[ क्षमा शर्मा ]: हिंदी फिल्म जगत के मसले चर्चा से बाहर होने का नाम नहीं ले रहे हैं। रह-रहकर भाई-भतीजावाद का मसला सतह पर आ जा रहा है। कुछ साल पहले कंगना रनोट ने कॉफी विद करन कार्यक्रम में करन जौहर से कहा था कि वह भाई-भतीजावाद के शिखर हैं। इसके कुछ दिन बाद लंदन के एक कार्यक्रम में करन जौहर और वरुण धवन ने मंच पर यह कहकर कंगना का मजाक उड़ाया कि कंगना तू इतना बोलती क्यों है? सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद जब कंगना ने फिर एक इंटरव्यू में भाई-भतीजावाद का मुद्दा उठाया तो पुरानी बहस नए सिरे से शुरू हो गई।

जब तक फिल्म अच्छी न हो, दर्शकों की भीड़ नहीं जुटती

बीते दिनों बॉलीवुड में नशाखोरी को लेकर रविकिशन और जया बच्चन के बयानों के बाद इस बहस ने और जोर पकड़ लिया है। यह बहस नई नहीं है, लेकिन इतना अवश्य है कि अब बहुत से स्टार-पुत्र-पुत्रियां यह कहने लगे हैं कि अगर उनके माता-पिता सेलिब्रिटी हैं तो यह उनके लिए गौरव की बात है और यदि उनके माता-पिता ने उन्हेंं लांच कर भी दिया तो कोई भी फिल्म उनके अभिनय और काम से ही सफल हो सकती है। दर्शक किसी स्टार के बेटे-बेटी होने के नाते फिल्म नहीं देखते। जब तक फिल्म अच्छी न हो, तब तक दर्शक उसे देखने नहीं आते हैं। इन दिनों किसी स्टार के नाम भर से कोई फिल्म नहीं चलती।

बड़े-बड़े प्रोडयूसर, डायरेक्टर अपने बच्चों को फिल्मी मैदान में उतारने लगे हैं

हालांकि अपने बाल-बच्चों को पृथ्वी राजकपूर, फिर राजकपूर, देवानंद, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, सलीम-जावेद, ऋषि कपूर से लेकर जैकी श्राफ, मिथुन चक्रवर्ती, महेश भट्ट, हेमा मालिनी, शर्मिला टैगोर, नूतन, तनूजा, सुनील शेट्टी, सनी देओल आदि ने फिल्मों में लांच किया है। अब तो बड़े-बड़े प्रोडयूसर, डायरेक्टर, फाइनेंसर, गीतकार, बड़ी फिल्मी कंपनियों के मालिक भी अपने-अपने बाल-बच्चों को फिल्मी मैदान में उतारने लगे हैं। बॉलीवुड वह दुनिया है, जिसमें सफलता के बाद नाम और दाम दोनों हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि अब किसी बाहरी के लिए कोई जगह नहीं बची। जो पहले कभी बाहरी थे, वे फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनने के बाद अब अपने बाल-बच्चों को आगे बढ़ा रहे हैं।

अब मॉडलिंग की दुनिया मशहूर अभिनेता-अभिनेत्रियों का प्रवेश हो चुका

एक समय में मॉडलिंग और फिल्मी दुनिया में काम करने वाले अलग-अलग हुआ करते थे, मगर अब मॉडलिंग की दुनिया भी मशहूर अभिनेता-अभिनेत्रियों के जबड़ों में समा चुकी है। अब मशहूर होने के लिए यह जरूरी माना जाने लगा है कि किसी अभिनेता-अभिनेत्री ने किन बड़े ब्रांडस का विज्ञापन किया।

हर क्षेत्र में भाई-भतीजावाद, लोकतंत्र के नाम पर सामंतशाही काबिज

भाई-भतीजावाद के बारे में बहस करते हुए बहुत से लोगों ने यह भी कहा है कि आखिर कौन-सा क्षेत्र ऐसा है, जिसमें भाई-भतीजावाद नहीं है? इन दिनों भारत में जो नेता परिदृश्य में नजर आते हैं उनमें से तमाम की दूसरी-तीसरी पीढ़ी मैदान में आ चुकी है। केंद्रीय दलों से लेकर विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में नेताओं के बच्चों का बोलबाला है। लोकतंत्र के नाम पर सामंतशाही हर तरफ काबिज है। जिस तरह राजा का बेटा राजा होता था, उसी तरह नेता का बेटा ही नेता बन रहा है। बाकी सब कार्यकर्ता भर होते हैं। एक बड़े मंडलवादी नेता ने कहा भी था कि अगर हम अपने बच्चों को आगे न बढ़ाएं तो क्या वे भीख मांगें?

फिल्मों से लेकर राजनीति तक लोग लड़कियों को भी आगे बढ़ा रहे हैं 

सिर्फ वामपंथी दल ऐसे हैं, जहां इस तरह की बीमारी अभी नहीं पहुंची है। इसके अलावा नीतीश कुमार जैसे नेता अपवाद हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को अपनी राजनीतिक विरासत नहीं सौंपी है। अब यह तर्क भी दिया जाने लगा है कि अगर डॉक्टर का बेटा डॉक्टर हो सकता है, सीए का बेटा सीए, उद्योगपति का बेटा उद्योगपति, दुकानदार का बेटा दुकानदार तो नेता का बेटा नेता और अभिनेता का बेटा अभिनेता क्यों नहीं हो सकता? इन दिनों तो फिल्मों से लेकर राजनीति तक लोग अपनी लड़कियों को भी आगे बढ़ा रहे हैं। आखिर क्यों न बढ़ाएं? उत्तराधिकार में लड़कियों का भी तो बराबर का हक है, लेकिन अब फिल्मी दुनिया में भाई-भतीजावाद की बहस चलते-चलते हुए यहां तक आ पहुंची है कि बड़ी फिल्मी पार्टियों में नए अभिनेता-अभिनेत्रियों को नहीं बुलाया जाता, क्योंकि उन्हेंं दोयम दर्जे का समझा जाता है। हालांकि यह कुछ जबर्दस्ती भी है।

दबाव के आधार पर नहीं, रुचि के अनुकूल फिल्मों में काम मिलता है

यह किसी आयोजक की मर्जी है कि वह अपनी पार्टी में किसे बुलाए और किसे न बुलाए। अपने परिवार में हुई शादियों और अन्य शुभ अवसरों की तरह ही आप अपने मित्र और परिचितों को ही निमंत्रित करते हैं। इस तरह की शिकायत करना एक तरह से दूसरे पर दबाव बनाना और निजी स्पेस में दखल देना भी है। यदि कोई फिल्म बना रहा है और अपने करोड़ों रुपये लगा रहा है तो यह उसकी रुचि का मामला माना जाना चाहिए कि वह किसे अपनी फिल्म में काम दे और किसे न दे। यह हमेशा ही ऐसा होगा कि एक फिल्म में कुछ को काम मिलेगा और बाकी सब शिकायत ही करते रहेंगे। जिस फिल्म में कोई अपना पैसा लगा रहा है और उसकी सफलता के लिए रात-दिन एक कर रहा है, उस पर इस तरह का दबाव डालना अनुचित है कि वह अपनी रुचि के अनुकूल नहीं, शिकायतों के आधार पर किसी को काम दे।

मणिकर्णिका की मुख्य भूमिका में कंगना ने खुद को ही रखा, संघर्षरत युवा-युवतियों को नहीं

कंगना ने भी अपना प्रोडक्शन हाउस खोला है। वह भी फिल्मों का निर्माण कर रही हैं। इसी तरह अनुष्का शर्मा भी। ये दोनों अभिनेत्रियां फिल्मी दुनिया की न होकर बाहरी ही हैं, लेकिन अपनी फिल्मों में चाहे अनुष्का की एन एच-10 हो या कंगना की मणिकर्णिका, मुख्य भूमिकाओं में इन्होंने खुद को ही रखा। यदि संघर्षरत युवा-युवतियों की इतनी ही चिंता थी तो उन्हेंं काम देना चाहिए था, न कि खुद को ही मुख्य भूमिका में रखना था। पुरानी कहावत है कि जिस बात की शिकायत हम दूसरों से करते हैं, अक्सर खुद वैसे ही हो जाते हैं।

( लेखिका साहित्यकार हैं )