[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: एक खबर के अनुसार भारत सरकार कक्षा 12 तक शिक्षा के अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट) को लागू करने पर विचार कर रही है। इस पर शीघ्र निर्णय लेने के पक्ष में कई कारण हैं। पहला तो यही है कि कक्षा आठ तक की शिक्षा के सार्वजनीकरण का जो महत्व 1950 में था वह अब उतना सार्थक नहीं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत सतत विकास लक्ष्य-चार के अंतर्गत सभी बच्चों को 2030 तक नि:शुल्क, समकक्ष और अनिवार्य प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध कराने पर सभी देश सहमत हैं।

शिक्षा में अग्रणी अनेक राष्ट्र अब सभी बच्चों को कक्षा 12 की शिक्षा देने के लक्ष्य तक पहुंच चुके हैं या पहुंचने की तैयारी कर रहे हैं। इसके अलावा भारत में एक अन्य समस्या भी उभरी है, जिसका सीधा संबंध आरटीई एक्ट से है। इसके शैक्षणिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। एक अप्रैल, 2010 को बड़े तामझाम के साथ लागू किए गए शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 12(10) (सी) में 25 प्रतिशत सीटें पिछड़े और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित रखे गए हैं। यह नियम केवल सरकारी स्कूलों पर ही नहीं, बल्कि निजी स्कूलों पर भी लागू किया गया। अल्पसंख्यक स्कूलों को इससे छूट मिली। निजी स्कूलों ने इससे निजात पाने के लिए सभी प्रकार के उपाय किए। वे न्यायालय भी गए। अभी भी उनमें से अनेक अपने-अपने ढंग से इसे कमजोर करने में लगे हुए हैं।

बहरहाल आरटीई एक्ट के 25 प्रतिशत वाले प्रावधान के अनुसार वर्ष 2010 में कक्षा एक में भर्ती हुए बच्चे अब कक्षा आठ उत्तीर्ण कर रहे होंगे। यह स्वाभाविक ही है कि वे बच्चे कक्षा नौ में भी उसी स्कूल में पढ़ना चाहेंगे, मगर क्या यह संभव हो पाएगा? बीते दिनों दिल्ली के एक बड़े स्कूल की एक खबर प्रकाशित हुई थी, जिसके तहत उस स्कूल ने ऐसे बच्चों से स्पष्ट कह दिया है कि वे कक्षा नौ से पूरी फीस दें या अपना अलग प्रबंध कर लें। तकनीकी रूप में अधिनियम इस संबंध में कुछ नहीं कहता है कि इन बच्चों का कक्षा आठ के बाद क्या होगा? उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या वे सरकारी स्कूलों में जाने को बाध्य होंगे और क्या उन्हें वहां प्रवेश मिल जाएगा? स्कूल से हटाए/निकाले जाने के बाद इन बच्चों पर जो मानसिक और सांस्कृतिक तनाव आएगा, उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? क्या सरकार, समाज और शिक्षा व्यवस्था इन बच्चों को मंझधार में छोड़ सकती हैं। यदि इसका समाधान शीघ्र ही नहीं निकाला गया तो 25 प्रतिशत की व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।

कमजोर वर्ग के बच्चे और उनके माता-पिता निजी स्कूलों की फीस देने में सक्षम नहीं होंगे और इस प्रकार या तो वे स्कूल छोड़ देंगे या फिर सरकारी स्कूलों में जाकर अत्यंत क्षीण मनोबल के साथ पढे़ंगे। सभी जानते हैं कि सरकारी और निजी स्कूलों में बंटी स्कूल शिक्षा समाज में एक नए प्रकार का वर्गभेद पैदा कर चुकी है। यह वर्ष-प्रतिवर्ष बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान व्यवस्था में इसे कम किए जाने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। वर्तमान स्थिति में वंचित वर्ग के बच्चों को आरटीई एक्ट के प्रावधान और सुविधाएं हर हालत में कक्षा 12 तक मिलने ही चाहिए। यही नहीं, इन्हें यह आश्वासन भी अभी से मिलना चाहिए कि इनमें से जो उच्च शिक्षा के लिए योग्य पाए जाएंगे उन्हें भी सरकार निराश नहीं करेगी और उनकी शिक्षा निर्बाध जारी रहेगी। इस समय आरटीई एक्ट में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए अध्यादेश लाकर वंचित वर्ग के इन बच्चों को इस संबंध में आश्वस्त किया जा सकता है।

पिछले एक दशक से स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ की वार्षिक रिपोर्ट पर शिक्षा के क्षेत्र में चर्चा होती रही है। इसकी रिपोर्ट की एक साख बन गई है, जो सराहनीय है। यह मीडिया द्वारा सामान्य व्यक्ति तक पहुंचती है और शिक्षा की वर्तमान स्थिति की गंभीरता पर हर स्तर पर लोगों को आगाह कर देती है। यदि सरकारी स्कूलों में कक्षा आठ के 56 प्रतिशत बच्चे सामान्य गुणा-भाग तक नहीं कर पाते तो उनके लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम या संविधान-प्रदत्त अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।

देश की युवा शक्ति और बौद्धिक क्षमता के इतने क्षय की क्या कोई भी देश अनदेखी कर सकता है? इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि 2008 में कक्षा आठ के 84.8 प्रतिशत छात्र कक्षा दो की पुस्तक पढ़ सकते थे, लेकिन अब दस वर्ष बाद यह प्रतिशत केवल 72.8 है। जाहिर है सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता लगातार नीचे ही जा रही है। ऐसे अनेक तथ्य प्रतिवर्ष किसी न किसी सर्वेक्षण और अध्ययन में उभरते रहते हैं। हालांकि सरकारी स्कूलों के स्तर में सुधार की घोषणाएं लगातार होती रहती हैैं, मगर लोगों को जमीन पर कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा। अनेक राज्य सरकारों ने सरकारी स्कूलों में अपनी असफलता को छिपाने के लिए ‘स्कूल मर्जर’ के नाम पर हजारों स्कूल बंद कर दिए, क्योंकि इन स्कूलों में नामांकन लगातार कम हो रहे थे। इस ‘स्कूल मर्जर’ का प्रभाव प्राथमिक शिक्षा विशेषकर बालिका शिक्षा पर सकारात्मक तो नहीं ही पड़ेगा।

आज तक देश में किसी भी सरकार ने बच्चों के स्कूल तक आने-जाने की नि:शुल्क व्यवस्था की आवश्यकता नहीं समझी। सभी को एक-दो किमी की परिधि के अंदर कक्षा आठ तक स्कूल उपलब्ध कराने की बात लगातार कही जाती थी, लेकिन अब इसकी चर्चा भी बंद हो गई है। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन ऐसे हैं जिन पर पूर्वाग्रह से हटकर सार्थक बौद्धिक चर्चा नहीं हो पाती। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश अधिकांश समय चुनावी राजनीति की उठा-पटक में ही व्यस्त रहता है। जब 25 प्रतिशत स्थान स्कूलों में कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित किए गए थे तभी यह क्यों नहीं सोचा गया कि उनका कक्षा आठ के बाद क्या होगा? उन्हें स्कूल निकाल देंगे तब वे किसी भी सभ्य समाज में कैसे स्वीकृत हो सकेंगे? क्या वे बच्चे उच्च शिक्षा में जाने के अधिकारी नहीं होंगे?

वास्तव में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयास अधूरे ही रहेंगे यदि कक्षा आठ के पहले की शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती ही जाएगी। यह सामान्य समझ है, जो दुर्भाग्य से नीति निर्धारकों के विश्लेषण में स्थान नहीं पाती। समस्या जमीन से जुड़ाव की कमी की ही है। यदि यह कमी दूर कर ली जाए तो स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले भी आवश्यक कौशल पा सकेंगे, आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो जाएंगे।

( लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैैं )