[ संजय गुप्त ]: इस फैसले की प्रतीक्षा पूरा देश दशकों से नहीं, बल्कि सदियों से कर रहा था वह आखिरकार उच्चतम न्यायालय की ओर से सुना दिया गया। यह सचमुच एक नए इतिहास का निर्माण करने वाला फैसला है। यह नया इतिहास लिखने की जिम्मेदारी भारत के सभी लोगों की है। इस जिम्मेदारी का निर्वाह न्याय के प्रति सम्मान भाव प्रकट करने से ही हो सकेगा।

जस्टिस गोगोई की पीठ ने लिखा नया अध्याय

भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अयोध्या मामले का पटाक्षेप कर एक नया अध्याय लिखने का काम किया है। इसीलिए उसका फैसला मील का पत्थर है। इस फैसले के लिए संविधान पीठ को भी बधाई दी जानी चाहिए। अपने इस ऐतिहासिक निर्णय में देश की शीर्ष अदालत ने विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के पक्ष में आदेश दिया। इसके साथ ही उसने मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए अयोध्या में ही किसी स्थान पर पांच एकड़ जमीन आवंटित करने का भी निर्देश दिया।

कोर्ट ने ट्रस्ट बनाकर मंदिर निर्माण के लिए कार्ययोजना तैयार करने को कहा

उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को इसका जिम्मा सौंपा है कि वह तीन महीनों में एक ट्रस्ट बनाकर मंदिर निर्माण के लिए उचित कार्ययोजना तैयार करे। इस निर्णय ने हिंदू समाज की आशा पूरी कर उसे उत्साहित किया है, लेकिन उसे उत्साह के स्थान पर संतोष भाव प्रदर्शित करना चाहिए। उसे सामाजिक सद्भाव की न केवल चिंता करनी होगी, बल्कि उसे हर हाल में बनाए रखना होगा। उत्साह या असहमति के चलते ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जिससे देश का माहौल बिगड़े। वास्तव में यह सभी का दायित्व है कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि देश का सामाजिक तानाबाना सुरक्षित रहे। यह इसलिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए, क्योंकि राम सबके हैैं और सबका कल्याण ही उनके जीवन का ध्येय था। इसी के लिए वह जाने जाते थे और इसीलिए सबके मन में बसे थे।

अयोध्या विवाद को कुछ पैरोकारों ने वोट बैैंक आधारित राजनीति का प्रश्न बना दिया था

स्वतंत्रता के पहले की तरह स्वतंत्रता के बाद भी अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश हुई, लेकिन वह सफल नहीं हुई। सदियों पुराना अयोध्या विवाद समय के साथ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद के रूप में तब्दील हो गया और उससे सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुंची। यह क्षति इसलिए पहुंची कि अयोध्या में मंदिर-मस्जिद के कुछ पैरोकारों ने इस विवाद को वोट बैैंक आधारित राजनीति का प्रश्न बना दिया।

विवाद को आपसी बातचीत से सुलझाने की कोशिश नहीं हुई

विडंबना यह रही कि उन्होंने इस विवाद को आपसी बातचीत और सहमति से सुलझाने की कोशिश ईमानदारी से नहीं की। वास्तव में इसीलिए यह विवाद लंबे समय तक उलझा रहा। 1992 में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद इस विवाद को नए सिरे से सुलझाने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन वह भी सही तरह से आगे नहीं बढ़ सकी। नि:संदेह अयोध्या के विवादित ढांचे को जिस तरह गिराया गया वह ठीक नहीं था। इस ध्वंस से मुसलमान आक्रोशित हुए। यह आक्रोश इसलिए उपजा, क्योंकि मळ्स्लिम समाज को यह बताकर गळ्मराह किया गया कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर की जगह नहीं बनाई गई थी। इसीलिए यह जिद सही नहीं थी कि जहां पर ढांचा था वहीं पर मस्जिद बने। इस जिद का इसलिए भी कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि इस्लामी मान्यताएं यही कहती हैैं कि झगड़े की जमीन पर बनी मस्जिद पर नमाज मंजूर नहीं होती।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला किसी पक्ष ने स्वीकार नहीं किया

2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इस विवाद पर अपना फैसला सुनाया तो उसे किसी पक्ष ने स्वीकार नहीं किया। वास्तव में इस फैसले से किसी का भी भला नहीं हो रहा था। विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने किसी पक्ष को संतुष्टि नहीं प्रदान की थी, लेकिन इस फैसले ने विवाद सुलझाने की आधारशिला रखी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ ने विवादित स्थल का उत्खनन कर जो साक्ष्य जुटाए उन्होंने यह साबित किया कि मस्जिद का निर्माण खाली जमीन पर नहीं किया गया और वहां मंदिर के अवशेष मिले। ये साक्ष्य इस मान्यता के अनुरूप थे कि विवादित स्थल पर राम मंदिर था, जिसके स्थान पर बाबर के सेनापति ने जबरन मस्जिद का निर्माण कराया।

एएसआइ की रपट को अनदेखी की गई

एएसआइ के उत्खनन अभियान का हिस्सा रहे केके मुहम्मद ने बार-बार यह कहा कि विवादित स्थल पर प्राचीन मंदिर होने के प्रमाण मिले थे, लेकिन उनकी अनदेखी की गई। इतना ही नहीं एएसआइ की रपट को खारिज करने की भी कोशिश की गई। ऐसा नहीं किया जाता तो शायद विवाद पहले ही सुलझ जाता।

अयोध्या राम के नाम से ही दुनिया भर में अपनी पहचान रखती है

इसमें किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ। चूंकि अयोध्या राम के नाम से ही दुनिया भर में अपनी पहचान रखती है इसलिए ऐसे तर्क उकसाने वाले ही थे कि इसके क्या प्रमाण कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ? अफसोस यह रहा कि देश के तमाम इतिहासकार और राजनेता एक लंबे अर्से तक यह दावा करते रहे कि अयोध्या में राम मंदिर पर हिंदू समाज का कोई दावा नहीं बनता। इस दावे को खारिज करने के लिए तमाम मनगढंत बातें कही गईं।

सुप्रीम कोर्ट में भी राम मंदिर के विरोध में थोथी दलीलें पेश हुईं

उच्चतम न्यायालय में 40 दिन की सुनवाई के दौरान भी कुछ पैरोकार राम मंदिर के विरोध में थोथी दलीलें देते रहे। वे जोर दे रहे थे कि यहां मंदिर का निर्माण नहीं होना चाहिए था। चूंकि उनके तर्क बेतुके और हास्यास्पद थे इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों के आधार पर हिंदू पक्ष का दावा सही पाया

अब जब उच्चतम न्यायालय ने आस्था नहीं, बल्कि साक्ष्यों के आधार पर यह पाया कि अयोध्या के विवादित स्थल पर हिंदू पक्ष का दावा सही साबित होता है तब फिर सभी को उसके फैसले को स्वीकार करना चाहिए। यह ठीक नहीं कि जब करीब-करीब सभी राजनीतिक दल और यहां तक कि सुन्नी वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर रहा है तब फिर ओवैसी जैसे नेताओं को कोई बखेड़ा करने से बचना चाहिए।

इस फैसले को हिंदुओं की ओर से जीत के तौर पर नहीं देखा जा रहा

यह स्वागतयोग्य है कि चंद लोगों और वह भी ओवैसी जैसे सांप्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं को छोड़कर आम मुस्लिम समाज इस फैसले को स्वीकार करता दिख रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदुओं की ओर से भी इस फैसले को जीत के तौर पर नहीं देखा जा रहा है। यही सही तरीका है।

अब अयोध्या विवाद को लेकर हो रही राजनीति का पटाक्षेप हो

यह समय आगे बढ़ने का और सद्भाव को पुष्ट करने का है। अब कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के साथ अयोध्या विवाद को लेकर हो रही राजनीति का भी पटाक्षेप हो। केवल इतना ही नहीं, हिंदू-मुस्लिम समाज के बीच जो भी दूरियां हैैं उन्हें कम करने की कोशिश हो। यह कोशिश दोनों ही पक्षों की ओर से होनी चाहिए। ऐसा करते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का आदर किया जाना चाहिए, क्योंकि यही भारतीय परंपरा है और इससे ही देश आगे बढ़ेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]