[ जगदीप एस छोकर ]: चुनावी बांड संबंधी योजना एक बार फिर चर्चा में हैै। जहां सत्तापक्ष चुनावी बांड स्कीम को एक सही और साहसी कदम बता रहा है वहीं विपक्षी दल और स्वैच्छिक संस्थाएं इस योजना की कमियों और गलतियों की तरफ देश का ध्यान आकर्षित कर रही हैं। अगर इस सारी बहस को देखा जाए दो बातें तो स्पष्ट होती हैं। पहली यह कि यह योजना पारदर्शिता को आगे बढ़ाने के बजाय गोपनीयता को बढ़ावा देती है और दूसरी यह कि इसे जारी करने का तरीका ठीक नहीं था। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जिस दिन संसद में बजट इस योजना का उल्लेख किया था उसी दिन एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि चुनावी बांड के तहत पैसा देने वाले की पहचान गोपनीय रखी जाएगी। उनकी बात सही साबित हो रही है। इस स्कीम से पारदर्शिता नहीं बढ़ रही है।

चुनावी चंदे में पारदर्शिता से बचते राजनीतिक दल

ध्यान रहे कि चंदे में पारदर्शिता एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए आवश्यक है। यह एक अजीब बात है कि सब राजनीतिक दल पारदर्शिता के बारे में बहुत बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैैं, लेकिन जब उसे व्यावहारिक रूप से लागू करने का समय आता है तो बिना किसी भेदभाव के सभी दल एकजुट हो जाते हैं। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी कहती है कि पहले बाकी दल पारदर्शी हों, तब हम भी पारदर्शी हो जाएंगे। यह तो वही बात है कि बिल्ली के गले में घंटी सबसे पहले कौन बांधे।

स्टेट फंडिंग ऑफ इलेक्शन

समय-समय पर यह भी कहा जाता है कि चुनाव लड़ने के लिए पैसे सरकार को देने चाहिए, जिसे स्टेट फंडिंग ऑफ इलेक्शन कहा जाता है। इसमें कई पेचीदगियां हैं। पहली तो यह कि सरकार जो पैसे देगी वे वास्तव में जनता के पैसे ही होंगे। अगर जनता को यह बताया जाए कि उसके पैसे उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए दिए जाएंगे तो आखिर कितने लोग इसके लिए राजी होंगे? मेरे विचार में तो बहुत कम लोग इसके लिए तैयार होंगे।

चुनावी खर्च के लिए पैसे की सीमा

दूसरा मुद्दा है कि चुनावी खर्च के लिए कितना पैसा दिया जाए? साधारणतया इसका अनुमान लगाने के लिए यह जानना जरूरी है कि चुनाव पर सब मिलाकर कितनी राशि खर्च होती है ताकि उतनी ही या उससे कुछ अधिक राशि का बजट में प्रावधान किया जा सके। समस्या यह आती है कि कोई भी उम्मीदवार और राजनीतिक दल यह बताने को राजी नहीं है कि उसने वास्तव में कितने पैसे खर्च किए? तीसरा मुद्दा है कि अगर उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए जनता के पैसे दिए जाएंगे तो फिर उनको कहीं और से पैसे लेने की अनुमति नहीं होगी। इसके लिए कोई राजनीतिक दल राजी नहीं है।

राजनीतिक दलों को सार्वजनिक करना होगा चुनावी चंदा

घूम-फिर कर बात वहीं आती है कि राजनीतिक दलों को यह सार्वजनिक करना होगा यानी सबको बताना होगा कि उनको कितने पैसे मिले और कहां से? जब तक यह नहीं होता तब तक चुनावी और राजनीतिक चंदों में पारदर्शिता की बात करना सरासर निरर्थक है।

राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के सभी राजनीतिक दलों ने किया विरोध

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के सभी प्रयत्नों का सभी राजनीतिक दलों ने पुरजोर विरोध ही किया है। इसका एक ठोस प्रमाण है तमाम राजनीतिक दलों द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग के वर्ष 2013 के निर्णय की खुलेआम अवहेलना करना। तीन जून 2013 को केंद्रीय सूचना आयोग ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया था कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल (भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी हैं। उन्हें सार्वजनिक सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए और सूचना अधिकार के अंतर्गत मांगी गई सूचनाएं जनता को देनी चाहिए, लेकिन इन सभी दलों ने इस निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया। अब यह मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।

स्वच्छ राजनीति के लिए पारदर्शिता अनिवार्य

देश में लोकतंत्र तभी ठीक से चल सकता है जब देश की राजनीति स्वच्छ हो। राजनीति स्वच्छ होने के लिए राजनीति में वास्तविक पारदर्शिता अनिवार्य है। इसके लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। इसका एक उपाय राजनीतिक दलों पर सूचना अधिकार अधिनियम लागू करना हो सकता है। जब तक यह नहीं होता तब तक आधे मन से किए गए उपाय या फिर गोपनीयता कायम रखने वाले चुनावी बांड योजना से कुछ लाभ नहीं होगा। इससे तो केवल सत्तारूढ़ दल ही मजबूत होंगे।

( लेखक आइआइएम अहमदाबाद में प्रोफेसर, डीन एवं डायरेक्टर इंचार्ज रहे हैैं )