[ गिरीश्वर मिश्र ]: भारतीय समाज में गुरु, अध्यापक, शिक्षक, उस्ताद और आचार्य की महिमा का बखान करतीं बहुत सी मिसालें प्रचलित हैं जो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा के शिखर पर स्थापित करती हैं। यही नहीं, विभिन्न अवसरों पर अभी भी गुरु की पूजा के उदाहरण मिलते हैं। यह उस समाज में स्वाभाविक ही था जिसमें शिक्षा की संस्था एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्थापित थी। उसके केंद्र में गुरु था जो शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ अपने सहज एवं निष्कपट आचरण द्वारा विद्यार्थियों में नैतिकता और मूल्यों के बीज बोता था। उसके सान्निध्य में विद्यार्थी को मानवीय सामर्थ्य के साथ नया जन्म मिलता था। गुरु और उसके गुरुकुल की व्यवस्था सामूहिक जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार की गई थी और गुरु को दैनिक चिंताओं से मुक्त रखा जाता था।

गुरु की सामाजिक जीवन में केंद्रीय भूमिका

ज्ञान का प्रवाह बना रहे और सद्गुण संपन्न नागरिक हों, इसके लिए सुकरात ने तो मृत्युदंड भी स्वीकार किया था। कृष्ण, बुद्ध, शंकराचार्य और चाणक्य जैसे गुरुओं की कथा सर्वविदित है। गुरु-शिष्य परंपरा की भी बहुतेरी कहानियां प्रचलित हैं। सिख धर्म में ‘मनमुख’ नहीं और ‘गुरुमुख’ होना ही हितकर माना गया है। गुरु की सामाजिक जीवन में केंद्रीय भूमिका रखी गई थी।

गुरु से अपेक्षा होती है कि वह शिष्य को सुपात्र बनाए

गुरु से अपेक्षा होती है कि वह छात्र को निखारेगा। गुरु कहने में वह पूरा ज्ञान भी शामिल हो जाता है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित और संप्रेषित किया जाता है। विचार संप्रदाय का प्रतिनिधि होता है। गुरु को इस कार्य के लिए स्वायत्तता प्राप्त थी कि वह जिस ज्ञान को उचित समझता है उसे अपने छात्रों को उपलब्ध कराए। यह उसका दायित्व था कि वह यह निर्धारित करे कि उस ज्ञान और कौशल को वह किस तरह छात्र को सौंपेगा। गुरु की गरिमा इसमें होती है कि वह शिष्य को सुपात्र बनाए और समाज की सोच को दिशा दे। गुरु को अनायास ही महिमामंडित नहीं किया गया। उससे अपेक्षा थी कि वह विश्वास और भरोसे के साथ छात्र का व्यक्तित्व निर्माण करेगा।

अंग्रेजों ने शिक्षा को नया सांचा दिया

अध्ययन-अध्यापन के प्रति एकांत भाव से समर्पित, अहंकारमुक्त, और वत्सल भाव वाले गुरु-सद्गुरु सीमित आवश्यकताओं के साथ जीने का अभ्यास करते थे और मूल्य की प्रतिष्ठा ही उनके ऋषिकल्प जीवन का केंद्र होता था, परंतु शिक्षा और शिक्षक की यह संकल्पना धीरे-धीरे बदलती रही। उस पर आतताइयों के आक्रमण भी हुए और नालंदा जैसा विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय नष्ट कर दिया गया। अंग्रेजों ने अपने ढंग से शिक्षा को नया सांचा दिया और विषयवस्तु को इस तरह बदला कि हम वह नहीं रह सके जो थे। शिक्षा यदि समाज को प्रभावित करती है तो वह स्वयं भी देशकाल से प्रभवित होती है। वैश्वीकरण के इस दौर में व्यापक स्तर पर होने वाले सामाजिक-आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों का सीधा असर शिक्षा पर पड़ा है। समाज किस तरह की शिक्षा चाहता है, यह उसके रुझान से पता चलता है। समय के साथ शिक्षा के स्नोत और भूमिका में भी बदलाव आता रहा।

शिक्षा के विभिन्न उपकरण

पहले साक्षरता कम थी और पढ़े-लिखे लोग ही शिक्षा के माध्यम थे। अब मीडिया के अथाह विस्तार के साथ सूचना और ज्ञान के साधन भी विकेंद्रित होकर सब तक पहुंच रहे हैं। अब विद्यालय ही एकमात्र शिक्षा का केंद्र नहीं रह गया है। धीरे-धीरे दूरस्थ शिक्षा प्रत्यक्ष शिक्षा के सहायक के रूप में ही नहीं, बल्कि विकल्प के रूप में भी उपस्थित हो रही है। अब शिक्षा के विभिन्न उपकरण विद्यार्थी को सीखने में सहूलियत दे रहे हैं। एक तरह से ये उपकरण मानव संबंधों की अहमियत घटा रहे हैं। तकनीक का उपयोग कक्षा में और उसके बाहर भी बढ़ रहा है। आज जिस तरह छोटे बच्चे भी डिजिटल मीडिया के विविध रूपों से परिचित हो रहे हैं उससे उनकी स्कूल जाने की तत्परता बहुत शीघ्र आ रही है।

शिक्षा और शिक्षक दोनों पर पुनर्विचार जरूरी

इन सबके बीच औपचारिक शिक्षा की पूर्व प्रचलित व्यवस्था नाकाफी और उबाऊ होती जा रही है। नए जमाने के इन नवमेधावियों को ध्यान में रखकर शिक्षा और शिक्षक दोनों पर पुनर्विचार जरूरी होता जा रहा है। अब ज्ञान देने वाले तकनीकी गुरुओं के नए संस्करण भी आ रहे हैं, जो पूरी शिक्षा प्रक्रिया को नया आकार दे रहे हैं। इसका सीधा असर गुरु की परंपरागत भूमिका और प्रासंगिकता पर पड़ रहा है। आज तमाम विषयों पर गूगल स्कॉलर, फेसबुक, टेड कांफ्रेंस और यू ट्यूब आदि के द्वारा प्रचुर मात्रा में पठनीय सामग्री सरलता से मिल जाती है।

अध्यापन एक व्यवसाय बन गया

ई-माध्यमों पर उपस्थित सामग्री की सशक्त प्रस्तुतियां बड़ी ही लोकप्रिय हो रही हैं। यह प्रवृत्ति सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ नगर से लेकर गांव तक फैल रही है। शिक्षा के मानवीय आधार को तकनीकी उपाय विस्थापित करते जा रहे हैं। ये परिवर्तन शिक्षक की भूमिका को प्रश्नांकित कर रहे हैं। आज की बदलती परिस्थितियों में अध्यापन भी दूसरे व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है।

शिक्षक अन्य कार्यों में व्यस्त

शिक्षक होना आज के युवा की पसंद में काफी नीचे स्थान पाता है, क्योंकि प्रभुत्व और आर्थिक दृष्टि से यह अधिक आकर्षक नहीं है। अब गुरु की प्रतिमा नए रंग ग्रहण कर रही है। अब शिक्षकों को लेकर आचरणगत आरोप-प्रत्यारोप भी किए जा रहे हैं। आज बाजार के बढ़ते प्रभाव ने शिक्षा की प्रक्रिया और शिक्षक दोनों को आर्थिक प्रलोभनों के दायरे में ले लिया है। अपने जीवन स्तर में सुधार की तमन्ना लिए और समाज में नैतिक अस्पष्टता और मूल्यद्रोह को देख-देख शिक्षक भी विचलित हो रहे हैं। कई अध्यापक सामान्य कक्षा और विद्यालय जीवन की उपेक्षा कर अर्थोपार्जन के अन्य कार्यों में व्यस्त रहने लगे हैं।

अध्यापकों का टोटा

आज चारों ओर अध्यापकों का टोटा है और शासन या तो उदास है या तटस्थ है या फिर राजनीतिक या कानूनी दांवपेंच की दखलंदाजी से शिक्षा जगत त्रस्त-भ्रष्ट हो निरुपाय हो रहा है। अध्यापक की गरिमा दिनोंदिन घट रही है। शायद निरीह शिक्षक के व्यवसाय के साथ जितनी छूट ली जा रही है वैसा उदाहरण दूसरे किसी और पेशे में नहीं मिलेगा। अध्यापकों के वेतन, सुविधाओं, सेवानिवृत्ति की आयु और दायित्वों में कोई तालमेल नहीं है।

शिक्षा की संस्थागत परिपाटियों को सुधारने की जरूरत

संवैधानिक दृष्टि से समवर्ती सूची में होने के कारण केंद्र और राज्य की शिक्षा संस्थाओं के बीच अनेक विसंगतियां बनी हुई हैं। शिक्षण कार्य की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए प्रशिक्षण को महत्व दिया गया पर उसका भी अब दुरुपयोग शुरू हो गया, जिसके चलते उस पर लगाम लगानी पड़ी। अब शिक्षा की संस्थागत परिपाटियों को सुधारने की जरूरत है, क्योंकि चरित्रवान और समर्पित शिक्षकों का कोई विकल्प नहीं है।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति रहे हैैं )