अरविंद जयतिलक। नोटबंदी के दो वर्ष बाद विपक्ष का यह दुष्प्रचार कि इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा, कल-कारखाने के पहिए थम गए और रोजी-रोजगार छिन गए, उनकी निराशा और हताशा को रेखांकित करता है। विपक्ष यह कह रहा है कि करीब 99.30 प्रतिशत प्रतिबंधित नोट बैंक में वापस आ गए तो नोटबंदी असफल रही। उसकी दलील यह भी है कि चूंकि सरकार के आकलन के मुताबिक ढाई-तीन लाख करोड़ रुपये काला धन था जिसे बैंकों में वापस नहीं आना चाहिए था। यह भी कि नोटबंदी के दौरान अमीरों ने अपना कालाधन सफेद कर लिया जबकि छोटे व्यापारी, असंगठित क्षेत्र व गरीबों पर सर्वाधिक मार पड़ी। लेकिन गौर करें तो यह पूरी तरह सच नहीं है। अगर अमीर लोग बैंकों के जरिये अपने काले धन को सफेद करने में सफल रहे तो इसके लिए बैंकों के भ्रष्ट अधिकारी जिम्मेदार रहे न कि सरकार की नीति व नीयत।

सरकार की कड़ी नजर
ऐसे भ्रष्ट बैंककर्मियों पर सरकार की कड़ी नजर है और उनके किए की सजा मिलनी तय है। सरकार कह भी चुकी है कि बैंकों में जमा 99.30 फीसद प्रतिबंधित धन सफेद नहीं है। यानी इसमें कालाधन भी है और वह 18 लाख ऐसे जमाकर्ताओं पर नजर रखे हुए है। इसके अलावा जिन धनकुबेरों ने टैक्स से बचने के लिए फर्जी खाते खोलने के साथ अन्य विकल्पों को आजमाए वे भी जांच के घेरे में है। नोटबंदी से कालेधन पर चोट के अलावा कर राजस्व में रिकार्ड तोड़ वृद्धि हुई है। करदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है और टैक्स नियमों का पालन करने वाले जिम्मेदार समाज के रूप में भारत का रूपांतरण हुआ है। आयकर रिटर्न की संख्या में बीते दो वर्षो में क्रमश: 19 फीसद और 25 फीसद वृद्धि हुई है।

नोटबंदी के दो वर्षो
यही नहीं पहली बार रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या भी नोटबंदी के बाद गत दो वर्षो में दो करोड़ बढ़ी है। क्या यह रेखांकित नहीं करता कि नोटबंदी ने ऐसे लोगों को कर के दायरे में ला दिया है जो अभी तक कर छिपाने के कई हथकंडे अपनाते थे? जीएसटी लागू होने के बाद पहले ही वित्त वर्ष में इसमें पंजीकृत करदाताओं की संख्या में 72.5 फीसद की वृद्धि हुई। डिजिटल लेन-देन में जबरदस्त वृद्धि हुई है। अब नोटबंदी के दो वर्ष बाद अर्थव्यवस्था पटरी पर है। जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षणवादी नीतियों से पूरी दुनिया प्रभावित है ऐसे में अगर भारतीय अर्थव्यवस्था घरेलू खपत की बदौलत सरपट दौड़ रही है तो यह बड़ी उपलब्धि है। जहां तक नोटबंदी के बाद रोजी-रोजगार छिनने का सवाल है तो यह पूरी तरह सही नहीं है।

आर्थिक विकास दर
शुरुआत में रोजगार के अवसर इसलिए कम हुए कि काले धन से चलने वाले उद्योग-धंधे और कल-कारखानों का पहिया थम गया, लेकिन बाद में उसमें तेजी आई। उस समय आर्थिक विकास दर के लुढ़कने के भी बहुतेरे कारण थे। उनमें से एक विनिर्माण गतिविधियों में सुस्ती आने की वजह से आर्थिक विकास दर पर कुछ ज्यादा ही नकारात्मक असर पड़ा। अर्थव्यवस्था का आजमाया हुआ सिद्धांत है कि विनिर्माण क्षेत्र में जब भी शिथिलता आती है उसका सीधा असर आर्थिक विकास दर पर पड़ता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 15-16 प्रतिशत है और इस क्षेत्र की जिम्मेदारी है कि लोगों को रोजगार से संतृप्त करे। लेकिन नोटबंदी के बाद विनिर्माण क्षेत्र रोजगार सृजित करने में नाकाम रहा।

औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति
अब विनिर्माण के साथ ही औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति भी तेजी से सुधर रही है। पहले के मुकाबले अब बैंकिंग लोन उन उद्योगों में ज्यादा जा रहा है जहां सबसे ज्यादा रोजगार पैदा होते हैं। रोजगार में वृद्धि और अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए सरकार को चाहिए कि वह निवेश को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करे। अगर निवेश बढ़ा तो न सिर्फ अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर आठ फीसद से ऊपर रहेगी, बल्कि रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। चूंकि इस वर्ष मानसून की स्थिति भी बहुत अच्छी रही और निजी क्षेत्र में निवेश की शुरुआत भी हो चुकी है, ऐसे में आर्थिक विकास दर को और अधिक छलांग लगाने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

मोदी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता
दूसरी ओर मोदी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता में पहले से ही चालू खाते का घाटा कम करना, विकास दर को ऊंचे पायदान पर ले जाना, बचत में वृद्धि, निवेश चक्र बनाए रखना मुख्य एजेंडा है। इसलिए सरकार की नीतियों पर शक नहीं किया जाना चाहिए। नोटबंदी से उपजी शिथिलता का दौर खत्म हो चुका है और अर्थव्यवस्था उड़ान भर रही है।