नई दिल्ली, परिचय दास। दीपावली जितना भीतरी सुरुचि का उत्सव है उतना ही बाहरी सुरुचि का भी। जहां प्रकाश हो, भरोसा हो, लगाव हो वहां उत्सव ही उत्सव है। शायद इसीलिए दीपावली सबसे बड़ा उत्सव कहलाती है। प्रकाश सामूहिक रूप में फैला हो तो चारों ओर फूल जैसे खिल जाते हैं। दीयों की पंक्तियां औप प्रकाश के किस्म-किस्म के पुंज दीपावली की आभा रचते हैं। पंक्तिबद्ध होने में जो लय है वही तो पृथ्वी की उजास है। एक-एक का लालित्य एवं समूह का लालित्य। समूह जब अनुशासन की ज्यामिति हो तो वह भीड़ नहीं होता। लालित्य वस्तुत: प्रकाश और अंधेरे का बेहद खूबसूरत समन्वयपरक रचाव है। दीयों की पंक्तियां आखिर पर्व कैसे बन जाती हैं?

पर्व का वृहत्तर तात्पर्य है स्मृति के हजारों तार झनझना उठना। दीपावली उल्लास से भर देती है और जो समाज की केंद्रीयता में नहीं हैं उन्हें भी। दीपावली वर्चस्व को तोड़ती है। जहां वर्चस्व का अधिनायकत्व होगा वहां लोकतांत्रिकता हो ही नहीं सकती। इसीलिए प्रकाश की लड़ी होने का वहां प्रश्न ही नहीं। दीपावली सौंदर्य का अप्रतिम बिंब भी है, जहां मनुष्य की अनुभूति, अनुभव और संवेदना अपना आकार लेती है। दीपावली की ज्योति-प्रक्रिया, स्नोत और संरचना एक ऐसी मानुषिकता पर आधारित है जो सबको जोड़ कर चले। दीया में दो बातियां मिलती हैं। कहते हैं कि बाती स्नेह सिक्त होनी चाहिए। ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि स्नेह के बगैर प्रकाश की कल्पना भी संभव नहीं।

इस पारंपरिक धारणा में कहीं हमारे समय का निषेध नहीं। हमारा समय जिस तरह नकारात्मकता और हीनता से घिरा है उसमें स्नेह की और भी आवश्यकता है। स्नेह से ही पर्यावरण बनता है, उसी से वास्तविक कलात्मकता आती है। स्नेहरहित होने का अर्थ है कला के सौंदर्य का क्षरण। दीपावली सौंदर्य की महत्ता का भी पर्व है। शायद इसीलिए इस तकनीकी युग में भी सर्जनात्मकता, कला तत्व, मूल्य और कल्पना अर्थहीन शब्द नहीं हैं। दीपावली गरीब-अमीर की मीमांसा की हदबंदियों से निकलकर नए क्षितिजों को छू लेती है। भारतीय पर्व अनेक सीमाओं का वृहत्तर अतिक्रमण करते हैं। उनकी संरचना में अर्थों की कई दुनियाएं होती हैं। दीपावली समाज और व्यक्ति के जीवन के कुरूप पाठों को नया रूपांकन देती है। कृषि संस्कृति में तमाम दुखों के बावजूद कार्तिक मास और खासकर दीपावली में उल्लास और उजास के इतने रंग उभरते हैं कि वे देखते ही बनते हैं। सभी ऐसे मौसम का आनंद उठाते हैं जिसे सम कहा जा सकता है यानी न गर्मी, न सर्दी। प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मिट्टी की कला के तमाम सारे रूप भी इसी समय देखने को मिलते हैं। भिन्न-भिन्न तरह के दीये, हाथी, घोड़े, पेड़-पौधे सभी कुछ मिट्टी की कला में। ये कलाएं प्रकृति की महत्ता को रेखांकित करती हैं। आज के इस युग में इन कलाओं को खास तौर पर संरक्षित किए जाने की जरूरत है। फाइबर, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी आदि के दौर में मिट्टी की कला हर हाल में सहेजी जानी चाहिए, क्योंकि उसे सहेजकर ही प्रकृति को सहेजा जा सकता है।

दीपोत्सव यह भी कहता है कि वह सब कुछ जो हमें कलात्मक रूप से समृद्धि और वैभव दे उसे बचाकर रखा जाना चाहिए। मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, किसान, श्रमिक आदि दीपावली को नई अभिव्यंजना देते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इनकी ओर सबका ध्यान जाना चाहिए। दीपावली के वैभव से किसान का, श्रमिक का और विशेषकर जो वंचित हैं, निर्धन हैं उनका भी और इन सबके साथ ही प्रकृति और पर्यावरण का भी वैभव रचा जाना चाहिए, क्योंकि इन सबके वैभव में ही दीपावली का वैभव छिपा हुआ है। चूंकि दीपावली समृद्धि का पर्व भी है इसलिए इसकी भी चिंता की जानी चाहिए कि समृद्धि का प्रकाश सभी तक पहुंचे। स्पष्ट है कि धर्मो, जातियों, लिंगों, प्रांतों, भाषाओं की खींचातानी के बदले एक ऐसा समंजनपूर्ण विकास चाहिए जो गत्यात्मक और विवेकपूर्ण हो। केवल गांव या केवल शहर की सोच नहीं चलेगी। विकसित गांव और मानवीय शहर ही हमारे जीवन को आलोकित कर भविष्य को नया पथ दे सकते हैं। शहर तो हमें चाहिए परंतु ऐसे जो मानवीय संबंधों को बचाए रख सकें।

दीपावली का प्रकाश इन मानवीय संबंधों को एक नई ऊष्मा देकर जाता है तो शायद इसीलिए कि हम यह समझ सकें कि मनुष्यता को संजोकर रखना है। दीपावली मानुषीकरण की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को सामाजिकता के सहारे ही गति दी जा सकती है और सामाजिकता का सीधा-सरल अर्थ है मेल-मिलाप और अपनी खुशियां औरों को बांटना तथा दूसरों के दुख को दूर करने के लिए जो कुछ संभव है, करना। इस भाव के बगैर आज के समाज की नई आभा नहीं रची जा सकती। दीपावली में दीये की लौ बताती है कि यदि जीवन में बड़े परिवर्तन न संभव हो सकें तो छोटे-छोटे बदलाव भी मनुष्यता की शक्ल बदल सकते हैं। आखिर छोट-छोटे दीये यही करते हैं। वे अंधकार को दूर भगाते हैं और जहां तक संभव हो धरा का प्रकाश से भर देते हैं। दीपावली एक लालित्यपूर्ण सृजनात्मकता है। उजाले में एक संवाद है। उजाला ही बतकही है। संवाद की स्थिति शब्दों के साथ प्रत्येक मानवीय सृजनात्मकता में मौजूद रहती है। उजाले की निजता दीपावली को आधार देती है। उजाले की प्रसरणशीलता उसके सामाजिक पक्ष को आयाम देती है। दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य, निजता, स्वायत्तता, अंधकार और ज्योति का समन्वय एक साथ स्थापित करती है। इसी के साथ वह लघुता को सम्मान देती है। छोटा-सा दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार करता है।

वह संवेदना, संवाद और संप्रेषण की स्थिति की ओर ले जाता है। इस ओर जाने के लिए हमें निचले दर्जे की राजनीतिक स्पर्धा, संवादहीनता और विद्वेष की भावनाओं से परे जाना होगा। ऐसा करके ही हम दीपावली का असली विमर्श समझ पाएंगे। दीपावली हमारे भीतर के सृजन को ऊर्जा और आभा देती है। सृजन की फुलझड़ियां ही दुनिया को नव-नूतन बनाती हैं। इसमें जितना परंपराओं की सुरक्षा है, सांस्कृतिक परिवर्तन है उतना ही गतिशील समन्वय भी है। दीपावली बहुलता का रूप है जिसमें हर दीया और प्रत्येक प्रकाश पुंज सृजन की स्वायत्तता है।

( लेखक साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं)