[ साकेत सूर्येश ]: लेखक होने और लिखने का शौक रखने में वही अंतर है जो नेता होने और नेतागीरी करने में है। नेता होना चारित्रिक उत्कर्षता और सामाजिक स्वीकार्यता एवं सम्मान का सूचक है। नेतागीरी व्यवसाय है। नेता होना व्यवहार है, स्वभाव है। नेता का सम्मान होता है। वैसे ही लिखने वाले का सम्मान होता है, लेखक अपने लेखन के निरीह अस्तित्व में डूबता-उतरता रहता है। लिखना आराम का शगल है, लेखक होना संघर्ष का सूचक हैं। लिखने में समस्या नहीं है। लिखने का स्वभाव बेलाग है, अल्हड़ है। लेखक होना वही, गांभीर्य का भाव है, गरीबी का भाव है। जब मित्र कहते हैं कि ‘यह लिखते हैं’ तो उसमें सराहना-सम्मान का भाव छिपा होता है। जब वही मित्र यह जानते हुए कि आप प्रकाशित हो गए हैं, हो रहे हैं, कहता है, ‘यह लेखक हैं’ तो लोगों के मुख पर सहसा सद्भावना और सहानुभूति का मिश्रित भाव उमड़ जाता है। लिखने वाला आदरणीय होता है, लेखक के लिए आदरणीय होना प्रतिबंधित है।

परसाई जी लिखते हैं, ‘लेखक को आदरणीय होने से बचना चाहिए। आदरणीय हुआ कि गया। ... मैं साहित्य में ही रहता था, रहना भी चाहता था। मैंने तय किया कि अपने को कभी आदरणीय नहीं होने दूंगा। जब-जब आदरणीय होने का खतरा पैदा होता, मै कोई बेवकूफी या उचक्कापन कर जाता।’ मेरी ऐसी कोई समस्या नहीं है। मध्यवर्गीय बचपन और सरकारी कॉलेज की अभिजात्य-शून्य अभियांत्रिकी ने उचक्केपन का ऐसा प्रभावशाली टीका लगाया है कि व्यक्तित्व आदरणीय होने से सदा सुरक्षित है। लेखक जब प्रकाशित होता है तो सहसा ही खिलंदड़ी, निर्दोष युवती से संस्कार-संकुचित विवाहिता बन जाता है। सामान्य अपेक्षा रहती है वह सतही छिछोरापन त्यागकर संस्कारी वधू के समान प्रकाशक श्वसुर और प्रमोटर सास का मान रखेगा। ..उससे बुद्धिजीवी होने की अपेक्षा भी रखी जाएगी। भीड़ भरे हॉल में यदि एक कुर्सी रखी होगी तो लेखक से उम्मीद नहीं रखी जाएगी कि वह चीते की फुर्ती से उस पर काबिज हो जाए।

ठंड में कुकड़ी बन जाने पर भी लेखक-सुलभ संस्कार के अनुसार वह मंकी कैप और कंबल में सार्वजनिक रूप से दृष्टिगोचर नहीं होना चाहिए। जैसे नवविवाहिता को सिंदूर, घूंघट, चूड़ियों से लैस होना चाहिए, लेखक को शेरवानी, कलम और ऐनक से लैस होना चाहिए। जानकार कहते हैं हिंदी साहित्य में लेखकों के आदरणीय होने की परंपरा आपातकाल के बाद शुरू हुई जब प्रसिद्ध और गणमान्य लोग लेखन में उतरने लगे। दिनकर के गीत को जयप्रकाश जी ने युद्धघोष क्या बनाया, हिंदी को सत्ता का अप्रत्याशित विरोध झेलना पड़ा। आदरणीयत्व से मुक्त लेखक टमाटर उगाने के लिए हाशिए पर धकेले गए और वीरांगना के स्तुतिकार ब्रेड, चूहा और फ्रिज जैसी कविताएं लिखने वाले पुरस्कृत होते गए। हिंदी सत्ता की संटियां खाती रही और न समझ में आने वाले लेखकों के प्रभाव में जनता भाषा और साहित्य से दूर होती गई।

शरद जोशी और परसाई जैसे लेखक बुद्धिजीवी होने और आदरणीय होने से बचते थे। व्यवस्था यूं बदली कि आदरणीय और बुद्धिजीवी होना लेखक की आवश्यक योग्यता बन गई। शासन को ऐसे लेखक बड़े भाते थे जो पाठकों के अभाव को सत्ता के प्रभाव से भरते थे। आपसी निर्भरता आपसी सौहार्द में सहयोग देती थी। पुस्तकें न बिकें तो सरकारी पुस्तकालयों मे पहुंच जाती थीं, पांच सितारा में पुस्तक समीक्षा का आयोजन करने वाले बुद्धिजीवी-कम-लेखक पर प्रतिष्ठित अखबारों में संघर्ष कथा लिखी जाती थी। टीवी चैनलों पर बुद्धिजीवी-लेखिका बताती हैं कि सत्ता के दबाव में किस प्रकार उनकी पुस्तक को बाजार की उपेक्षा सहनी पड़ रही है। यही संदेश हर साहित्यिक गोष्ठी में जाकर सुनाया जाता जहां वे आमंत्रित वक्ता होते थे। ये बुद्धिजीवी परसाई जी की टिटिहरी नहीं थे जो आसमान की ओर पांव उठाकर औंधा लेटता है और आसमान को टेक देने के मुगालते में रहते हैं। यह कभी भी राजनीति के निर्देश पर अपनी ब्रेड और चाय की कविता पर मिले पुरस्कार लौटाकर सत्ता और समाज की व्यवस्था बदलने का दम रखते हैं।

इसी व्यवस्था को ताजा लेखक बना लिखने वाला इको-सिस्टम कहता है। क्योंकि जब गणमान्य लेखक व्यवस्था की तथाकथित उपेक्षा को झेलता हुआ, बिजनेस क्लास के विमान में एक शहर से दूसरे लेक्चर सर्किट चलाता है, अनादरणीय लेखक अगले वेतन का विचार करता है और मेट्रो में प्रेमी युगलों की दृष्टि से स्वयं को बचाकर एक टांग पर स्वयं को संतुलित करके टमाटर उगाने वाले लेखकों को द्रोण मानकर स्वयं एकलव्य बनकर साहित्य की समिधा में अंगूठा डाल देता है। इस टिटिहरी के पांव पर कोई आसमान नहीं टिकता।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]