसी गरीब का भला नहीं होने वाला क्योंकि देश में वेतनभोगी वर्ग को छोड़ कर शेष लोग अपनी वास्तविक आय को छिपा जाते हैं और धनी होने के बावजूद वे ही आरक्षण का लाभ ले जायेंगे। पर इससे मुस्लिम समाज को आरक्षण का सीधा लाभ मिलेगा क्योंकि मुस्लिम समुदाय के ज्यादातर लोग वेतनभोगी नहीं। अत: वे आरक्षण का लाभ ले सकेंगे हालांकि इससे संपन्न अशरफ-मुस्लिम (उच्च-वर्ग) भी अजलफ (मध्य-वर्ग) और अजऱ्ल (निम्न-वर्ग) अर्थात पसमांदा मुस्लिमों के सामान ही आरक्षण का लाभ लेने की कोशिश करेंगे।

यदि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों में गरीबों का वास्तविक हित करना है तो गरीबी की सीमा-रेखा को और नीचे ले जाना होगा अर्थात क्रीमी-लेयर निर्धारित करने वाली राशि को घटाना पड़ेगा। गरीब सवर्णों, मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों को आर्थिक आधार पर आरक्षण से बिन मांगी मुराद मिली है। उनके गरीब परिवारों में आशा की किरण जगी है। सरकार द्वारा सवर्णों और मुस्लिमों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर संभवत: उस वैमनस्यता को भी कम करने की कोशिश हुई है, जो हमारे समाज का एक अभिशप्त तत्व रहा है और जिसमें 1989 में ‘मंडल-बनाम-कमंडल’ के कारण और वृद्धि हुई थी। सच तो यह है कि आरक्षण हमारे देश में न तो नवयुवकों की रोजगार समस्या का समाधान है, न ही सामाजिक-न्याय लाने का ब्रह्मास्त्र लेकिन वोट-बैंक की राजनीति के चलते जनता को आरक्षण का लॉलीपॉप देना सभी पार्टियों को बहुत सुहाता है। 

डॉ एके वर्मा
(निदेशक, सेंटर फॉर द स्टडी फॉर सोसायटी एंड पॉलिटिक्स)

सही समाधान नही
में यह सोचना चाहिए कि देश के पिछड़े और वंचित वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए क्या आरक्षण ही सही तरीका बचा है। किसानों और युवाओं के स्थायी विकास की ओर ध्यान केंद्रित करने की बजाए इस तरह के अस्थाई तरीके निकाले जा रहे हैं। जरूरतमंदों को सक्षम बनाने की बात ही नहीं हो रही है। हमारे नीति निर्माताओं द्वारा कल्याणकारी योजनाओं का खाका बनाते समय जमीनी स्तर पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया और यही समस्या की मूल जड़ है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीके में बदलाव लाना होगा। समाज के वंचित वर्ग को सक्षम और आत्मनिर्भर बनाना होगा। सभी को समान शिक्षा प्रदान कीजिये। ऐसा होने पर किसी भी राजनीतिक दल को आरक्षण के झुनझुने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आरक्षण की धुन बजाने के बजाय सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।यह सही है कि लोगों की खुशी उनकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। यूएनडीपी के अनुसार भारत में 45 फीसद लोग वंचित श्रेणी में आते हैं। वे कुपोषित, अशिक्षित और अनियोजित हैं। नीति निर्माताओं को असमानता की खाई भरने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।



समावेशी विकास के लिए प्रधानमंत्री मोदी का लक्ष्य प्रशंसनीय है। लेकिन वे गलत रास्ते पर चल पड़े हैं। इन सबके बीच एक अहम बिंदु पर कोई बात नहीं कर रहा है। वह यह है कि इस आरक्षण से उन लोगों को परोक्ष रूप से नुकसान होगा जो आर्थिक रूप से ज्यादा कमजोर हैं। इस परिदृश्य में, समाज के तथाकथित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के अगड़े, ज्यादा गरीबों की तुलना में आरक्षण पर कब्जा करने की संभावना रखते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो यह फैसला देश के लिए दु:स्वप्न बन सकता है और उच्चकुशल नौकरियों को छोड़कर, सभी निम्न और मध्यम-कौशल नौकरियों पर आरक्षण हावी हो सकता है। आरक्षण ऐतिहासिक रूप से जाति  से जुड़ा हुआ है। आरक्षण उच्च जातियों को अन्य जातियों से अलग करता है। यह स्थिति खतरनाक है। आरक्षण नीति सरकारी नौकरियों, सरकार द्वारा सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के लिए एक विस्तृत कोटा प्रणाली है।

भारत में मजदूरी की समस्या है, नौकरियों की समस्या नहीं है। युवा उच्च शिक्षा पूरी कर चुके होते हैं, पर कौशल की कमी है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी काफी दोष हैं और इसे रोजगारपरक बनाने की जरूरत है। आरक्षण के दलदल से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका निजी क्षेत्र में अधिक और बेहतर नौकरियों के अवसर सृजित के लिए सक्षम वातावरण बनाना है। इन सबके बीच सरकार ने कौशल विकास की दिशा में सराहनीय कदम उठाया, लेकिन सही क्रियान्वयन न होने से हासिल किया गया कौशल स्थायी नहीं है। भारत में कृषि पर निर्भर किसानों की संख्या काफी अधिक है। देश के अन्नदाता खुद कुपोषित हैं। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान अब 15 फीसद से भी कम है, लेकिन चुनावी और राजनीतिक दृष्टि से यह लगभग 60 फीसद है। आर्थिक आरक्षण का यह फैसला केवल तात्कालिक उपाय है और स्थायी समाधान की ओर ध्यान नहीं दिया गया है।
डॉ विकास सिंह
(विशेषज्ञ, उद्यम एवं वित्तीय प्रबंधन)

बढ़ेगी गैर बराबरी
रक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। आरक्षण सदियों से शिक्षा, संस्कृति, समाज, संसाधन, स्वास्थ्य आदि से वंचित किए गए लोगों के राष्ट्र निर्माण के योगदान के लिए प्रतिनिधित्व का एक जरिया है। आरक्षण तो समाज एवं संस्कृति में ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत लोगों के लिए सामाजिक न्याय की व्यवस्था थी और है। आरक्षण से यह सुनिश्चित किया जाता है कि वर्तमान समय में जब अन्य पिछड़े वर्ग समाज के लोग मुख्य धारा कि संस्थाओं में शामिल होकर कार्य करेंगे तो उनके साथ भेदभाव नहीं होगा।

1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की तरफ से देश भर के कई अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया गया था। जो पहले संविधान के गठन के समय नहीं था। संविधान के गठन के समय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिया गया था। इन सभी समाज के लोगों को आरक्षण मिलने से यह अधिकार मिला है कि वह सवर्णों के समक्ष आ पाए लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार ने संसद के दोनों सदनों में गरीब सवर्ण वर्ग के लोगों को 10 फीसद आरक्षण देने का फैसला लेते हुए इसे पारित कर दिया है, सरकार को इसे लागू करने में सबसे बड़ी चुनौती होगी। क्या केंद्र सरकार के पास इसे लागू करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर है।

वहीं मेरा यह भी सवाल है कि न्यायपालिका, राजनीति, नौकरशाही, विश्वविद्यालयों, उद्योगों, नागरिक समाज -गैर सरकारी संगठन एवं मीडिया जैसे इन सभी सत्ता की सात संस्थाओं का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इनमें कितने एससी, एसटी एवं अन्य पिछड़ा वर्ग समाज के लोगों को अहम पदों पर प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला है। सवर्णों को आरक्षण देने से समाज में गैर बराबरी बढ़ेगी क्योंकि हम आरक्षण उन समाजों को दे रहे हैं जो पहले से ही शिक्षा, नौकरी में विद्यमान हैं, परंतु आर्थिक रूप से कमजोर हो गए हैं। सवर्ण समाज के गरीब लोगों का शिक्षा, राजनीति, नौकरियों जैसी सभी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व हमेशा से ही बना हुआ था और आज भी कायम है। सभी मर्ज की एक दवा नहीं हो सकती। सवर्णों के गरीब लोगों को आरक्षण देने का फैसला कहीं एक राजनीतिक स्टंट तो बनकर न रह जाएगा। इस फैसले से लोगों की महत्वकांक्षाएं बढ़ गई हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि सरकार इसे क्या लागू कर पाएग
विवेक कुमार
(अतिथि प्रोफेसर, कोलंबिया विश्वविद्यालय, अमेरिका)