[ राजीव सचान ]: आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण देने के मोदी सरकार के फैसले को एक राजनीतिक फैसला बताना उतना ही सही है जितना यह कहना कि इसका मकसद चुनावी लाभ लेना है, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल हो वह जनहित के फैसले लेते समय यह अवश्य देखता है कि उससे उसे कोई राजनीतिक और चुनावी लाभ मिलेगा या नहीं? इसी कारण एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम बना। इसी वजह से मंडल आयोग की रपट लागू हुई और अन्य पिछड़ा वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला। इसी प्रकार मनरेगा कानून भी राजनीतिक हित साधने के लिए आया और खाद्य सुरक्षा कानून भी। कुल मिलाकर किसी भी राजनीतिक दल या फिर सरकार से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह जनहित का फैसला लेते समय अपने हित की चिंता न करे।

मोदी सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करके केवल एक सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ही काम नहीं किया है, बल्कि आरक्षण की राजनीति को भी एक नया मोड़ दिया है। इस फैसले के बाद आरक्षण मांगने के बहाने सड़कों पर उतरकर राजनीति करने की प्रवृत्ति पर एक हद तक लगाम लग सकती है।

हालांकि हार्दिक पटेल जैसे जो नेता आर्थिक आधार पर आरक्षण मांग रहे थे वे आज यह पूछ रहे हैं कि आखिर यह होगा कैसे? जिन्हें ऐसे सवाल पूछने में परेशानी हो रही है वे यह कह रहे हैं कि आखिर मोदी सरकार इसे अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में क्यों लाई? ऐसे सवाल उठाने में हर्ज नहीं, लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि 2014 में आम चुनाव की अधिसूचना जारी होने के ठीक पहले मनमोहन सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग के दायरे में लाने का फैसला किया था, जो सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। इसी तरह इसी सरकार ने 2011 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी जो आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन थी और इसी कारण उस पर रोक लगा दी गई थी। यह भी स्मरण रखना बेहतर होगा कि खाद्य सुरक्षा और शिक्षा अधिकार कानून भी आनन-फानन और बिना पूरी तैयारी के आए थे। इसी कारण उन पर प्रभावी ढंग से अमल नहीं हो सका।

कहना कठिन है कि दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण के फैसले को अमली जामा पहनाया जा सकेगा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य है कि मोदी सरकार के इस फैसले ने देश के राजनीतिक विमर्श को एक झटके में बदलने का काम किया है। मोदी सरकार को इसकी सख्त जरूरत थी। पिछले कुछ समय और खासकर कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद से मोदी सरकार के प्रति शिकायत और निराशा भरे विमर्श को बल मिलता दिख रहा था। राहुल गांधी की ओर से राफेल सौदे को संदिग्ध बताए जाने के बाद से मोदी सरकार रक्षात्मक मुद्रा में दिखने लगी थी। आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले ने यकायक राजनीतिक विमर्श के तेवर और स्वर बदल दिए हैं।

आर्थिक आधार पर आरक्षण केवल अनारक्षित वर्गों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को राहत देने वाला ही नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को बल देने वाला भी है। यदि यह फैसला अमल में आता है तो इससे एक लाभ यह भी होगा कि आरक्षण को हेय दृष्टि से देखने वालों की मानसिकता बदलेगी। स्पष्ट है कि यह फैसला राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक विमर्श में भी एक बड़ा बदलाव लाने वाला है। अब इस सोच को बल मिलेगा कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगों के साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए भी कुछ करने की जरूरत है। यह सोच अगड़े-पिछड़े की खाई को पाटने का काम कर सकती है।

दरअसल इसीलिए कई विपक्षी दलों को यह समझना मुश्किल हो रहा है कि वे मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध करें तो कैसे? उनके सामने मुश्किल इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि अतीत में वे स्वयं आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी और मांग करते रहे हैं। विपक्षी दलों की इसी मुश्किल के कारण इसके आसार हैं कि आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण के फैसले संबंधी विधेयक पर संसद की मुहर लग जाएगी, लेकिन यह कहना कठिन है कि यह विधेयक कानून का रूप लेने के बाद होने वाली न्यायिक समीक्षा में खरा उतर पाएगा या नहीं? इस बारे में तमाम किंतु-परंतु इसलिए हैं, क्योंकि इसके पहले आर्थिक आधार पर आरक्षण के तमाम फैसले उच्चतर न्यायपालिका की ओर से खारिज हो चुके हैं।

दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण की एक बड़ी बाधा यह बताई जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे रखी है कि आरक्षण किसी भी सूरत में 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के बावजूद तथ्य यह है कि कई राज्यों में आरक्षण सीमा 60 प्रतिशत से भी अधिक पहुंच चुकी है और वहां लोग आरक्षण का लाभ भी उठा रहे हैैं। हालांकि आर्थिक आरक्षण संबंधी कानून बनने में अभी देर है, लेकिन यह अंदेशा अभी से जताया जा रहा है कि ऐसे किसी कानून के संदर्भ में न्यायपालिका की ओर से यह कहा जा सकता है कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है। पता नहीं इस अंदेशे का आधार कितना पुख्ता है, लेकिन किसी को यह बताना चाहिए कि संविधान का मूल ढांचा क्या है?

संविधान निर्माताओं ने कभी यह व्याख्यायित नहीं किया कि संविधान के कौन से अनुच्छेद मूल ढांचे को बयान करते हैैं। खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने किसी फैसले में यह स्पष्ट नहीं किया कि संविधान का मूल ढांचा है क्या? संविधान के मूल ढांचे की व्याख्या इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को संविधान के मूल ढांचे के विपरीत बताकर उसे खारिज तो कर दिया था, लेकिन जजों की नियुक्ति की वह कोलेजियम व्यवस्था बनाए रखी जो संविधान में है ही नहीं।

आर्थिक आरक्षण के भावी कानून में कुछ कमजोरियां हो सकती हैैं जिन्हें भविष्य में दूर किया जा सकता है, लेकिन आरक्षण को आर्थिक आधार प्रदान करने की यह पहल वह विचार है जिसे अमल में लाने का समय आ गया है। इसी के साथ यह भी समझना होगा कि संविधान लोगों के लिए होता है, लोग उसके लिए नहीं होते। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय संविधान के तहत भारत के लोग ही सर्वोच्च हैैं।

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]