तरुण गुप्त।बीते कुछ वर्षों से आम बजट को लेकर उत्साह में कमी आई है। 2020 में नागरिकता संशोधन अधिनियम पर हंगामे और पिछले साल कृषि कानून विरोधी कोलाहल ने बजट से कहीं ज्यादा ध्यान खींचा। अब कोरोना की तीसरी लहर और विधानसभा चुनावों को देखते हुए इस वर्ष भी बजट-पूर्व चर्चा पर्याप्त रुचि के अभाव से जूझ सकती है। इस बीच यह अवश्य स्मरण रहे कि लोकतंत्र में अन्य प्राथमिकताओं या राजनीतिक वर्ग की उपेक्षा के बावजूद नागरिक समाज द्वारा प्रासंगिक मुद्दों पर मंत्रणा अवश्य की जानी चाहिए। केंद्रीय बजट एक वित्तीय लेखाजोखा भर नहीं है। यह एक अवसर है कि केंद्र सरकार अपनी नीतिगत राह का खाका तैयार करे। भले ही विषय विशेषज्ञ इस प्रक्रिया की पेचीदगियों से बेहतर परिचित हों, फिर भी मीडिया के लिए यह उचित है कि वह इससे संबंधित तार्किक प्रश्न उठाए।

करों के मोर्चे पर साधना होगा संतुलन

बजट के दौरान अधिकांश निगाहें प्रत्यक्ष करों (डायरेक्ट टैक्स) की दरों से जुड़ी घोषणाओं पर टिकी होती हैं। हमें उम्मीद है कि अपेक्षित सुधार अपनी राह तलाश लेंगे। वहीं प्रत्यक्ष कर ढांचे में सुधार को सुनिश्चित करने वाली प्रत्यक्ष कर संहिता (डायरेक्ट टैक्स कोड) अभी तक प्रतीक्षारत है। 2019 में कारपोरेट कर की दरें घटाई गई थीं। निजी आयकर (पर्सनल टैक्स) के प्रति अब तक वैसी दरियादिली नहीं दिखाई गई। भारत में उच्चतम कर की दरों वाली श्रेणी बहुत ऊंची है। यह संभवत: विश्व में सर्वाधिक दरों में से एक है। कारपोरेट और निजी करों में अत्यधिक अंतर केवल कारोबारी और निजी व्यय की रेखा को ही धुंधला करता है। इससे करवंचन को बढ़ावा मिलता है। दूसरी ओर डिविडेंड टैक्स पहले तो डिस्ट्रिब्यूशन टैक्स के रूप में कंपनी स्तर पर लिया जाता है और फिर लाभार्थी से सीमांत दर (मार्जिनल रेट्स) पर भी टैक्स वसूला जाता है। यह एक स्तर पर ही टैक्स लगाने के सार्वभौमिक सिद्धांत से स्पष्ट विचलन है। इसके अतिरिक्त वेतनभोगी वर्ग अर्से से मानक कटौती (स्टैंडर्ड डिडक्शन) की सीमा में बढ़ोतरी की मांग करता आया है। वस्तुत: भारतीय मध्य वर्ग सरकार से उदारता की प्रतीक्षा कर रहा है।

निवेश का न बिगड़े गणित

भारत में मुद्रास्फीति विकसित देशों जितनी कम नहीं है। यहां उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अतिरिक्त परिसंपत्ति मुद्रास्फीति (असेट इनफ्लेशन) का भी एक पैमाना है। इसका सरोकार बांड्स, शेयरों, सोना और जमीन के मूल्यों में बढ़ोतरी से है। अमूमन अधिक संपन्न वर्ग ही इन परिसंपत्तियों में निवेश करता है। इसीलिए आय असमानता इसकी एक स्वाभाविक परिणति है। हाल के दौर में औसत मध्य वर्ग के लिए सुरक्षित एवं स्थायित्वपूर्ण निवेश के विकल्प सीमित हो चले हैं। चूंकि नियत आय प्रतिफल (फिक्स्ड इनकम रिटर्न्स) ऐतिहासिक रूप से निम्न स्तर पर है, इस कारण जोखिम की दृष्टि से संवेदनशील निवेशकों के लिए अपनी बचत को ऐसे क्षेत्रों में लगाने की चुनौती उत्पन्न हो गई है, जो कम से कम महंगाई की दर जितना ही रिटर्न दे सकें। अपर्याप्त समझ और जोखिम उठाने में अक्षम होने के बावजूद वे पूंजी बाजारों में निवेश करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

व्यापक भूमिका निभाए सरकार

सामान्यत: ब्याज दरों में गिरावट का परिदृश्य निवेश को प्रोत्साहित करता है। इसके बावजूद निजी क्षेत्र की सक्रियता बढ़ाने के लिए सरकार को वित्तीय सहयोग के पारंपरिक स्वरूप से परे जाकर कुछ उपाय तलाशने होंगे। भले ही विपक्ष आलोचना करे, लेकिन राज्य को प्राइवेट इक्विटी फाइनेंसर की भूमिका निभाने से हिचकना नहीं चाहिए। एक एंजल इनवेस्टर या वेंचर कैपिटलिस्ट के रूप में सरकार निजी क्षेत्र में दबावग्रस्त एïवं संभावनाशील संस्थानों को सहारा दे सकती है। इससे जहां संभावित व्यवसायों को ऋण मुक्त वित्त तक पहुंच मिलती है, वहीं एक निवेशक के रूप में लाभदायक उपक्रमों का चढ़ता मूल्यांकन राज्य के लिए हितकारी होता है। इस विचार को मूर्त रूप देने का समय आ गया है। जीएसटी के बाद केंद्र सरकार का दायरा मुख्य रूप से प्रत्यक्ष करों और आयात शुल्क तक ही सिमटकर रह गया है। एक सुविचारित व्यापार नीति अत्यंत आवश्यक है, जो वैश्विक जुड़ाव से समझौता किए बिना घरेलू उद्यमों को सहारा देकर संतुलन साध सके। विनिवेश राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। एयर इंडिया का निजीकरण उत्साह बढ़ाने वाला है, लेकिन यह अपर्याप्त है। ऐसे ठोस कदम उठाने ही होंगे, जो निजीकरण की मुहिम को आगे बढ़ाएं। इसके अतिरिक्त केंद्र और राज्य सरकारों के पास जमीन का सबसे बड़ा भंडार है। जिस अधिशेष अचल संपत्ति को कारोबारी भाषा में गैर-मूल संपत्ति (नान-कोर असेट्स) कहा जाता है, उसका मौद्रीकरण अत्यंत लाभकारी हो सकता है।

सुधार को मिले रफ्तार

सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि 2021 की दूसरी छमाही से आर्थिक मोर्चे पर गाड़ी ने जो रफ्तार पकड़ी, वह कोरोना के कारण पटरी से न उतर जाए। इस समय जीवन और आजीविका बचाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है। देश अवसंरचना, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था और न्यायपालिका में निवेश के लिए भी तरस रहा है। इन पहलुओं के उत्तर आसान नहीं हैं। हालांकि कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए। हमारा टैक्स-जीडीपी अनुपात अभी भी बहुत लचर स्थिति में है। इसकी मुख्य वजह लो बेस यानी निचला आधार होना है। आव्रजन (इमिग्रेशन) की शब्दावली में समझें तो हमारी दीवारें बहुत ऊंची और दरवाजे चौड़े होने चाहिए। करों की दरें कम, किंतु उनका दायरा विस्तृत होना उपयोगी होता है।

कोई समाज तभी नियमों का अधिक अनुपालन करता है जब वह इसे लेकर आश्वस्त हो जाए कि उससे संग्रहित धन विलासिता या अभिजात्य वर्ग की जीवनशैली को पोषित करने के बजाय राष्ट्र निर्माण में खर्च किया जाएगा। हम आशा करते हैं कार्यपालिका हालिया दबावों के बावजूद ढांचागत सुधारों को आगे बढ़ाने की दृढ़ता दिखाएगी। अवसंरचना, सुधारों, रोजगार सृजन, एमएसएमई और छोटे व्यापारियों के प्रति सरकारी प्रतिबद्धता निश्चित ही उसकी नीतियों में झलकनी चाहिए। धन की बचत धन का अर्जन है। समय आ गया है कि हम अनुत्पादक सब्सिडी पर पुनर्विचार और लोकलुभावनवाद के मोह का त्याग करें। बजट के माध्यम से कार्यपालिका देश की नियति को आकार देती है। ऐसे में सरकार को एक अनुकूल परिवेश उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।