विवेक ओझा। यह सर्वविदित है कि दवा निर्माण के लिए कच्चे माल के मामले में भारत विदेश पर निर्भर है। कोरोना संक्रमण काल में इसने कई तरह की नई समस्याओं को भी पैदा किया है। दरअसल कुछ वर्ष पहले चीन ने रेयर अर्थ मेटल जिस पर दुनिया के ग्रीन तकनीक का भविष्य निर्भर करता है, उसका वैश्विक निर्यात मनमाने तरीके से रोक दिया था। चूंकि दुनिया के रेयर अर्थ मेटल का सबसे बड़ा उत्पादक व निर्यातक चीन ही है, इसलिए उसने अपनी इस स्थिति का लाभ उठाया था। बात जब वैश्विक स्तर पर मुक्त व्यापार को बाधा पहुंचाने के नाम पर विश्व व्यापार संगठन में पहुंची और उसने चीन को ऐसा संरक्षणवादी आचरण करने से मना किया तो चीन ने विश्व व्यापार संगठन की बात को भी ठुकरा दिया।

यह उदाहरण सिद्ध करता है कि ग्लोबल सप्लाई चेन में राज करने वाले देश ऐसा कर विश्व समुदाय से सौदेबाजी करने से नहीं चूकते। डिस्प्रोसियम और र्टिबयम जैसे रेयर अर्थ मेटल के जरिये चीन रक्षा, तकनीक और इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री के आपूर्ति मामले में राज करता है, वहीं नीयोडिमियम और प्रेसियोडीमियम जैसे रेयर अर्थ मेटल जो मोटर्स, टरबाइन और मेडिकल डिवाइस बनाने के काम आते हैं, उनकी आपूर्ति प्रणाली पर भी चीन का नियंत्रण है।

ऐसा ही हाल एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंग्रेडिएंट्स यानी एपीआइ के मामले में भी है, जहां चीन का वैश्विक दबदबा बरकरार है। एपीआइ को ही बल्क ड्रग्स के नाम से भी जानते हैं। अगर भारत के एपीआइ के कुल आयात की बात करें तो अमेरिका से चार प्रतिशत, इटली से तीन प्रतिशत, सिंगापुर और हांगकांग से दो-दो प्रतिशत आयात करता है। वहीं चीन पर अपने करीब 70 प्रतिशत एपीआइ आयात के लिए भारत निर्भर है। ये तब है जब मात्रा की दृष्टि से भारत विश्व के कुल जेनेरिक (सस्ते) मेडिसिन में 20 प्रतिशत का योगदान करता है और विभिन्न वैक्सीन की वैश्विक मांग की 60 प्रतिशत से अधिक की आपूर्ति करता है। भारत विश्व भर में बड़े पैमाने पर एंटीरेट्रोवायरल ड्रग्स की भी आपूर्ति करता है। ब्रिटेन की 25 प्रतिशत दवाइयों की मांग को पूरा करता है। अमेरिका में उपयोग में लाई जाने वाली तीन पिल्स में से एक भारत से ही भेजी गई होती है। इन सबके बावजूद भारत का एपीआइ आयात लगातार बढ़ता रहा है। वर्ष 2012 से 2019 के बीच यह 8.3 प्रतिशत के कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट के साथ बढ़ा है। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत 15 अति आवश्यक दवाइयों के कच्चे माल के लिए चीन पर अति निर्भर है।

विश्व में तीसरा सबसे बड़ा उद्योग: भारत का फार्मास्युटिकल उद्योग मात्रा की दृष्टि से विश्व में तीसरा सबसे बड़ा और मूल्यात्मक दृष्टि से 14वां सबसे बड़ा उद्योग है। भारत ने वित्तीय वर्ष 2018-19 में 1438.9 करोड डॉलर मूल्य की दवाओं का निर्यात किया और इसी वित्तीय वर्ष में 356 करोड़ डॉलर मूल्य के बल्क ड्रग्स का आयात किया जिसमें चीन से 240 करोड़ डॉलर मूल्य का आयात शामिल था। इस मामले में चीन से इस अवधि में किया गया आयात कुल आयात का 67.5 प्रतिशत था। चीन से बल्क ड्रग यानी एपीआइ आयात करने की प्रमुख वजह कम कीमत है। वहां से आने वाली बल्क ड्रग की कीमत दूसरे देशों को तुलना में 30 से 35 प्रतिशत कम होती है (इसमें भारत भी शामिल है) और एंटीबायोटिक या कैंसर के इलाज की दवाओं के मामले में तो भारत चीन पर ज्यादा निर्भर है। डायबिटीज, ब्लड-प्रेशर, थायराइड, गठिया, वायरल इंफेक्शंस आदि के लिए कच्चा माल या फिर कई प्रकार के र्सिजकल औजार और मेडिकल मशीनें, चीन से भारत आयात होने वाले फार्मा उत्पादों की सूची लंबी है।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में पेनसिलिन और ऐजिथ्रोमायसीन जैसी एंटीबायोटिक्स के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली 80 प्रतिशत बल्क ड्रग या कच्चे माल का आयात चीन से होता है। जेजियांग, गुआंगडांग, शंघाई, जियांगसू, हेबेयी, निंगशिया, हारबिन जैसे कुछ चीनी प्रांत हैं जहां से दवाओं को बनाने वाली बल्क ड्रग्स भारत आयात करता है और जब वर्ष 2019 के आखिर में चीन के वुहान प्रांत से कोरोना वायरस के संक्रमण और फिर लॉकडाउन की खबरें आनी शुरू हुईं तो भारतीय फार्मा क्षेत्र में भी हड़कंप मच गया था, क्योंकि बिना बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात के जेनेरिक दवाओं का उत्पादन भी संभव नहीं। गौरतलब है कि लुपिन, सन फार्मा, ग्लेनमार्क, मैनकाइंड, डॉ. रेड्डी और टोरेंट जैसी कंपनियां अपने एपीआइ सप्लाई के लिए चीन पर ही निर्भर हैं। भारत में प्रमुख सामग्रियों की कम उपलब्धता ने फार्मास्युटिकल सेक्टर की कमजोरी को उजागर किया है। महामारी ने इस तथ्य का पर्दाफाश कर दिया कि जरूरी मेडिकल उपकरणों के लिए भारत आयात पर निर्भर है। सप्लाई में अनियमितता की वजह से न केवल कुछ दवाओं की घरेलू कीमत आसमान पर पहुंच गई, बल्कि निर्यात पर पाबंदी की वजह से विदेशी व्यापार पर भी असर पड़ा।

एपीआइ आयात पर निर्भरता की कमी के लिए केंद्र सरकार सतर्क हुई है। भारत सरकार के फार्मास्युटिकल्स विभाग ने चीन से उत्पन्न हुए कोरोना वायरस के मद्देनजर देश में ड्रग सुरक्षा के मुद्दे को सुलझाने के लिए डॉ. ईश्वर रेड्डी कमिटी का गठन किया था जिसकी सिफारिशों के आधार पर भारत सरकार के फार्मास्युटिकल्स विभाग ने नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी, ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया और राज्य सरकारों को बाजार में वहनीय कीमत पर एपीआइ और अन्य फार्मूलेशन्स की पर्याप्त आर्पूित को सुनिश्चित करने का निर्देश जारी किया था, ताकि इस संबंध में कालाबाजारी, अवैधानिक रूप से एपीआइ को जमा करना और देश में इसकी कृत्रिम कमी को रोका जा सक

एपीआइ का उत्पादन बढ़ाने को मिले प्रोत्साहन: केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री ने पिछले वर्ष प्रस्तावित बल्क ड्रग्स और चिकित्सा उपकरण पार्क के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा के लिए फार्मास्युटिकल्स विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक की थी। देश भर में तीन बल्क ड्रग पार्क और चार चिकित्सा उपकरण पार्क के प्रस्तावित विकास के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा करने के लिए यह बैठक की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण और दवा सुरक्षा को मजबूत बनाने पर जोर दिया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आयात पर निर्भरता को कम करने तथा स्थानीय विनिर्माण और रोजगार को बढ़ावा देने के लिए 21 मार्च, 2020 को तीन बल्क ड्रग्स पार्क और चार चिकित्सा उपकरण पार्क के विकास से संबंधित योजनाओं को मंजूरी दी थी। इस योजना को प्रोत्साहन देने के तहत भारत सरकार ने तीन बल्क ड्रग पार्क में से प्रत्येक के लिए अधिकतम एक हजार करोड़ रुपये या साझा ढांचागत संरचना सुविधाओं के निर्माण की परियोजना लागत का लगभग 70 फीसद (पर्वतीय राज्यों और पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों के मामले में 90 प्रतिशत), इनमें जो भी कम हो, एकमुश्त अनुदान के रूप में देगी।

इसके अलावा, सरकार ने वर्ष 2020-21 से 2027-28 तक की योजना अवधि के दौरान 6,940 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ देश में 53 चिन्हित महत्वपूर्ण केएसएम/ ड्रग इंटरमीडिएट और एपीआइ के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआइ) योजना को भी मंजूरी दी है। इसी प्रकार, चिकित्सा उपकरण पार्क को प्रोत्साहन देने के लिए भारत सरकार चार चिकित्सा उपकरण पार्क में से प्रत्येक के लिए अधिकतम सौ करोड़ रुपये या साझा ढांचागत संरचना सुविधाओं के निर्माण की परियोजना लागत का 70 प्रतिशत (पर्वतीय और पूर्वोत्तर के मामले में 90 प्रतिशत), या फिर इनमें जो भी कम हो, एकमुश्त अनुदान के रूप में देगी। इसके अलावा, सरकार ने 2020-21 से 2025-26 तक 3,420 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ देश में चिकित्सा उपकरणों के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना को भी मंजूरी दी है।

वहीं केंद्र सरकार ने बीते दिनों बल्क ड्रग पार्क की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिए भी एक योजना अधिसूचित की है। इसके तहत चुनिंदा पार्क के लिए सामान्य बुनियादी ढांचा सुविधाओं की 70 फीसद परियोजना लागत तक वित्तीय मदद देने का प्रविधान है। जबकि पूर्वोत्तर और पहाड़ी इलाकों के लिए 90 फीसद तक परियोजना लागत की वित्तीय मदद मुहैया कराई जाएगी। इस योजना के तहत एक बल्क ड्रग पार्क के लिए अधिकतम सहायता एक हजार करोड़ रुपये तक होगी। इस योजना के लिए कुल वित्तीय परिव्यय तीन हजार करोड़ रुपये है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 में वीएम कटोच की अध्यक्षता में इस विषय पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई गई थी। इस समिति ने एक्सक्लूसिव पार्कों की स्थापना जैसे कई सुझाव दिए थे। इस बारे में साल 2017 में एक ड्राफ्ट पॉलिसी भी बनी, लेकिन उसके बाद इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई।

एपीआइ उत्पादन में चुनौतियां : भारत में एपीआइ इंडस्ट्री को प्रदूषण के सख्त मानकों से भी गुजरना पड़ता है। एपीआइ को देश की 18 सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक माना जाता है। इस वजह से भारतीय फार्मा इंडस्ट्री चीन से सस्ता एपीआइ आयात करना ज्यादा मुनासिब समझती है। इसके अलावा भारतीय दवा उद्योग शोध एवं विकास पर बहुत ज्यादा खर्च करने में दिलचस्पी नहीं लेता है। दूसरी ओर भारत का विनिर्माण क्षेत्र चीन के मुकाबले प्रतिस्पर्धी नहीं है। सस्ती बिजली, सस्ती जमीन, सस्ते लेबर आदि की बदौलत चीनी उद्योग एपीआइ उत्पादों में छा गया और उसने अपने एपीआइ की भारत में डंपिंग शुरू कर दी। चीन की बेहद सस्ती एपीआइ की वजह से भारत में घरेलू एपीआइ उत्पादन करने वाले प्लांट बंद हो गए। भारतीय कंपनियां धीरे-धीरे एपीआइ के उत्पादन से पीछे हटने लगीं, क्योंकि इसमें पूंजी का निवेश ज्यादा मुनाफा नहीं दे रहा था। भारत में एपीआइ की लागत ज्यादा होने के कई कारण हैं जिनमें महंगी तकनीक और इसके उत्पादन के लिए बुनियादी ढांचे की जरूरत शामिल हैं।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]