बिहार, आलोक मिश्रा। Bihar Legislative Assembly Election 2020 : दिल्ली की जंग खत्म हो गई है और अब बारी है बिहार की, जिसका रिहर्सल करने सूबे के दल भी बिहारी वोटों के बल पर निकले थे दिल्ली, लेकिन सब औंधे मुंह गिरे। दिल्ली छोड़ो, बिहारी वोटरों ने ही नकार दिया बिहारी दलों को। वहां खुद का रिपोर्ट कार्ड चाहे जैसा हो, लेकिन वहां के नतीजे से यहां मायने खूब निकलने लगे हैं। काम और चेहरा यदि नीतीश के पाले में जा रहा है तो राष्ट्रीय मुद्दों का लगातार राज्यों के चुनाव में निपटना विपक्ष के पाले में। सांगठनिक मजबूती और गठबंधन की एकता अगर नीतीश का बल बढ़ाने वाली है तो महागठबंधन के बेसुरे सुर और दलों का कमजोर ढांचा उसके खिलाफ। इन्हीं शुरुआती समीकरणों से यहां चुनावी माहौल बनने लगा है।

राजद और मांझी औंधे मुंह जा गिरे : दिल्ली चुनाव में नौ सीटों पर बिहार के दलों ने भी आजमाइश की। गठबंधन धर्म का तकाजा देख भाजपा ने दो पर जदयू को उतारा और एक पर लोजपा को। कांग्रेस ने भी राजद को तीन सीटें दीं, लेकिन जीतन राम मांझी अकेले ही दो जगह कूद पड़े। आप और भाजपा की सीधी लड़ाई में जदयू और लोजपा तो दूसरे नंबर पर आकर कुछ इज्जत बचाने लायक रहीं, लेकिन राजद और मांझी औंधे मुंह जा गिरे। मांझी वोटों के सैकड़े को भी तरस गए। अब सभी सूबे में समीकरण बनाने में लग गए हैं, क्योंकि चुनावी बयार का रुख बिहार की तरफ हो चुका है।

दिल्ली में भाजपा-जदयू हार गए : भले ही दिल्ली में भाजपा-जदयू हार गए, लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए केजरीवाल के चेहरे और काम को मिली तरजीह नीतीश खेमे का मनोबल बढ़ाने वाली है। जदयू-भाजपा इसी को आगे रखकर चलने की तैयारी में हैं। सीएए, एनआरसी, 370 जैसे मुद्दों को उछाल कर केजरीवाल को हराने का मंसूबा ध्वस्त होने के बाद अब भाजपा के शीर्ष नेता भी राज्य स्तरीय मुद्दों और काम को महत्व देने की बात कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने भी बिहार में आकर नसीहत दे दी कि बिहार का चुनाव स्थानीय सरकार के कामकाज पर लड़ा जाए।

जनता के बीच छवि भी बेहतर : नीतीश पहले भी इसी आधार पर लड़ाई जीतते आए हैं और भाजपा के कुछ मुद्दों पर असहमत भी होते रहे हैं। उनकी झोली में कई ऐसे काम हैं जो बताने लायक हैं। जनता के बीच छवि भी बेहतर है। वो जानते हैं कि महागठबंधन के संतरे का खोल मजबूत नहीं रहा सो फांके अलग-अलग होने में देर नहीं लगेगी। संगठन के स्तर पर भी फिलहाल भाजपा और जदयू विरोधियों से आगे हैं। दोनों ही अपने सांगठनिक कील-कांटे दुरुस्त कर जनता के बीच माहौल भी बनाने लगे हैं।

महागठबंधन के लिए दिक्कत आपसी सामंजस्य बिठाना : पिछले तीन चुनाव से नीतीश की रणनीति के आगे नाकाम विपक्ष फिलहाल इस बात से संतोष कर सकता है कि लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में मोदी का जादू बेअसर रहा। बिहार में महागठबंधन की आस इसी पर टिकी है, लेकिन उसकी राह में बड़ा रोड़ा हैं नीतीश, क्योंकि यह चुनाव अन्य राज्यों से अलग होगा। यहां मोदी नहीं नीतीश चेहरा हैं। महागठबंधन के लिए सबसे बड़ी दिक्कत आपसी सामंजस्य बिठाना होगा। इस समय राजद अंदरूनी कलह से जूझ रहा है। लालू बिना राजद बिखराव से आशंकित है, उसके कुछ विधायक अलग राह तलाश रहे हैं।

कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बहुत कमजोर है तो उपेंद्र कुशवाहा क्या गुल खिलाएंगे, उस पर भी सबकी निगाहें हैं। सबके लिए शुरुआती चरण अपने संगठन को मजबूत करना है। सभी अपने संगठन को धोने-पोछने में लगे भी हैं, लेकिन इसके बीच पिछले कुछ माह से पोस्टर वार के जरिये शुरू हुई लड़ाई तेज हो गई है। आए दिन जदयू और राजद का एक-दूसरे पर प्रहार जारी है। रातों-रात पोस्टर लगते और बदलते हैं, लेकिन सामने कोई नहीं आता। जनता हमेशा की तरह समझदार है, वह संदेश पढ़ साफ समझ जाती है कि किसकी कारस्तानी है, लेकिन वह भी नहीं बोलती, बोलते हैं तो केवल पोस्टर। लेटेस्ट में लालू को ठग्स ऑफ बिहार दिखाया गया है।

यह जवाब था जदयू के तीर से घायल बिहार का, जिसमें बिहार में भ्रष्टाचार, घोटाला, अशिक्षा, बेरोजगारी, ठप विकास तथा गिरती कानून व्यवस्था की चर्चा की गई थी। किसी में दो हजार बीस नीतीश कुमार फिनिश लिखा दिखा, तो किसी पोस्टर में सवाल उठाया गया कि बिल्लियां कब से दूध की पहरेदारी करने लगीं? कांग्रेस का भी एक पोस्टर सामने आया। उम्मीद है कि अभी और भी पोस्टर सामने आएंगे, लेकिन पोस्टरों के अलावा अब मैदानी लड़ाई का दौर भी जल्द शुरू होता दिखाई देगा, जिसकी तैयारी में सब जुट गए हैं। किसकी रणनीति क्या होगी, कौन किस तरह से किसे घेरेगा, कौन किसके साथ रहेगा और कौन अलग सुर बघारेगा। एक-एक कर यह सब सामने आएगा। इंतजार करिए और देखिए आगे-आगे होता है क्या?

[स्थानीय संपादक, बिहार]