[ गिरीश्वर मिश्र ]: हम बचपन से यह कहावत सुनते आ रहे हैं-मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका मतलब है कि यदि मन प्रसन्न हो तो अपने पास जो भी थोड़ा होता है, वही पर्याप्त होता है, पर आज की परिस्थितियों में हमारा मन चंगा नहीं हो पा रहा है और स्वास्थ्य तथा खुशहाली की जगह रोग-व्याधि के चलते लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त होता जा रहा है। लोग निजी जीवन में भी असंतुष्ट रह रहे हैं। संस्था तथा समुदाय के लिए भी उनका योगदान कमतर होता जा रहा है। समाज के स्तर पर जीवन की गुणवत्ता घट रही है और हिंसा, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म, अपराध और सामाजिक भेदभाव जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। चिंता की बात यह है कि इन घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता भी घट रही है। इस तरह के बदलाव का एक बड़ा कारण हमारी विश्व दृष्टि भी है। हम एक नए ढंग का भौतिक आत्मबोध विकसित कर रहे हैं, जो सब कुछ तात्कालिक प्रत्यक्ष तक सीमित रखता है। कभी हम सभी पूरी सृष्टि को ईश्वर के करीब पाते थे और सबके बीच निकटता देखते थे।

अतृप्ति की वेदना से सभी आहत: भौतिक सुख के साधन जुटाने में लगा मनुष्य

आदमी सबके जीवन में अपना जीवन और अपने जीवन में सबका जीवन देखता था। वह जल, थल, वनस्पति, वायु, अग्नि और अंतरिक्ष सबकी शांति की कामना करता था। मनुष्य भी एक जीव था। इस नजरिये में सारा जीवन केंद्र में था, न कि सिर्फ मनुष्य। मनुष्य की मनुष्यता उसके अपने आत्मबोध के विस्तार में थी और वह सबकी चिंता करता था। उसका धर्म अभ्युदय (भौतिक समृद्धि) और नि:श्रेयस (आध्यात्मिक श्रेष्ठता या मोक्ष) दोनों को पाने की चेष्टा करता था। आदमी सिर्फ धन-दौलत ही नहीं, बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों लक्ष्यों की उपलब्धि के लिए सचेष्ट रहता था, लेकिन आधुनिक चेतना ने धर्ममुक्त समाज की कल्पना की और मनुष्य की बुद्धि को चैतन्य के भाव से मुक्त कर दिया तथा सबको भौतिक सुख के साधन जुटाने में लगा दिया, जिसके नशे में सभी दौड़ रहे हैं, पर दौड़ पूरी नहीं हो रही है और अतृप्ति की वेदना से सभी आहत हैं। इस मिथ्या मरीचिका के असहनीय होने पर लोग आत्महत्या तक करने को उद्यत होने लगे हैं।

अपने और पराये, मैं और तुम तथा हम और वे के बीच की खाई बढ़ती जा रही

जीवन का गणित अब विज्ञान के ईश्वरविहीन होते दौर में लड़खड़ाने लगा है। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। अपने और पराये, मैं और तुम तथा हम और वे के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। अपने ‘मैं’ को लेकर हम सब सचेष्ट हैं तथा उसकी सुरक्षा और सेवा-टहल के लिए समर्पित हैं। ‘मैं’ से अलग जो अन्य या दूसरा है, वह हमारे लिए वस्तु हो गया है। हम उपयोगिता के हिसाब से उसकी कीमत लगाते हैं और उससे होने वाले नफे-नुकसान के आधार पर व्यवहार करते हैं। अपने आत्म को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए दूसरे के शोषण या हानि को स्वाभाविक ठहराते जा रहे हैं। सभी अपने-अपने ‘मैं’ अर्थात स्वार्थ के लिए कटिबद्ध हो रहे हैं। ऐसे में शांति, आनंद, सुख, मस्ती, प्रसन्नता, खुशी, उल्लास और आह्लाद जैसे शब्द अब लोगों की आम बातचीत से बाहर हो रहे हैं। इस तरह के अनुभव जीवन से जहां दूर होते जा रहे हैं, वहीं उनकी जगह चिंता, उलझन, दुख, तनाव, परेशानी, कुंठा, संत्रास, अवसाद, घुटन, कलह और द्वंद्व जैसी अनुभूतियां लेती जा रही हैं और जीवन भार सरीखा होता जा रहा है।

शरीर का रख-रखाव एक जरूरी और पेचीदा काम हो गया

आज शरीर को उपभोग की वस्तु बनाकर उसे हमारी चेतना का एक खास हिस्सा बना दिया गया है। शरीर का रख-रखाव और प्रस्तुति आज एक जरूरी और पेचीदा काम हो गया है। नैसर्गिक सौंदर्य के परे नख से शिख तक पूरे शरीर को संवारने-सजाने के उपकरण, उपचार और वस्त्राभूषण की नित्य नवीन शैलियों की जानकारी का प्रचार-प्रसार इस तेजी से हो रहा है कि उसमें नवीनता को बनाए रखना एक जटिल चुनौती बनती जा रही है। इससे जुड़ा बाजार नित्य नई वस्तुओं को प्रस्तुत कर सबमें अभावग्रस्तता और कमी की अनुभूति को तीखा करने में जुटा रहता है।

अनावश्यक आवश्यकताओं की सूची दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही 

हमारी अतिरिक्त या अनावश्यक आवश्यकताओं की सूची दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। उनकी पूर्ति में श्रम, धन और समय का बड़ा अनुपात जाया होता है, जिसके कारण जीवन के और कार्यों की उपेक्षा होती है या फिर उनमें व्यवधान आता है। इन उपादानों के प्रयोग से उपजने वाली स्वास्थ्य की समस्याएं दूसरी तरह के व्यतिक्रम पैदा करती रहती हैं। यही कारण है कि तीव्र सामाजिक बदलाव के दौर में आज मनोरोगियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। कोविड महामारी के दौरान आर्थिक संकट और विस्थापन जैसी मुश्किलों ने मानसिक रोग की चुनौतियों को और बढ़ाया है।

हम अपनी राह खुद बनाएं और अपनी अलग पहचान बनाएं

मानसिक स्वास्थ्य की समस्या की जड़ में सामाजिक तुलना भी एक प्रमुख कारक बन रहा है। दूसरों को देखकर हम अपने सुख-दुख और लाभ-हानि को समझने की कोशिश करते हैं। इसका दुष्परिणाम होता है कि हम अपने में न केवल लगातार कमी और हीनता की अनुभूति करते हैं, बल्कि दूसरों के प्रति दुराव और वैमनस्य का भाव भी विकसित करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति सबसे अलग और खास होता है। दूसरे की तरह होना और प्रतिस्पर्धा करने से अधिक उपयोगी है कि हम अपनी राह खुद बनाएं और अपनी अलग पहचान बनाएं।

शरीर का उपयोग न होने से मोटापा, मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियां पनपने लगीं

स्वास्थ्य के लिए मन, शरीर और आत्मा सबकी खुराक मिलनी चाहिए। शरीर का उपयोग न होना और श्रम हीनता आज इज्जत का पर्याय सा बन गया है, जिसके कारण मोटापा, मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियां पनपने लगी हैं। इन सबके पीछे हमारे द्वारा आवश्यकता और लोभ के बीच अंतर न कर पाना एक बड़ा कारण है। संयम और संतुष्टि का अभ्यास ही इसका एक मात्र समाधान है। मन की चंचलता से विचलित होना तो स्वाभाविक है, परंतु उसे साधकर अपने नियंत्रण में लाना एक जरूरी चुनौती है, जिसे सचेत होकर स्वीकार करना पड़ेगा। इस दृष्टि से योग और ध्यान को जीवन में स्थान देना होगा।

( लेखक दर्शनशास्त्री एवं पूर्व कुलपति हैं )