नई दिल्ली, अभिनव प्रकाश। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के सर्वे अनुसार भारत में हर तीसरा बच्चा कुपोषित है। देश में 35.7 प्रतिशत बच्चे कम-वजनी हैं, 38.4 प्रतिशत अविकसित हैं और हर दूसरा बच्चा खून की कमी से ग्रस्त है। 15 से 49 वर्ष की आयु की 53 प्रतिशत महिलाएं रक्त अल्पता से पीड़ित हैं। ये आंकड़े भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की भयावह स्थिति को रेखांकित करते हैं।

मां का कुपोषण स्वत: ही बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। ये आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि वर्तमान नीतियां कुपोषण के दुष्चक्र को तोड़ने में सफल नहीं हो पा रही हैं। दरअसल, कुपोषण के खिलाफ वर्तमान प्रयास विभिन्न सरकारी योजनाओं पर निर्भर हैं, जिनमें मध्यांतर आहार योजना यानी मिड डे मील और एकीकृत बाल विकास सेवाएं यानी आइसीडीएस मुख्य हैं, लेकिन हकीकत यह है कि गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए बनी आइसीडीएस की हालत पर आज कहीं अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि कुपोषण आजीवन असर दिखाता है। देखा जाए तो आइसीडीएस के केंद्र में आंगनबाड़ी केंद्र हैं, लेकिन आंगनबाड़ी केंद्र आज भी वांछित नतीजे देने में असफल प्रतीत हो रहे हैं। इसका कारण दोषपूर्ण नीति निर्धारण और भ्रष्टाचार है जिससे लाभार्थी को सही सुविधा नहीं मिल पाती है।

नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में आइसीडीएस की कमियों को उजागर किया है जैसे कि बजट को अन्य मदों में खर्च करना, वेतन के भुगतान के लिए अवास्तविक बजट, व्यय का गलत विवरण, खब रिकॉर्ड रखरखाव इत्यादि प्रमुख हैं। इसी प्रकार आइसीडीएस के प्रभाव अध्ययन और बच्चों के पोषण की स्थिति पर कार्यक्रम मूल्यांकन रिपोर्ट 2015 के अनुसार, 22.5 प्रतिशत आंगनबाड़ी केंद्रों में निर्धारित दवाई नहीं हैं, 41 प्रतिशत में जगह का अभाव है और केवल 48.2 प्रतिशत में सफाई और स्वास्थ्य का उचित ध्यान रखा जाता है। यह स्थिति आइसीडीएस को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बनाने के लिए उसके पुनर्गठन की तत्काल आवश्यकता की ओर इंगित करती है।

वर्तमान में आइसीडीएस के पास कई लक्ष्य हैं जैसे बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना, बच्चों के उचित मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की नींव रखने के लिए विभिन्न नीतियों के कार्यान्वयन में प्रभावी समन्वय को स्थापित करना, बच्चों के स्कूल छोड़ने के सिलसिले को थामना। मां को सामान्य स्वास्थ्य और पोषण संबंधी जरूरतों को सही तरीके से पूरा करने के लिए प्रशिक्षित करना भी इसके कार्यों में शामिल है। इसके लिए आइसीडीएस आंगनबाड़ी केंद्र पूरक पोषण, प्री-स्कूल गैर-औपचारिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच-पड़ताल और रेफरल सेवाएं प्रदान करता है। यह स्पष्ट है कि हम एक ही नीति से बहुत से उद्देश्यों को लक्षित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसके चलते किसी भी उद्देश्य में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है। इसका सबसे अधिक प्रभाव पीड़ित गर्भवती और स्तनपान करने वाली माताओं पर पड़ता है। इससे सेवा वितरण मॉडल के प्रभावी होने पर गंभीर प्रश्न उठता है?

इसीलिए नीति आयोग की ‘भारत ष्ट्रीय पोषण रणनीति’ ने आइसीडीएस में सुधार की वकालत की है। इस रणनीति में आंगनबाड़ी केंद्रों पर पोषण उपलब्ध करने के बजाय महिलाओं को सीधे बैंक खातों में रुपये देने की बात कही गई है। उज्ज्वला रसोई गैस सिलेंडर और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण मॉडल की सफलता के बाद इसे आइसीडीएस में लागू करना एक बड़ा कदम होगा। कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी और परिवार की आय में कमी होना है जबकि आइसीडीएस घरेलू खाद्य सुरक्षा को संबोधित नहीं करता। इसलिए किसी भी समग्र समाधान में आय की भरपाई करने का दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए। इसके लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण यानी डीबीटी सबसे अच्छा उपलब्ध विकल्प है। दूसरा कारण, घर में महिलाओं की सामाजिक स्थिति कमजोर होना है। ऐसे में उन्हीं के जन-धन खाते में सरकार की तरफ से सीधा पैसा आने से उनकी स्थिति मजबूत होगी और उन्हें अपने और बच्चे के पोषण और स्वास्थ्य के लिए फैसला लेने में आजादी होगी। घर और समाज में मां की स्थिति मजबूत होने से आने वाली पीढ़ी के पोषण, स्वास्थ्य, और शिक्षा पर अपने-आप ही सकात्मक प्रभाव पड़ता है। तीसरा कारण, महिलाओं को आंगनबाड़ी केंद्रों में मिलने वाले आहार पर निर्भर रहना पड़ता है जो कई बार उनके स्वाद के अनुकूल नहीं होने के साथ-साथ हर इलाके में एक समान होता है। डीबीटी से महिलाओं को अपना आहार चुनने की आजादी मिलेगी और वे स्थानीय भौगोलिक, जलवायु और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपना आहार और पोषण चुन सकेंगी।

इसका सीधा असर उनके स्वस्थ पर पड़ेगा। अभी आंगनबाड़ी केंद्रों पर सरकारी प्वधान के तहत स्थानीय जरूरतों का ध्यान नहीं रखा जाता है। डीबीटी आंगनबाड़ी केंद्रों में आहार देने में होने वाले जातिगत भेदभाव के समाधान में भी सहायक होगा। शोध के मुताबिक, आइसीडीएस में व्याप्त जातिगत भेदभाव दलित और अन्य पिछड़ी जाति के बच्चों के कुपोषण में कम सुधार के लिए जिम्मेदार है। डीबीटी बांग्लादेश, दक्षिण अमेरिकी देशों में अपनी सार्थकता सिद्ध कर चुका है। वर्तमान में भारत में पुद्दुचेरी में गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कने वाली माताओं के लिए कुलविलाक्कु एवं अरवनिपु योजना, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना और जननी सुरक्षा योजना में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण का सकात्मक परिणाम सामने है।

प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के विरुद्ध पहले जो दलीलें दी जाती थीं वे आज खरी नहीं उतरतीं। आज भारत में 77 प्रतिशत महिलाओं के पास बैंक खाते हैं। राजस्थान जैसे प्रांत में जहां आइसीडीएस का कवरेज मात्र 34 प्रतिशत है, प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण तत्काल ही आहार और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के विरुद्ध अन्य तर्क दरअसल नीति निर्माण और कार्यान्वयन से संबंधित हैं, जो आज आधार, डिजिटल टेक्नोलॉजी इत्यादि के माध्यम से आसानी से हल किए जा सकते हैं। यहां पर यह कहना भी आवश्यक है कि पोषण के लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण को अमल में लाने का मतलब आइसीडीएस या आंगनबाड़ी केंद्रों को खत्म करना नहीं है, परंतु उन पर व्यर्थ का बोझ कम करना है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं कि आइसीडीएस का फलक काफी व्यापक है और उनके लिए आंगनबाड़ी केंद्रों की आवश्यकता रहेगी ही, लेकिन जन-स्वास्थ्य और मां-बच्चे के सुपोषण के लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण का निष्पक्ष पायलट परीक्षण किया जाना चाहिए। सामाजिक क्षेत्र में नीति और सेवा वितरण को दक्ष बनाने के लिए हमें आधुनिक तकनीक का लाभ उठाना ही होगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)