[अभिषेक कुमार सिंह]। Delhi anaj mandi Fire: देश की राजधानी दिल्ली के फिल्मिस्तान इलाके में स्थित अनाजमंडी में बैग और खिलौना आदि बनाने वाली अवैध फैक्ट्री में जान गंवाने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के दर्जनों मजदूरों के परिवार बेशक ये सवाल सरकार और संबंधित एजेंसियों से पूछेंगे कि इस हादसे में जान गंवाने वाले उनके परिजनों का आखिर कसूर क्या था? पर तय है कि ये जवाब तब तक नहीं मिलेंगे, जब तक कि सरकारें और योजनाकार अनियोजित विकास और आग को साधने वाले उपायों की अनदेखी जैसे मुद्दों पर कोई गंभीरता नहीं दिखाएंगे। इन मामलों पर बरती जा रही सतत लापरवाही का ही परिणाम है कि कभी बवाना इंडस्ट्रियल इलाके में फैक्ट्रियां धू-धूकर जलने लगती हैं तो कभी, मायापुरी, नारायणा, पीरागढ़ी या नोएडा के औद्योगिक इलाके में अग्निकांड दर्जनों मौतों की वजह बन जाते हैं।

दिल्ली की अनाजमंडी के इस भीषण अग्निकांड के पीछे ऐसा कोई नया कारण नहीं था, जो पहले के हादसों में नजर नहीं आया था और अगर उनसे सबक लिया गया होता, तो उसकी रोकथाम नहीं हो सकती थी। संबंधित एजेंसियों के अधिकारियों से मिलीभगत कर नियमों की अनदेखी किया जाना, राजनीतिक फायदे के लिए अनियोजित विकास की तरफ से आंखें मूंदें रखना और हर हादसे के बाद सिर्फ मुआवजा बांटकर निश्चित हो जाना- ये ऐसे कारण हैं जो अगर आगे भी अनुत्तरित रहे तो तय है कि रोजगार देने वाले शहरों में ऐसे अग्निकांडों की रोकथाम शायद ही कभी होगी। वरना ऐसी क्या वजह है कि आग लगने के पीछे जो कारण अनवरत हादसों में साफ हो चुके हैं, उनकी पुनरावृत्ति पर कोई लगाम नहीं लग पा रही है।

अनाजमंडी में हुए हादसे की मूल वजह भले ही शॉर्ट सर्किट होना बताई जा रही है, पर दर्जनों मौतें साबित कर रही हैं कि शॉर्ट सर्किट से ज्यादा बड़ी वजह यह है कि यह अवैध फैक्ट्री ऐसी तंग गलियों में है, जहां फायर ब्रिगेड का पहुंचना तकरीबन नामुमकिन था। एक रिहाइशी इलाके की संकरी गली में प्लास्टिक और अन्य ज्वलनशील सामानों से घिरी चार मंजिला अवैध फैक्ट्री में आग लगना भले ही एक दुर्योग हो, पर इससे बड़ा दुर्योग यह है कि प्रशासन और सरकारी अमले को इस रिहाइशी इलाके में ऐसी फैक्ट्री का मौजूद होना नजर नहीं आया। अगर मान लें कि इस फैक्ट्री की जानकारी प्रशासन को थी, तो दूसरे कई सवाल उठते हैं। जैसे आखिर इसके संचालन का कोई लाइसेंस इसे कैसे मिला होगा और क्या इस फैक्ट्री के पास आग से बचाव के उपायों से संबंधित अनापत्ति प्रमाणपत्र (फायर एनओसी) था? अतीत में कई ऐसे हादसों ने ऐसे ही कई उदाहरण हमारे सामने रखे हैं।

पिछले ही वर्ष यानी 2018 की शुरुआत में दिल्ली के बवाना इलाके में जिस पटाखा फैक्ट्री में आग लगी थी, उसे पटाखे बनाने का लाइसेंस मिलना लंबे समय तक रहस्य बना रहा। मसला यह था कि जिस फैक्ट्री में हादसा हुआ था, उसके अलॉटमेंट के समय बताया गया था कि वहां 100 मीटर के इलाके में प्लास्टिक के सामान का काम किया जाएगा। हालांकि आग लगने का मुख्य कारण वे पटाखे थे, जिन्हें वहां बनाया जा रहा था। यानी फैक्ट्री में पटाखे अवैध रूप से बनाए जा रहे थे। इस फैक्ट्री को लाइसेंस देने का मामला हादसे के बाद तब उलझ गया था, जब एमसीडी ने कहा कि लाइसेंस उसकी ओर से जारी नहीं किया गया था। इसी तरह दिल्ली स्टेट इंडस्ट्रियल एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (डीएसआइआइडीसी) ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थे कि उसके पास तो फैक्ट्रियों के लाइसेंस जारी करने की शक्ति (पावर) ही नहीं है।

डीएसआइआइडीसी ने बवाना हादसे पर जो अपनी प्राथमिक रिपोर्ट दिल्ली सरकार को सौंपी थी, उसमें साफ कहा गया कि डीएसआइआइडीसी के पास किसी भी तरह की रेगुलेटरी पावर नहीं है। उसे फैक्ट्री बिल्डिंग्स या उनके कंस्ट्रक्शन के लिए लाइसेंस या परमिट जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। लाइसेंसिंग के नियम का जिक्र करते हुए रिपोर्ट में कहा गया था कि बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन और फैक्ट्री लाइसेंस जारी करने का अधिकार डीएमसी एक्ट के तहत एमसीडी के पास है।

इस एक्ट के तहत स्वीकृत लेआउट योजना के अनुसार एमसीडी किसी भी के निर्माण की जांच कर सकती है और अगर कहीं नियमों का पालन नहीं हो रहा है, तो एमसीडी उस परिसर को खाली भी करवा सकती है। यही नहीं, अगर किसी फैक्ट्री में आग लगने की आशंका है, तो एमसीडी कमिश्नर लिखित आदेश जारी कर उस फैक्ट्री को खाली या बंद करवा सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, लाइसेंसिंग पॉलिसी 2017 में लिखा है कि डीएमसी एक्ट के सेक्शन 416 और 417 के तहत एमसीडी ही फैक्ट्री लाइसेंस जारी करती है। इमारत के उन सभी फ्लोर्स के लिए एमसीडी से लाइसेंस लेना जरूरी है, जहां वाणिज्यिक गतिविधि की जानी है। इससे लगता है कि एमसीडी की ओर से बवाना ही नहीं, अनाजमंडी और तमाम अन्य मामले में हमेशा अनदेखी की जाती रही है।

ध्यान रहे कि देश के किसी भी हिस्से में कोई फैक्ट्री अग्निशमन विभाग की तरफ से मिले नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी) के बिना नहीं चल सकती। यह एनसीओ भी उन्हें सीधे नहीं मिलती। मिसाल के तौर पर दिल्ली में अग्निशमन विभाग को जब एमसीडी, एनडीएमसी या अन्य संबंधित एजेंसियों से इसका आवदेन मिलता है, तो वे उन फैक्ट्रियों या संस्थानों की इमारतों में जाते हैं और जांच करने के बाद संतुष्ट होने पर एनओसी जारी करते हैं। लेकिन इस प्राविधान की खुलेआम अनदेखी होती है।

आरोप है कि इन संबंधित विभागों के कर्मचारियों को पता भी रहता है कि किस फैक्ट्री में कौन सा काम हो रहा है, लेकिन मिलीभगत कर सारी धांधलेबाजी की ओर से आंखें मूंद ली जाती हैं। उल्लेखनीय है कि दिल्ली के सबसे बड़े औद्योगिक इलाके बवाना और नरेला में 18 हजार से ज्यादा फैक्ट्रियों को ढाई-तीन वर्ष पहले अग्निशमन विभाग की ओर से फायर सेफ्टी नोटिस मिले थे, लेकिन राजनीतिक दखलंदाजी और कर्मचारियों-अधिकारियों की साठ-गांठ से मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इसके बाद फरवरी 2017 में नरेला और बवाना की लगभग सभी फैक्ट्रियों को एकतरफा फायर सेफ्टी नोटिस जारी किए गए थे। तब उद्योग मंत्री की मध्यस्थता में फैक्ट्री मालिकों को तीन महीने की मोहलत भी दिलाई गई थी, तब भी शुरुआत में सिर्फ 20 फीसद फैक्ट्री मालिक ही एनओसी ले पाए थे।

साफ है कि जब तक आग की भयावहता को इस कदर ठंडे रुख से लैस लापरवाही के साथ देखा जाता रहेगा, तब तक रोजगार देने वाले शहरों के रिहाइशी और औद्योगिक इलाकों में भी यदा-कदा भड़कने वाली आग पर कोई अंकुश नहीं लग पाएगा। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि ऐसे ज्यादातर अग्निकांडों में जान गंवाने वाले लोगों का संबंध उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों के गरीब और वंचित तबकों से होता है। जब उनकी सुनवाई इन कारणों पर ही नहीं हो रही है कि रोजगार के लिए उन्हें इस तरह पलायन कर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अनजान शहरों में क्यों जाना पड़ रहा है, तो हादसों में मुआवजा पाने के सिवा उनके परिवार और क्या आवाज उठा पाएंगे।

[एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]

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