[ हृदयनारायण दीक्षित ]: आहत मन से शिव सौंदर्य नहीं उगता। पृथ्वी ग्रह का ताप बढ़ा है। भूमंडलीय उत्ताप यानी ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी कराह रही है। उनके अंगभूत जल, वायु और आकाश अराजक विकास दृष्टि से घायल हैं। वनस्पति, कीट-पतंगे और मनुष्य सहित सभी प्राणी भूमंडलीय उत्ताप की चपेट में हैं। जैव विविधता विलुप्त प्राय है। आज पृथ्वी दिवस है, लेकिन पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं। धरती कांप रही है। भूकंप और सुनामी की तबाही है। दुनिया के कई हिस्सों में असमय बर्फबारी कहर बरपा रही है। भारत में अतिवृष्टि और सूखे जैसी आपदाएं हैं। मौसम विभाग के पूर्वानुमान में इस साल मानसून उत्साहवर्धक नहीं है। सूखे की आशंका है।

ब्रह्मांड विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों पर मानवीय बस्तियां बसाने की संभावनाएं तलाश रहे थे, लेकिन अपनी पृथ्वी का ही जीवन वेंटिलेटर पर है। भारत में इस संकट की चर्चा कुछेक बुद्धिजीवियों तक सीमित है, लेकिन बेल्जियम, जर्मनी और स्वीडन में हजारों अल्पवयी छात्राओं ने जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाए हैं। नीदरलैंड में बड़ा विरोध हुआ है। ब्रसेल्स में एक लाख से ज्यादा लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर आंदोलनरत हैं। बेल्जियम में आंदोलन के केंद्र में 17 वर्षीय छात्रा अनूना वीवर हैं। आंदोलन यूरोप से अमेरिका की ओर जाने की तैयारी में है। क्या भारत इससे प्रेरित हो सकता है?

प्रकृति अराजक नहीं है। इसका प्रत्येक अणु परमाणु सुसंगत व्यवस्था में है। वायु को ही लीजिए। यह अधिक वायु दबाव वाले क्षेत्रों से कम वायु दबाव वाले क्षेत्रों में बहती है। पानी हमेशा नीचे की ओर बहता है। अस्तित्व अपने हरेक अंग का सदुपयोग करता है। प्राकृतिक संतुलन बना रहता है, लेकिन हम मनुष्य प्रकृति के साथ लयबद्ध नहीं होते। प्रकृति की शक्तियों का दोहन करते हैं। पर्यावरण विरोधी औद्योगिक विकास की आत्मघाती दौड़ है। कार्बन उत्सर्जन से ओजोन परत भी आहत है। विकासशील देश अपने पिछड़ेपन के बहाने कार्बन उत्सर्जन रोकने से इन्कार करते हैं।

विकसित देश अपने आश्वासन भी पूरे नहीं करते। अमेरिका इसका उदाहरण है। प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव गरीब देशों व कमजोर वर्गो पर पड़ता है। 2014 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में ‘प्राकृतिक आपदाओं व भू उत्ताप का महिलाओं पर बड़ा प्रभाव बताया गया है।’ जलवायु परिवर्तन पर काम कर रही संस्था ‘जीरो आवर’ की संस्थापक 17 वर्षीय मार्गोलिन ने ठीक कहा है कि ‘हम पीड़ित हैं इसीलिए आंदोलित हैं। इन आंदोलनों का उद्देश्य जनजागरूकता बढ़ाना है।’

पृथ्वी के दो तिहाई भाग में समुद्र हैं। जलवायु परिवर्तन से समुद्र भी गर्म हो रहे हैं। हाल में सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फाउर ने हिंद महासागर के 400 फीट नीचे से भूमंडलीय उत्ताप पर विश्व का ध्यानाकर्षण किया है। उन्होंने अपने भाषण में समुद्र को पृथ्वी का ‘स्पंदित नीला हृदय’ बताया और कहा कि इसकी सुरक्षा बहुत जरूरी है। ऑक्सीजन की 50 प्रतिशत आपूर्ति यहीं से होती है। समुद्रों पर भू-उत्ताप व जलवायु परिवर्तन का गहरा प्रभाव होता है। समुद्री तूफानों का एक कारण भी यही है। जलवायु की सुसंगति में समुद्र की महत्वपूर्ण भूमिका है।

भू भारत के प्राचीन चिंतन में जल और समुद्र नमस्कारों के योग्य बताए गए हैं। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने ईसा से 600 वर्ष पूर्व सृष्टि का उद्भव जल से बताया था। चाल्र्स डार्विन ने भी सृष्टि उद्भव का केंद्र जल बताया है। ऋग्वेद में जल माताएं सृष्टि की जननी हैं। वेदों में जल को दूषित करने वाले के लिए कड़ी सजा का उल्लेख है।

जलवायु को लेकर सजगता की कमी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार अफ्रीका के 61 प्रतिशत लोग ही जलवायु परिवर्तन पर गंभीर हैं। यूरोप के 54 प्रतिशत लोग इसे मानवीय गलती मानते हैं, लेकिन एशिया प्रशांत के देश बेहद अगंभीर हैं। पश्चिम एशियाई देशों में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव ज्यादा हैं बावजूद इसके सिर्फ 38 प्रतिशत लोग ही इसे लेकर चिंतित हैं। 38 प्रतिशत इजरायली इसे बड़ी समस्या मानते हैं। कनाडा के 51 प्रतिशत, फ्रांस के 56 प्रतिशत, चीन के 49 प्रतिशत, यूके के 41 प्रतिशत, पाकिस्तान के 29 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका के 45 प्रतिशत लोगों के लिए यह गंभीर समस्या है। आंकड़े 2015 के हैं। 2019 में कुछ बढ़ोतरी संभव है, लेकिन समूचे विश्व के आंकड़े उत्साहवर्धक नहीं हैं।

वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने सतत विकास-समेकित टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्य तय किए थे। जलवायु परिवर्तन की समस्या भी महत्वपूर्ण लक्ष्य थी। भारत सहित 193 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। 2030 तक सारे लक्ष्य पूरे करने हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन की समस्या जस की तस है। इसका मूल कारण औद्योगिक विकास की पर्यावरण विरोधी दृष्टि है।

पृथ्वी संकट पर पेरिस में वर्ष 2000 में अर्थ चार्टर कमीशन में प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों का तीन दिवसीय सम्मेलन हुआ था। उसमें गंभीर चर्चा हुई थी, लेकिन परिणाम शून्य रहा। 2005 में पृथ्वी संकट पर संयुक्त राष्ट्र का ‘सहस्नाब्दि पर्यावरण आकलन’ आया था। 95 देशों के 1360 विद्वानों ने इसे तैयार किया था। इस आकलन में दुनिया की नदियों में पानी घटने की चिंता थी। जैव विविधता पर संकट बताया गया था, लेकिन विकास की ‘पर्यावरण मित्र’ धारणा का विचार भी नहीं बढ़ा। पृथ्वी संकट की भारतीय धारणा तुलसीदास के रामचरित मानस में भी है।

मानस के अनुसार ‘पृथ्वी मानवीय उत्पात से व्याकुल हुई-परम सभीत धरा अकुलानी। वह देवों के पास गई-निज संताप सुनाएसि रोई। देवता ब्रह्मा के पास गए। शिव ने पार्वती को बताया कि उस शिष्टमंडल में वह भी थे-तेहि समाज गिरिजा मै रहेऊ। ब्रह्मा ने कहा ‘पृथ्वी धीरज रखो। आकाशवाणी हुई कि मैं आऊंगा। पृथ्वी का दुख दूर करूंगा। कथा के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का अवतार हुआ। पृथ्वी फिर से संकट में है। उसे बचाने का समय हाथ से निकल रहा है।

भूमंडलीय उत्ताप व जलवायु परिवर्तन का संकट जीवन शैली का परिणाम है। नदियों में औद्योगिक कचरा गिराया जाता है। प्लास्टिक और पॉलिथीन का प्रयोग पर्यावरण का शत्रु है। धुआं उगलने वाले उपकरण पर्यावरण में विष घोलते हैं। भारी खनन से पृथ्वी के मर्म स्थल क्षतिग्रस्त हैं। ऐसे ही विषयों तक सरकार की सीमा है। सरकारें जीवनशैली नहीं बदल सकतीं। इलेक्ट्रॉनिक कचरा भयावह है।

वैदिक काल में पृथ्वी माता है और आकाश पिता। अथर्ववेद में पृथ्वी माता है और हम सब पुत्र-माता भूमि: पुत्रोअहम पृथ्व्यिा। सुयोग्य संतति माता-पिता को आहत नहीं कर सकती। दिन-रात ऑक्सीजन देने वाला पीपल ‘देवसदन’ है। वनस्पतियां देवता हैं। ऐसी संस्कृति और दर्शन के उत्तराधिकारी हम भारत के लोग वायु, जल प्रदूषण निशाने पर हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की वायु भी प्रदूषित है। पर्यावरण प्रदूषण से भारत का मन अशांत है।

यजुर्वेद की शांति प्रार्थना ध्यान देने योग्य है ‘पृथ्वी शांत हों, आकाश शांत हों। जल शांत हों। वनस्पतियां शांत हों। सर्वत्र शांति हो।’ इस स्तुति में आदर्श पर्यावरण के ही सूत्र हैं। लेकिन आज पृथ्वी, गगन, समीर, जल, जंगल सब अशांत हैं। पक्षियों, तितलियों और जलजीवों की तमाम प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। पृथ्वी परिवार को बचाने की चुनौती है। भारत ही पृथ्वी ग्रह को बचाने की लोकजागरण मुहिम का नेतृत्व कर सकता है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )