राजीव शुक्ला। मैं इस बहस में पड़ना ही नहीं चाहता कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) सही हैं या गलत? असली बहस तो इस पर होनी चाहिए कि यदि राजनीति के एक बड़े तबके को इन मशीनों को लेकर संदेह है तो उसके निवारण के लिए चुनाव आयोग क्या कर रहा है? इस संदेह का निराकरण करना चुनाव आयोग का फर्ज बनता है। 

मैं चुनाव आयोग की इस दलील को समझ सकता हूं कि इतने बड़े देश में अचानक मशीनों से बैलेट पेपर पर जाना संभव नहीं है, लेकिन दूसरा भी तर्क उतना ही वजनदार है कि लगभग सभी विपक्षी दल वोटिंग मशीन का विरोध कर रहे हैं। उनका विश्वास वापस आए, इसके लिए चुनाव आयोग क्या कर रहा है? हाल में कोलकाता में विपक्षी दलों की महारैली में इन मशीनों को लेकर व्यापक चिंता व्यक्त की गई। कई वक्ताओं ने तो इसे चोर मशीन बताया। ऐसे में चुनाव आयोग को इसका हल निकालना चाहिए। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र के इतने बड़े चुनाव को शक के साये में कराना उचित नहीं होगा। मेरे लिहाज से इसका एक बहुत आसान-सा हल है, जिस पर चुनाव आयोग भी राजी हो सकता है और उससे सभी विपक्षी दल सहित आम लोग भी सहमत हो जाएंगे। सरकार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

दरअसल कुछ साल पहले जब इन मशीनों की शिकायत सुप्रीम कोर्ट के पास गई थी तो कोर्ट ने इसके समाधान के लिए एक बीच का फॉमरूला निकालते हुए यह आदेश दिया था कि मशीनों के साथ वीवीपैट की व्यवस्था की जाए। अर्थात वोट डालते ही उसमें से एक पर्ची निकलेगी जिसमें किस व्यक्ति ने किसे वोट दिया, यह पता चल जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश था कि इसे देशभर में सभी वोटिंग मशीनों पर लगाया जाए। 

पहले तो सरकार आना-काना करती रही कि इस पर 16 हजार करोड़ रुपये खर्च होगा और इतना पैसा कहां से आएगा, लेकिन जब कोर्ट ने सख्ती से निर्देश दिया तो सरकार को सभी ईवीएम में वीवीपैट अर्थात पर्ची निकलने का सिस्टम लगाना पड़ रहा है। एक विचित्र बात यह हो रही है कि पर्ची निकलने की व्यवस्था तो होगी, लेकिन इन पर्चियों की गणना नहीं की जाएगी। सवाल यह उठता है कि जब 16 हजार करोड़ रुपये खर्च कर यह व्यवस्था की जा रही है तो फिर उसका सही तरह उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है?

मतलब यह कि वीवीपैट से निकली पर्चियों की गणना पर रोक क्यों लगी है? यदि किसी उम्मीदवार को शक है तो वह उनकी गणना की मांग अधिकारियों से कर सकता है। और अधिकारी भी पर्चियों की गणना करके उसके शक को दूर कर सकते हैं, परंतु इस पर न तो सरकार सहमत हो रही है, न ही आयोग। वैसे भी विपक्ष पर्चियों की गणना हर चुनाव क्षेत्र में करने की मांग नहीं कर रहा है, बल्कि वह तो कह रहा है कि जहां शिकायत हो वहां यह करानी चाहिए। इस पर सरकार और आयोग का राजी न होना शक को और बढ़ा रहा है। 

इस बीच कुछ विपक्षी नेताओं ने यह भी तर्क दिया है कि यदि आप समूची पर्चियों की गणना नहीं करवा सकते तो कम से कम 25 से 30 प्रतिशत पर्चियों की अनिवार्य गणना करने की व्यवस्था कीजिए, लेकिन इस पर भी दोनों सहमत नहीं हैं। मेरे लिहाज से सुप्रीम कोर्ट को ऐसे सख्त निर्देश चुनाव आयोग को देने चाहिए कि 30 प्रतिशत पर्चियों की गणना की व्यवस्था की जाए। मैं तो कहता हूं कि लोकसभा चुनाव को पाक-साफ बनाने के लिए चुनाव आयोग को ही अपने स्तर पर यह निर्णय कर देना चाहिए।

इससे विपक्षी दलों का शक भी दूर हो जाएगा और फिर वोटिंग मशीन पर कोई नुक्ताचीनी भी नहीं कर पाएगा। कोलकाता की रैली में विपक्षी दलों ने वोटिंग मशीन की लड़ाई लड़ने के लिए एक कमेटी भी बनाई है। इसके पहले कि यह लड़ाई शुरू हो, चुनाव आयोग को अपना फैसला सुना देना चाहिए।

वैसे विश्व में अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा आदि जितने भी बड़े देश हैं वे सभी बैलेट पेपर से चुनाव करवाते हैं। इन देशों में जहां-जहां वोटिंग मशीनें थीं वहां-वहां से उन्हें हटा दिया गया है, क्योंकि कुछ लोगों को उन पर शक था। अमेरिका में कुछ प्रांतों में मशीन से और अधिकतर प्रांतों में बैलेट पेपर से ही चुनाव होता है। वहां ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि टेक्नोलॉजी के युग में लोग कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर में जैसी चाहें वैसी गड़बड़ी कर लेते हैं। 

इजरायल सहित दुनिया के कई देशों में ऐसे विशेषज्ञ बैठे हैं जो किसी का भी कंप्यूटर हैक करके मनचाहा काम कर लेते हैं। ऐसे उदाहरण रोज देखने को मिल रहे हैं। भारत में भी विपक्षी दलों को आशंका है कि इन विशेषज्ञों के माध्यम से मौजूदा केंद्र सरकार मशीनों में कुछ गड़बड़ियां करा सकती है। कई चुनावों में कई उम्मीदवारों ने यहां तक शिकायत की कि जिस बूथ पर उन्होंने खुद और उनके परिवार ने वोट दिए वे वोट मशीन में नहीं निकले। यदि ऐसा है तो यह मामला और भी गंभीर है।

लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है। कभी कोई पार्टी सत्ता में आती है तो कभी कोई, लेकिन चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को हमेशा निष्पक्ष रहना चाहिए। उसे चाहे भाजपा या कांग्रेस, किसी की भी सरकार हो, चुनाव निष्पक्ष कराना चाहिए ताकि जनता की असली भावना चुनाव के माध्यम से निकल कर आ सके। जब बूथ लूट लेने की शिकायतें बहुत आने लगी थीं तो तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने हर बूथ पर केंद्रीय पुलिस फोर्स लगाकर ऐसी व्यवस्था की कि बूथ लूटने बंद हो गए। इसके लिए हमेशा शेषन को याद किया जाता है। 

मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा की छवि एक सख्त और समस्याओं का निराकरण करने वाले अधिकारी की रही है। उन्होंने पूर्व में कई बार अपने विभाग के मंत्री की बात भी नहीं सुनने के उदाहरण पेश किए हैं। उनके पास अब एक ऐसा ही मौका आया है जब वह अपना नाम इतिहास में दर्ज करा सकते हैं। सुनील अरोड़ा यदि कम से कम 30 प्रतिशत वीवीपैट से निकलने वाली पर्चियों की गणना का आदेश देते हैं तो लोकतंत्र के इतने बड़े चुनाव को साफ-सुथरा कराने के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।

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(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)