[ सुधीर पंवार ]: हरित क्रांति की सफलता के बाद सरकारें किसानों की समस्याओं का समाधान अधिक उत्पादन, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी में वृद्धि एवं खेती के लिए अधिक कर्ज में ही खोजती रहीं, लेकिन इसके बावजूद किसानों की समस्याएं बरकरार रहीं। जब बीते तीन वर्षों से अनुकूल जलवायु एवं कृषि नीतियों के कारण फसलों का बंपर उत्पादन हो रहा है तब भी देश के कई हिस्सों के किसान असंतोष और बेचैनी से भरे हैैं। वित्तमंत्री का दावा है कि एमएसपी में लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ शामिल कर लिया गया है और बजट में कृषि कर्ज के लिए 11 लाख करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गई है। इससे स्पष्ट है कि अधिक उत्पादन, अधिक कर्ज एवं एमएसपी व्यवस्था किसानों की आर्थिक मुश्किलें दूर करने मे नाकाम रही हैं। ऐसे में किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए नए दृष्टिकोण एवं उपायों की आवश्यकता है।

नीति आयोग के सदस्य एवं कृषि विशेषज्ञ प्रो. रमेश चंद के अनुसार किसानों की वार्षिक आय के आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय किसानों की आय के आंकड़े एकत्र नहीं करता। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार 20 प्रतिशत किसानों की आय गरीबी रेखा से नीचे है। वहीं रमेश चंद रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में प्रति किसान परिवार की आमदनी 44,027 रुपये थी। एक साल में इसमें 927 रुपये यानी 77 रुपये प्रति माह की बढ़ोतरी हुई। वहीं सीबीडीटी के अनुसार 2014 से 2018 तक देश में करोड़पतियों की संख्या में 68 प्रतिशत की वद्धि हुई है। यह भी चौंकाने वाला तथ्य है कि तमाम दावों के बाद भी किसान की आमदनी दोगुनी होने में 22 साल का समय लगेगा।

कृषि क्षेत्र में श्रमिक उत्पादकता गैर कृषि क्षेत्रों के आधे से भी कम है। जहां गैर कृषि क्षेत्रों मे यह 1,71,587 रुपये सालाना है वहींकृषि में केवल 62,235 रुपये सालाना है। केवल किसान ही नहीं ग्रामीण रोजगारों की आय में भी बीते दो वर्षों में कमी आई है। वित्त वर्ष 2013-15 में ग्रामीण रोजगार की आय में औसत वृद्धि दर 11 प्रतिशत थी जो 2016-18 में घटकर 0.45 प्रतिशत पर सिमट गई। सरकार एमएसपी में किसानों को 50 प्रतिशत या उससे अधिक लाभ देने का दावा कर रही है। जबकि उसके निर्धारण की प्रक्रिया तर्कसंगत नहीं है।

उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने 2018-19 मे गन्ने की उत्पादन लागत 155 रुपये प्रति क्विंटल आकलित की है। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार पिछले वर्ष राज्य में गन्ने की उत्पादन लागत 289 रुपये प्रति क्विंटल थी। एमएसपी का लाभ भी कुछ क्षेत्रों और कुछ फसलों तक ही सीमित है, क्योंकि केवल 10 प्रतिशत किसान ही इसका लाभ उठा पाते हैं। इस वर्ष खरीफ की फसल आने के बाद एक जुलाई से किए गए राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार उड़द का औसत बाजार मूल्य 3695 रुपये प्रति क्विंटल रहा जबकि सरकार द्वारा घोषित एमएसपी 5675 रुपये प्रति क्विंटल था। तूर दाल का बाजार भाव 1,300 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि उसके लिए एमएसपी 1,950 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया। सरकार द्वारा निर्धारित मूल्यों पर गन्ना खरीदने के बाद भी चीनी मिलें किसानों के तकरीबन 12,000 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं कर पाई हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही किसानों का 8,200 करोड़ रुपये बकाया है।

कृषि श्रम एवं उत्पादों के तुलनात्मक कम मूल्यों के साथ-साथ छोटी होती कृषि जोत भी किसानों के आर्थिक संकट का मुख्य कारण है। नमूना सर्वेक्षण विभाग द्वारा 2018 में जारी आंकड़ों के अनुसार लघु एंव सीमांत किसानों की संख्या 86.2 प्रतिशत है और पिछले पांच वर्षों में इनकी संख्या में 90 लाख की वृद्धि हुई है। लगभग 12 करोड़ किसानों के पास औसत कृषि भूमि 0.6 हेक्टेयर है और उससे बाजार में बिक्री करने लायक उत्पादन नहीं होता। छोटी होती जोतों का प्रमुख कारण जनसंख्या में वृद्धि और गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में आई कमी है। 2004-05 से 2011-2012 के अंतराल में लगभग 3.5 करोड़ किसान गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार पाने में सफल रहे थे, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद सेवा एवं औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार के अवसर घटे हैं। इससे कृषि अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव बढ़ा है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के लिए दीर्घकालिक एवं अल्पकालिक उपायों की आवश्यकता है। खेती पर जनसंख्या की निर्भरता कम करने के साथ अतिरिक्त कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य देना ऐसा ही एक उपाय हो सकता है, मगर मोदी सरकार की महंगाई नियंत्रण की नीतियों के चलते खाद्यान्न के मूल्यों में अधिक वृद्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती। हालांकि इस वर्ष सरकार ने किसानों को एमएसपी दिलाने के लिए प्रधानमंत्री आशा कार्यक्रम के तहत तीन नई योजनाओं की घोषणा की है। इनमें मध्य प्रदेश में लागू भावांतर योजना प्रमुख है जिसके अंतर्गत सरकार फसलों के बाजार भाव कम होने पर किसानों को एमएसपी का भुगतान करेगी, लेकिन इस योजना का लाभ किसानों के बजाय व्यापारियों को अधिक हुआ। इस योजना का लाभ पाने के लिए किसानों को अगले साल तक इंतजार करना पडे़गा, क्योंकि इसमें किसानों को बुआई के समय ही पंजीकरण कराना होगा।

पिछले वर्षों में महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के किसानों को कर्जमाफी का लाभ मिला है। चुनाव के अवसर पर कर्ज माफी एक प्रमुख मांग के रूप में उभर रही है जिसे विभिन्न दल अपने चुनावी एजेंडे में भी शामिल कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि कर्ज माफी किसानों के वोट लेने के औजार के रूप मे विकसित हो रही है। कर्जमाफी से किसानों को तात्कालिक लाभ तो होता है, लेकिन दीर्घकाल में इसके राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका है। किसानों के लिए निश्चित आय की गारंटी कर्जमाफी से बेहतर विकल्प है।

सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत सरकार विभिन्न सामाजिक वर्गों के जीवन निर्वाह के लिए योजनाएं चला रही है। इनमें श्रमिकों के लिए मनरेगा है, जिसका वार्षिक बजट 40,000 करोड़ से अधिक का है। किसानों के लिए भी ऐसी ही किसी योजना की दरकार है जिसमें उसे निश्चित आय प्राप्त हो सके। तेलंगाना और आंध्र की सरकारों ने इसी प्रारूप में लागत सब्सिडी योजना शुरू की है जिसमें तेलंगाना सरकार 8000 रुपये प्रति एकड़ और आंध्र प्रदेश सरकार 15000 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से किसानों को राशि दे रही है। आवश्यकता है कि केंद्र सरकार लद्यु एवं सीमांत किसानों के लिए निश्चित आमदनी योजना शुरू करे जिससे उन्हें बाजार में फसलों के मूल्यों के उतार-चढ़ाव में भी जीवन यापन की गारंटी प्राप्त हो।

[ लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और उत्तर प्रदेश योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं ]