[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: पिछले कुछ अर्से से रिजर्व बैंक ने कई बार ब्याज दरों में कटौती की ताकि उद्यमी ऋण लेकर निवेश करें, परंतु इसका अपेक्षित प्रभाव नही पड़ा। वहीं राजकोषीय मोर्चे की बात करें तो राजग सरकार ने पिछले कई वर्षों से लगातार वित्तीय घाटे पर काबू पाने में सफलता पाई है। 2014 में जो वित्तीय घाटा देश के जीडीपी का 4.1 प्रतिशत था वह अब 3.4 प्रतिशत है। आशा थी कि इस वित्तीय अनुशासन से निवेशक आकर्षित होकर निवेश करेंगे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और फिक्की जैसी संस्थाओं ने भी इस पर सरकार की पीठ थपथपाई। उन्हें भी आस थी कि निवेश बढ़ेगा, मगर बीते छह वर्षों का अनुभव बताता है कि निवेश गिरता जा रहा है।

सुधार के लिए अर्थव्यवस्था को सर्जरी की जरूरत है, बैंडएड की नहीं

गत वर्ष कॉरपोरेट टैक्स में यह सोचकर कटौती की गई थी कि इससे कंपनियों के हाथ में अधिक रकम आएगी और वे उसका निवेश करेंगी, परंतु उन्होंने भी ऐसा नहीं किया। ऐसी स्थिति में मांग उठ रही है कि टैक्स विवादों को निपटाकर और काले धन को सफेद बनाने का आकर्षण देकर सरकार राजस्व जुटा सकती है। निश्चित रूप से ऐसा संभव है, लेकिन यह भी अर्थव्यवस्था का स्थायी हल नहीं है। यह किसी बैंडएड सरीखा है, जबकि सुधार के लिए अर्थव्यवस्था को सर्जरी की जरूरत है।

नया वर्ष और मुश्किलें बढ़ा सकता है, वित्तीय घाटे पर दबाव है, टैक्स कटौती बेअसर है

नया वर्ष और मुश्किलें बढ़ा सकता है। अमेरिका-ईरान के बीच बढ़े तनाव से तेल के दाम चढ़ सकते हैं। वहीं अमेरिका और चीन के बीच फिर ट्रेड वॉर छिड़ सकता है। तब हमारे निर्यात प्रभावित होंगे। विश्व स्तर पर पर्यावरण संकट बढ़ रहा है। धरती का बढ़ता तापमान अपने देश में भी आपदाओं के रूप में असर दिखा रहा है। भारत में एक बड़ी आबादी रोजगार के लिए तैयार है। पर्याप्त रोजगार न उपलब्ध होने पर लोग नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए जैसे मुद्दों पर उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। इसीलिए अर्थव्यवस्था को जल्द पटरी पर लाना बेहद जरूरी है, लेकिन सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। रिजर्व बैंक असहाय है। वित्तीय घाटे पर भी दबाव है। टैक्स कटौती भी बेअसर है।

मूल समस्या- उद्यमी के हाथ में रकम है, परंतु आम आदमी के हाथ में क्रय शक्ति नहीं है

मूल समस्या यह है कि उद्यमी के हाथ में रकम है, परंतु आम आदमी के हाथ में क्रय शक्ति न होने से बाजार में मांग के अभाव में उद्यमी निवेश नहीं कर रहे हैं। मांग बढ़ाने का एक उपाय है कि सरकार वित्तीय घाटे पर नियंत्रण का मोह त्यागकर अपना पूंजीगत खर्च बढ़ाए। उसमें परेशानी यह है कि बुनियादी ढांचे से जुड़ी कुछ परियोजनाएं फायदेमंद हैं तो कुछ नुकसानदेह भी हैं। इस बीच देखना यही होगा कि निवेश का आम आदमी पर क्या असर पड़ता है।

हाईवे को संवारने के साथ ही गांव की सड़कों को सुधारा जाए तो आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ेगी

मान लीजिए सरकार ने हाईवे पर खर्च बढ़ाया और हाईवे के किनारे तार खिंचवा दिए, गांव के लोगों को हाईवे पर प्रवेश करने पर रोक लगा दी। इससे गांव के सामान को शहर पहुंचाना मुश्किल हो गया जबकि बड़ी कंपनियों के लिए माल की ढुलाई आसान हो गई। ऐसा निवेश हानिप्रद हो जाता है। आम आदमी की क्रय शक्ति घटती है। इसकी तुलना में यदि गांव की सड़क को सुधारा जाए तो वह भी बुनियादी संरचना में निवेश है, लेकिन आम आदमी पर उसका प्रभाव सकारात्मक होता है। वह अपने सामान को शहर तक आसानी से पहुंचा सकता है।

जलमार्ग से ढुलाई में बचत तो है, किंतु मछुआरों का धंधा चौपट होगा, आदमी की क्रय शक्ति घटेगी

दूसरा उदाहरण राष्ट्रीय जल मार्ग का है। जल मार्ग के माध्यम से सरकार नदी पर बड़े बार्ज चलाना चाहती है। हल्दिया से वाराणसी तक कोयला इत्यादि की ढुलाई में इससे बचत हो सकती है, लेकिन इस निवेश से छोटे नाविकों और मछुआरों का धंधा चौपट होता है। आम आदमी की क्रय शक्ति घटती है। बार्ज से ढुलाई किए गए सामान को खरीदने के लिए बाजार में मांग नहीं रहती है। इसकी तुलना में यदि हम छोटी नावों के माध्यम से लोगों का यातायात बढ़ाएं तो वह भी बुनियादी संरचना में निवेश है, लेकिन आम आदमी की क्रयशक्ति पर उसका प्रभाव सकारात्मक होगा।

जंगल काटकर हाईवे बनाकर ढुलाई का खर्च घटेगा, आदमी को पत्ते, लकड़ी न मिलने से आय घटेगी

इसी प्रकार यदि हम जंगल काटकर हाईवे बनाते हैं तो ढुलाई का खर्च घटता है और बड़ी कंपनियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान की आवाजाही में आसानी होती है, लेकिन उसी जंगल के कटने से आम आदमी को पत्ते, लकड़ी आदि मिलना बंद हो जाता है जिससे उसकी आय कम होती है। फिलहाल बाजार में मांग इसलिए नहीं है, क्योंकि हम बड़े हाईवे, जल मार्ग और जंगलों के कटान जैसे उस बुनियादी ढांचे में निवेश कर रहे हैं जिससे आम आदमी की आय घट रही है। इस प्रकार विषय केवल बुनियादी संरचना में निवेश का ही नहीं, बल्कि इस बात का है कि निवेश कहां किया जाए? सरकार यदि वित्तीय घाटे की चिंता छोड़कर आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ाने वाले बुनियादी ढांचे में निवेश करे तो अर्थव्यवस्था को गति मिल सकती है।

निवेश के लिए बंदोबस्त करने में सरकार को अपनी खपत पर नियंत्रण करना चाहिए

निवेश के लिए बंदोबस्त करने में सरकार को अपनी खपत पर नियंत्रण करना चाहिए। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में निजी खपत में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में हुई 14.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी से कम है। वहीं सरकारी खपत में वृद्धि 16 प्रतिशत के पुराने स्तर पर कायम है। यानी सरकारी खपत सामान्य रफ्तार से चल रही है जबकि निजी खपत उतार पर है। सरकारी निवेश बढ़ने से मांग और निवेश का सुचक्र स्थापित हो सकता है जो कि सरकारी खपत से नहीं होता। जैसे गांव की सड़क बनाने में सीमेंट-स्टील आदि की मांग बढ़ती ही है। साथ ही साथ यह निवेश मोबिल आयल का काम करता है और गांव का काम-धंधा चल पड़ता है। इसके उलट सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने से कार इत्यादि वस्तुओं की मांग बढ़ती है, लेकिन इससे उतना व्यापक लाभ नहीं होता। इससे आम आदमी के काम-धंधे को बढ़ाने में मदद नही मिलती।

मंदी को तोड़ने के लिए कर्मियों के वेतन-भत्ते फ्रीज हों, इस रकम से जनउपयोगी योजनाएं बनें

मौजूदा मंदी को तोड़ने के लिए सरकार को अपने कर्मियों के वेतन-भत्ते फ्रीज करने चाहिए जिससे सरकारी खर्च पर दबाव कम हो। इससे बची रकम को सरकार आम आदमी के हित से जुड़ी योजनाओं में निवेश करे।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और तमाम लाभप्रद इकाइयों के निजीकरण पर भी विचार करना चाहिए

सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और तमाम लाभप्रद इकाइयों के निजीकरण पर भी विचार करना चाहिए। इन बैंकों में पूंजी निवेश के बजाय उनमें हिस्सेदारी बिक्री से जुटाई रकम को सरकार बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश कर सकती है। इसके अलावा सरकार को नई तकनीक के सृजन एवं प्रसार जैसे ऑनलाइन शिक्षा इत्यादि पर तेजी से निवेश करना चाहिए जिससे हमारे युवा इन उभरते हुए सेवा क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त कर सकें। ऐसा न होने पर वे अराजकता की ओर उन्मुख होंगे जिससे देश की अर्थव्यवस्था को और संकट में डालेंगे। मूल बात यह है कि सरकार को आम आदमी की आय बढ़ाने पर विचार करना चाहिए।

( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )