[रशीद किदवई]। कांग्रेस के इतिहास में 28 नवंबर, 2019 का दिन बहुत अहम बन गया है। इस दिन कांग्रेस महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा बन गई। हालांकि मुंबई के शिवाजी पार्क में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में सोनिया एवं राहुल गांधी शामिल नहीं हुए, लेकिन अहमद पटेल, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, कमलनाथ जैसे प्रमुख नेता अगली पंक्ति में बैठे नजर आए। कांग्रेस द्वारा शिवसेना को समर्थन देने का निर्णय आसान नहीं था।

सोनिया गांधी, राहुल गांधी, एके एंटनी, मनमोहन सिंह, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सहित ज्यादातर नेता स्वाभाविक ही शिवसेना से किसी भी तरह के गठबंधन के खिलाफ थे, लेकिन कमलनाथ ने याद दिलाया कि 1979- 80 में जब कांग्रेस सत्ता से वंचित हो चुकी थी तब पार्टी ने एक व्यावहारिक निर्णय करते हुए अपने धुर विरोधी बालासाहब ठाकरे की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। बालासाहब ने न सिर्फ आपातकाल का समर्थन किया, बल्कि ‘नसबंदी’ को लेकर संजय गांधी के जुनून की प्रशंसा भी की थी। कांग्रेस में इस पर भी मंथन हुआ कि शिवसेना शुरू से ही उग्र राष्ट्रवाद की झंडाबरदार रही है, लेकिन वह जनसंघ, बजरंग दल या विश्व हिंदू परिषद की तरह आरएसएस का आनुषंगिक संगठन नहीं है।

शिवसेना से गठबंधन का विरोध कर रहे कांग्रेसी नेता हुए नरम

कमलनाथ के प्रयासों को तब बल मिला जब महाराष्ट्र कांग्रेस के कई नेता जैसे पृथ्वीराज चव्हाण, अशोक चव्हाण और बालासाहब थोराट ने कांग्रेस के कई जमीनी मुस्लिम कार्यकर्ताओं की सोनिया से बातचीत कराई। वे सब शिवसेना के साथ गठबंधन के पक्ष में थे। यह देख शिवसेना से गठबंधन का विरोध कर रहे भूपेश बघेल, जयराम रमेश और अहमद पटेल के सुर नरम पड़े और यह तय हुआ कि शिवसेना के साथ कांग्रेस का गठबंधन केवल न्यूनतम साझा कार्यक्रम की हद तक सीमित रहेगा और उद्धव ठाकरे सरकार इस पर अडिग रहेगी। इसके साथ ही तय हुआ कि सरकार में शामिल कांग्रेस, शिवसेना एवं शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा अपनी राजनीतिक विचारधारा पर कायम रहकर स्वतंत्र रूप से कार्य करती रहेंगी।

राजनीतिक रूप से देखें तो सोनिया ने इस तरह एक तीर से कई निशाने साध लिए। भाजपा वैचारिक रूप से कांग्रेस की दुविधा और पवार की बार-बार रंग बदलने वाली प्रकृति पर तीखे हमले करती रही, लेकिन इसके बावजूद सोनिया गांधी ने लक्ष्य पर नजरें जमाए रखीं और हर पक्ष से चर्चा की। उदार वामपंथी इसके विरुद्ध दबाव बनाते रहे, जबकि गठबंधन समर्थक इस बाबत शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता बताते रहे। आखिरकार सोनिया की चिर परिचित ज्यादा-से-ज्यादा विचार-विमर्श की शैली काम आई और सारे लोग एक छत के नीचे जमा हो गए।

तीनों पार्टियों का गठबंधन राहुल गांधी के लिए है सबक

सोनिया की यह कार्यशैली निश्चित ही राहुल गांधी के लिए महत्वपूर्ण सबक है। कांग्रेस के भीतर इस पर सभी एकमत हैं कि अगर सोनिया की जगह राहुल होते तो शिवसेना के साथ गठबंधन का यह निर्णय नहीं हो पाता और महाराष्ट्र में कांग्रेस के विधायक इधर-उधर भाग जाते। आम धारणा के विपरीत कांग्रेस खुद को एक हिंदू समर्थक पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रही है। 1980 में इंदिरा गांधी को जब दोबारा सत्ता हासिल हुई तो उन्होंने विश्व हिंदू परिषद की ‘एकात्मता यात्रा’ का निमंत्रण स्वीकार कर बहुसंख्यक समुदाय में पैर जमाने के जतन किए। नौकरशाह एसएस गिल ने महसूस किया कि 1980 के बाद इंदिरा ने मुसलमानों की अनदेखी शुरू कर दी थी।

हिंदू संस्कृति एवं कांग्रेस संस्कृति की धारा

अपनी किताब ‘द डायनास्टी-अ पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ द प्रीमियर रूलिंग फैमिली ऑफ मॉडर्न इंडिया’ में वह लिखते हैं कि कैसे इंदिरा के विश्वासपात्र सीएम स्टीफन ने 1983 में यह घोषणा की कि ‘हिंदू संस्कृति एवं कांग्रेस संस्कृति की धारा एक ही है।’ अपनी हत्या से कोई छह माह पहले इंदिरा गांधी ने बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को विश्वास दिलाने के लिए कहा था कि ‘अगर उनके साथ कोई अन्याय होता है या उन्हें अपने अधिकार नहीं मिलते हैं तो यह देश की अखंडता के लिए घातक होगा।’ तब कांग्रेस के विचारक वीएन गाडगिल कहते थे कि ‘मुसलमानों के वोट महज 18 प्रतिशत हैं। अगर वे सभी मिलकर कांग्रेस को वोट दे दें तो भी पार्टी सत्ता हासिल नहीं कर सकती। इसीलिए हम बाकी 82 प्रतिशत लोगों की भावनाओं को अनदेखा नहीं कर सकते।’

राजीव गांधी ने रामराज्य लाने का किया था वादा

16 जनवरी, 1999 को सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस कार्यकारिणी ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा संबंधी जो प्रस्ताव पारित किया उसके मुताबिक ‘भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष है, क्योंकि यहां के हिंदू धर्मनिरपेक्ष हैं।’ 1989 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने अयोध्या जाकर सरयू के तट से चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत करते हुए रामराज्य लाने का वादा किया था। वैचारिक एवं ऐतिहासिक रूप से इस पुरानी पार्टी ने राष्ट्र के नेतृत्व को अपना ‘कर्तव्य’ मान रखा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के मात्र एक साल बाद 1948 में हुए कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में ही पट्टाभि सीतारमैया ने अपने कार्यकर्ताओं को यह ‘कर्तव्य’ समझाया था।

इसमें उन्होंने कांग्रेस एवं उसकी विचारधारा को पूरे देश की विचारधारा बताते हुए आग्रह किया था कि इस बाबत आमजन का समर्थन जुटाना चाहिए, जिससे कांग्रेस और सरकार अच्छे से काम कर सके, लेकिन राष्ट्र नेतृत्व के इस ‘कर्तव्य’ निर्वहन का चित्र 1998 में तब बदलने लगा जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने राजनीतिक साझेदारी के लिए औपचारिक रूप से सहमति प्रदान कर दी। हालांकि इसके बाद भी कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्तावों में इसे नकारा जाता रहा कि एक पार्टी की सत्ता के दिन लद गए।

2003 में कांग्रेस का शिमला अधिवेशन

पचमढ़ी चिंतन शिविर में कांग्रेस का आग्रह था कि वैचारिक, नीतिगत और राष्ट्र निर्माण के मामलों में पार्टी को क्षेत्रीय पार्टियों पर वरीयता प्राप्त है, जो स्थानीय जाति एवं भाषा आधारित मुद्दों से आगे नहीं निकल पातीं, लेकिन जुलाई 2003 में कांग्रेस के शिमला अधिवेशन में सोनिया ने पार्टी को राजद जैसी अपेक्षाकृत छोटी पार्टी के साथ सीटों के बंटवारे के लिए तैयार किया। 14 सूत्रीय ‘शिमला संकल्प’ में कहा गया कि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का सामना करने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी आपस में गठबंधन कर लेना चाहिए।

उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली मिली-जुली सरकार के लिए जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया है उसके लिखित अंग्रेजी प्रारूप में ‘सेक्युलर’ शब्द कई जगह मिलता है, लेकिन हिंदी एवं मराठी प्रारूप में कहीं भी धर्मनिरपेक्षता की बात नहीं की गई है। ऐसे में महा विकास अघाड़ी की यह सरकार न्यूनतम साझा कार्यक्रम से चिपकी भी रही तब भी आगे कई ऐसे मुद्दे आने वाले हैं जिन पर वैचारिक रूप से मतभेद हो सकते हैं। जैसे एनआरसी या राम मंदिर निर्माण का मसला। अघाड़ी के ये तीनों दल इनसे कैसे निपटते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन मेंविजिटिंग फैलो हैं)