लोकमित्र। जम्मू कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट पिछले एक सप्ताह के दौरान पांच बार हवा में उड़ता ड्रोन दिखा। बीएसएफ की ओर से ड्रोन पर फायरिंग करने के बाद वह वापस चला गया। इससे यह पता चलता है कि 27 जून को जम्मू एयरबेस में जो दो ड्रोन के जरिये विस्फोट हुए थे, वे किसी गहरी साजिश का हिस्सा हैं। अगर यह शरारत स्थानीय कट्टरपंथियों की होती तो वह लगातार ऐसा दुस्साहस करने की कोशिश नहीं करते, जैसा देखने को मिला है। हालांकि इस ड्रोन हमले को समझने के लिए किसी बहुत जासूसी माइंड सेट की जरूरत नहीं है। जिस तरह से आतंकी संगठन और पाकिस्तान जम्मू कश्मीर में लगातार बढ़ती राजनीतिक स्थिरता से बेचैन हैं, उससे सोचा जा सकता है कि वे इस बेचैनी को दोतरफा तनाव में बदलने के लिए क्या नहीं कर सकते?

हम सब जानते हैं कि आतंकवाद के मामले में हमारा देश मध्यपूर्व के देशों से कम पीड़ित नहीं है। सीरिया, इराक, लीबिया और लेबनान में हाल के वर्षो में ज्यादातर आतंकी घटनाएं ड्रोन के इस्तेमाल के जरिये ही अंजाम दी गई हैं। सवाल है कि हम कर क्या रहे हैं? पिछले लगभग एक सप्ताह से बार-बार ड्रोन आते हैं, कुछ नहीं तो अपनी मौजूदगी दिखाकर वहां के परिवेश में एक मनोवैज्ञानिक सनसनी पैदा करते हैं और भाग जाते हैं। भले ही ये कोई नुकसान न पहुंचा पाते हों, लेकिन बार बार अपनी मौजूदगी से जिस तरह आम जनता से लेकर सुरक्षाबलों तक में एक मनोवैज्ञानिक भय पैदा कर रहे हैं, ऐसा भय पैदा करना दुश्मन की कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगी। दुश्मन की चाहे जो भी मंशा हो, लेकिन हैरानी इस बात की है कि सेना के बारे में कहा जाता है कि वह हर पल सीखती है तो क्या उसने इन ड्रोन से निपटने का कोई उपाय नहीं सीखा? निश्चित रूप से सेना के पास इसके उपाय होंगे। लेकिन तमाम सैन्य प्रतिक्रियाएं चूंकि राजनीतिक और नौकरशाही के माध्यम से नियंत्रित होती हैं, इसलिए सेना त्वरित जवाब शायद नहीं दे पा रही। वरना 30-35 किमी की रफ्तार से उड़ने वाले ऐसे ड्रोंस को मार गिराने में क्या मुश्किल है?

वर्ष 2016 के बाद से ही आतंकी ड्रोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे इसके जरिये हथियार और विस्फोटक की डिलीवरी भी करते रहे हैं। लेकिन भारतीय सेना और पुलिस ने ऐसी घटनाओं से निपटने का अब तक शायद कोई मजबूत ब्लू प्रिंट नहीं बनाया है और अगर बनाया भी है तो उसे अमल में नहीं लाया गया है। ऐसे में समय आ गया है कि हम आंतकियों की ऐसी हरकतों का इतना करारा जवाब दें ताकि वे पलटकर वार करने का हौसला ही खो दें। लेकिन जिस तरह से हम ड्रोन हमले या ड्रोन साजिश को लेकर ढीला ढाला रवैया अपनाए हुए हैं, उससे तात्कालिक रूप से तो सेना और सुरक्षा एजेंसियों की किरकिरी हो ही रही है, स्थानीय लोगों में यह सोच भी मजबूत होती जा रही है कि चरमपंथी सेना और पुलिस से मुकाबला कर सकते हैं या कि सेना की इतनी विपुल मौजूदगी के बीच भी वे आतंकवादी जब चाहे आम लोगों को टारगेट बना सकते हैं।

ये नैरेटिव हमारी वास्तविक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के लिए खतरनाक हैं। इसलिए जितनी जल्दी हो सुरक्षा एजेंसियों को ड्रोन जैसे हमलों से न सिर्फ कड़ाई से, बल्कि इन्हें नेस्तनाबूद करने के अंदाज में निपटना चाहिए। एक बार देश के दिलोदिमाग में यह बात बैठ गई कि सामने आए बिना भी रिमोंट कंट्रोल के जरिये आतंकी सुरक्षा एजेंसियों को चकमा दे सकते हैं तो यह लड़ाई कहीं ज्यादा खतरनाक हो जाएगी। लब्बोलुआब यह कि सेना को आतंकवादियों को इतना मौका नहीं देना चाहिए कि वह मुकाबले का मुगालता पाल लें। इसलिए जितना जल्दी हो इस लुकाछिपी के खेल को खत्म किया जाना चाहिए। (ईआरसी)

[वरिष्ठ पत्रकार]