डॉक्‍टर संजय वर्मा। विज्ञान की नजर से देखें तो नशे की लत एक बीमारी है, जिसमें व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहता। इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि ऐसे हालात में वह क्या कर गुजरे। फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद बीते तीन महीनों में हुई जांच-पड़ताल और कहीं भले नहीं पहुंची हो, लेकिन जिस एक निष्कर्ष की तरफ वह तेजी से झुकी है, वह बॉलीवुड में नशे के बढ़ते साम्राज्य का साफ संकेत देती है। हालांकि इसका एक विरोधाभास यह है कि जब फिल्मों की विषय-वस्तु के बारे में हम यह दावा करते हैं कि वह असल में समाज से प्रेरित होती है और सामाजिक वास्तविकताओं को ही दर्शाती है। ऐसे में, जबकि आज पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशे में लिप्त बताया जा रहा है, तब कोई उस समाज की ओर क्यों नहीं झांक रहा, जहां नशे की समस्या शायद सबसे गंभीर दौर में है।

जहां तक आम समाज में युवाओं के नशे की गिरफ्त में आने का सवाल है, तो आम तौर पर इसके लिए देश के एक समृद्ध राज्य पंजाब को कठघरे में खड़ा किया जाता है। संभव है कि इसके पीछे वहां पिछले दशकों में नशे के कारोबारियों को चोरी-छिपे मिले राजनीतिक संरक्षण और उड़ता पंजाब जैसे फिल्मी कनेक्शन की भी एक बड़ी भूमिका हो। लेकिन पंजाब से बाहर निकलकर देखें तो पता चलता है कि देश के कुछ दूसरे राज्य भी नशे की भयानक चपेट में हैं। इस नशे का संदर्भ शराब आदि प्रचलित साजोसामान से नहीं, बल्कि गांजा, हेरोइन, अफीम, चरस और रसायनों की जटिल प्रक्रियाओं से बने कई तीखे मिश्रणों से है, जिनका प्रचलन युवाओं में तेजी से बढ़ा है। खास तौर से शहरी-महानगरीय संस्कृति के विस्तार के साथ नशे के सेवन ने युवाओं में जो एक सामाजिक स्वीकृति हासिल की है, वह अमीरों से लेकर मध्यवर्गीय और गरीब तबकों में भी जोर पकड़ चुकी है।

इस संबंध में पिछले साल पंजाब के फरीदकोट के एक युवा की कहानी एक नजीर के रूप में सामने आती है। सोशल मीडिया पर वायरल हुए फरीदकोट के इस वीडियो में एक महिला कूड़े के ढेर में पड़े अपने बेटे के शव के पास विलाप करती दिखाई दे रही थी। वीडियो में यह भी दिख रहा था कि उस लड़के के हाथ की नसों में नशे की सिरिंज लगी हुई थी। वीडियो से यह पूरी तरह से स्पष्ट पता चल रहा था कि वह लड़का नशे का आदी था और शायद ड्रग्स की ओवरडोज की वजह से उसकी मौत हो गई।

उसी दौरान सोशल मीडिया पर प्रचारित हुए अमृतसर के एक अन्य वीडियो में एक व्यक्ति अपने बेटे की मौत का शोक मनाता दिख रहा था। बताया गया कि उसका बेटा भी नशे की गिरफ्त में था। इसमें शक नहीं कि बीते अरसे में युवा पीढ़ी को गिरफ्त में लेने वाले नशे को लेकर जो बदनामी पंजाब ने झेली है, उसका मुकाबला देश का कोई राज्य फिलहाल नहीं कर सका है। लेकिन देश के अन्य हिस्सों के अलावा राजधानी दिल्ली और एनसीआर कहलाने वाले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भी पिछले वर्षो के दौरान ड्रग्स का कारोबार बहुत तेजी से फूला-फला है। हालत यह है कि बीते वर्षो में दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र नशीले पदार्थो की तस्करी का अड्डा बन गया है।

हाल के वर्षो में इस पूरे क्षेत्र में कभी यमुना किनारे खुलेआम, तो कभी गुपचुप होने वाली रेव पार्टयिों में प्रतिबंधित ड्रग्स के इस्तेमाल के बारे में दावा है कि यह करीब दस गुना तक बढ़ गया है। इनमें प्रतिबंधित ड्रग्स मसलन डायजेपाम, मंड्रेक्स, एफेटेमिन, मॉíफन, केटामाइन, मेथमफेटामाइन, एमडीएमए, पेंटाजोकिन, और कॉडिन जैसे ड्रग्स शामिल हैं और इनकी देश के विभिन्न राज्यों ही नहीं, बल्कि विदेशों तक सप्लाई की जा रही है।

नशे के नए गढ़ : दिल्ली जैसे महानगरों में ड्रग्स के बढ़ते चलन का अंदाजा यहां अक्सर होने वाली मादक पदार्थो की बड़ी खेपों की धरपकड़ और ड्रग्स तस्करी के रैकेटों के भंडाफोड़ से होता है। पिछले साल म्यांमार से मणिपुर और असम व बिहार के रास्ते दिल्ली तक लाई गई 25 किलो हेरोइन की खेप के पकड़े जाने से एक बड़े रैकेट का खुलासा हुआ था। पुलिस ने तब यह दावा किया था कि हेरोइन की इस खेप को दिल्ली एनसीआर के विभिन्न हिस्सों के अलावा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सप्लाई किया जाना था।

एक दावा यह भी है कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पिछले दो-तीन वर्षो में 10 बड़े अभियान चलाकर लगभग 2,500 करोड़ रुपये की हेरोइन बरामद की है और इनमें कभी नाइजीरियाई तो कभी अफगानी नागरिकों तक को गिरफ्तार किया गया है। बीते चार-पांच वर्षो में यहां ड्रग्स तस्करों की आवक और गिरफ्तारियां भी बढ़ी हैं। पुलिस बताती है कि दिल्ली (जो ड्रग्स सप्लाई का गढ़ बन गया है) में नशीले पदार्थो की सबसे ज्यादा आवक अफगानिस्तान से और उसके बाद नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के रास्ते होती है। दिल्ली एनसीआर में खपाए जाने के बाद इन ड्रग्स की सप्लाई दिल्ली के रास्ते यूरोप, ब्रिटेन और लैटिन अमेरिकी देशों तक की जाती रही है। राजधानी दिल्ली के कई इलाकों में अफ्रीकी मूल के लोग बड़ी संख्या में इस कारोबार में लिप्त हैं। बीते तीन-चार वर्षो में इन लोगों के पास से बड़ी संख्या में ड्रग्स बरामद हुए हैं।

यह भी उल्लेखनीय है कि ड्रग्स तस्करी पर काबू पाने वाली सरकारी एजेंसियां और दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल नशीले पदार्थो की धरपकड़ के साथ साथ इनमें लगे विदेशी नागरिकों को हिरासत में लेती रही है, लेकिन देखने में आया है कि तमाम सख्तियों के बावजूद नशे का कारोबार और साम्राज्य पहले से कई गुना ज्यादा बड़ा हो गया है। यह खुद पुलिस और हमारी सुरक्षा एजेंसियों को देखना होगा कि आखिर क्यों बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार और नेपाल से होने वाली मादक द्रव्यों की सप्लाई रुक नहीं रही है और यहां नशे के कारोबारियों का नेटवर्क खत्म होने का नाम क्यों नहीं ले रहा है।

इलाज को भी इलाज चाहिए : यहां एक बड़ा सवाल नशा छुड़ाने वाली तकनीकों और इलाज की पद्धतियों का भी है। हमारी सरकार की मौजूदा नीति ड्रग एडिक्शन से निपटने के लिए सिंगल कोर्स ट्रीटमेंट देने की है, जिसमें नशे के शिकार शख्स को चार से छह हफ्ते तक वैकल्पिक दवाओं से ट्रीटमेंट दिया जाता है। संयुक्त राष्ट्र नशे के इलाज की इस पद्धति को मान्यता तो देता है, लेकिन मौजूदा संसाधनों में आज के घोषित नशेड़ियों का इलाज शुरू किया जाए, तो उन सभी का इलाज करने में दस से बीस साल लग जाएंगे।

संदेह नहीं कि नशे के आदी युवाओं को उनके परिजन इलाज दिलाना चाहते हैं, लेकिन अक्सर उन्हें संबंधित चिकित्सा पद्धतियों और इलाज के केंद्र का पता ही नहीं होता। ऊपर से सरकार का ज्यादा ध्यान सिर्फ पुनर्वास और सुधार केंद्रों पर टिका है, जिससे समस्या का संपूर्ण निराकरण संभव नहीं है। ध्यान रहे कि नशा सिर्फ एक खास इलाके तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि नशे के कारोबारी धीरे-धीरे आसपास के इलाकों में भी अपना जाल फैला लेते हैं। जैसे नशे की समस्या आज पंजाब तक सीमित नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा भी इसकी चपेट में है। इतना ही नहीं, दिल्ली के स्कूल-कॉलेजों के सामने भी बच्चों को नशे से दूर रखना चुनौती बन गया है।

नशे की समस्या से जुड़ी चुनौतियों का दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह समस्या केवल फिल्म इंडस्ट्री तक ही सीमित नहीं है। यह असल में एक सामाजिक समस्या भी है जो परंपरागत पारिवारिक ढांचों के बिखराव, स्वच्छंद जीवनशैली, सामाजिक अलगाव आदि के हावी होने और नैतिक मूल्यों के पतन के साथ और बढ़ती जा रही है। सरकार और समाज, दोनों को इस समस्या से निपटने के लिए सजिर्कल स्ट्राइक जैसी कार्रवाई करने की आवश्यकता है। वैसे यह समझ अब तक पैदा हो ही जानी चाहिए थी।

विज्ञान में इसके कुछ ठोस जवाब मिलते हैं कि कोई व्यक्ति (खासकर युवा) आखिर कैसे नशे की गिरफ्त में आ जाता है और सोचने की अपनी सारी ताकत खोकर अक्सर ऐसे अंजाम की ओर बढ़ जाता है, जहां से उसे वापस लाना मुश्किल होता है। रसायन शास्त्र की परिभाषाओं के मुताबिक ज्यादातर नशीली दवाएं यानी ड्रग्स हमारे दिमाग के उस हिस्से पर असर डालती हैं, जिससे शरीर को अच्छा महसूस कराने वाले केमिकल डोपामाइन का प्रभाव बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में एक बार ड्रग्स लेने वाले व्यक्ति को उसका दिमाग बार-बार उसी नशे की ओर धकेलता है।

कई बार, जब व्यक्ति कई दिनों तक ड्रग्स का सेवन करता है तो उसे ऐसा करने से रोकने की दिमाग की क्षमता कम हो जाती है। दिमाग की ओर से प्रतिक्रिया थमने की सूरत में इंसान खुशनुमा अहसास पाने के लिए बार-बार ड्रग्स लेने लगता है। विज्ञान के नजरिये से यह स्थिति असल में व्यक्ति की ड्रग्स के प्रति बढ़ी हुई सहनशीलता है, जिसमें व्यक्ति का लगाव खुशी देने वाले जिंदगी के अन्य पहलुओं (जैसे प्रेम आदि) से घट जाता है और ड्रग्स की कृत्रिम प्रसन्नता की ओर बढ़ जाता है। यदि युवा लंबे समय तक ड्रग्स का सेवन करते हैं, तो इससे दिमाग का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स स्थायी रूप से प्रभावित होता है।

उल्लेखनीय है कि प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स ही एक व्यक्ति में सीखने की प्रवृत्ति, फैसले लेने, तनाव, स्मृति और सामान्य व्यवहारों के प्रति सहजता व सजगता का निर्धारण करता है। ऐसे में प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स पर ड्रग्स के हावी होने का अर्थ है, इन सभी कार्यो के संचालन में स्थायी गड़बड़ी पैदा हो जाना। ये मादक पदार्थ व्यक्ति की मनोदशा और सामाजिक व्यवहारों पर इतना गहरा असर डालते हैं कि इनकी कमी होने पर या ये पदार्थ नहीं मिलने की स्थिति में लोग इसके लिए चोरी करने, झगड़ा या मारपीट करने से गुरेज नहीं करते। कई बार ये खुद को इतना लाचार दर्शाते हैं कि परिजन तरस खाकर इन्हें खुद नशे की सूक्ष्म मात्र देकर इनकी छटपटाहट कम करने का प्रयास करते हैं।

कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि कुछ लोग मनोवांछित ड्रग्स नहीं मिलने पर भीषण बेचैनी का अनुभव करते हैं, क्योंकि उनका शरीर और दिमाग, दोनों इसकी मांग कर रहे होते हैं। ऐसी ही बेचैनी और छटपटाहट अक्सर लोगों को आत्महत्या की ओर ले जाती है। ऐसा नहीं है कि नशे की लत को छुड़ाना नामुमकिन हो। परंतु इसके लिए परिवार-समाज से सहयोग, सही व निरंतर इलाज और खुद उस व्यक्ति की इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। वैसे तो इसका सटीक इलाज यही है कि मादक पदार्थो तक लोगों की पहुंच ही न हो, लेकिन कोई व्यक्ति इसकी चपेट में आ ही गया है तो जरूरी है कि उसकी खराब आदतों के लिए कोसने की बजाय उसके मर्ज के निदान को अहमियत दी जाए।

(असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा)