[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: इन दिनों कई घटनाएं संभवत: संविधान के प्रति असम्मान का प्रदर्शन करने के लिए ही अंजाम दी जा रही हैं। इसी कड़ी में केरल विधानसभा ने नागरिकता कानून के विरोध में एक पहल की है। केरल विधानसभा को इतना तो ज्ञात होना ही चाहिए कि संविधान में संघ, राज्य तथा समवर्ती जैसी तीन सूचियां हैं। इनमें नागरिकता का विषय संघ सूची में आता है। ऐसे में नागरिकता के मामले में राज्य के पास कोई अधिकार ही नहीं है। ऐसी स्थिति में विधानसभा में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित करना क्या वैधानिक प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं है? केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने इसे एक वाक्य में स्पष्ट कर दिया कि ‘यह असंवैधानिक है।’

देश की राजनीति में मूल्यों का क्षरण

केरल के इस घटनाक्रम से कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र में नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में संवैधानिक गरिमा पर प्रहार होता दिखा। वहां शपथ लेने वाले मंत्रियों ने अपने राजनेताओं के नाम लेकर उनके प्रति अनुग्रह प्रकट कर शपथ विधि की प्रक्रिया पूरी की। यह देश की राजनीति में मूल्यों के क्षरण तथा उससे उपजे पतन की एक और मिसाल थी। यह संविधान का, उसे बनाने वालों मनीषियों का सार्वजनिक अपमान था। स्वाभाविक तौर पर महाराष्ट्र के राज्यपाल ने इस पर नाखुशी जाहिर की। उन्होंने समारोह में एक मंत्री को दोबारा शपथ लेने के लिए बाध्य किया। क्या देश के वरिष्ठ नेताओं को यह दिखाई नहीं देता कि यह तो उनकी वरिष्ठता का भी अपमान है।

संविधान के प्रति सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष को निष्पक्ष होकर सम्मान प्रकट करना चाहिए

भारत के प्रजातंत्र का इतिहास इस पतन के लिए उन्हें ही जिम्मेदार मानेगा। अभी भी समय है कि देश के बड़े राजनीतिक दल जनता के समक्ष स्पष्ट रूप से कहें कि वे सभी सामूहिक रूप से संविधान के इस प्रकार मखौल उड़ाए जाने की अनुमति नहीं देंगे। संविधान के प्रति सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष को निष्पक्ष होकर सम्मान प्रकट करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।

महाराष्ट्र और केरल के राज्यपालों ने जिस गरिमा एवं सूझबूझ का परिचय दिया, वह सराहनीय है

महाराष्ट्र और केरल में जो कुछ हुआ वह जनतंत्र की जड़ों पर आघात करता है। इसे हर हालत में रोका जाना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में दोनों राज्यों के राज्यपालों ने जिस गरिमा, समझ एवं सूझबूझ का परिचय दिया, वह सराहनीय है। यह एक बार फिर स्थापित करता है कि राज्यपाल का पद कितना महत्वपूर्ण तथा आवश्यक है।

पश्चिम बंगाल में राज्यपाल को विवि प्रांगण में जाने पर द्वार बंद मिलता है

पश्चिम बंगाल की तो बात ही निराली है। वहां विश्वविद्यालय के कुलाधिपति-राज्यपाल को प्रांगण में जाने पर द्वार बंद मिलता है। किसी जिले में जाने का कार्यक्रम बनाने पर जिला अधिकारी कहता है कि पहले राज्य सरकार की अनुमति लाएं। ऐसे माहौल में विद्यार्थियों का अशिष्ट हो जाना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या यह सब राष्ट्रहित में है? उससे ही जुड़ा प्रश्न है कि क्या यह व्यवहार नई पीढ़ी के हित में है?

एनआरसी, सीएए, एनपीआर के विरोध में हिंसा को रोकना उत्तरदायी विपक्ष का कर्तव्य था

एनआरसी, सीएए और एनपीआर को लेकर विरोध के स्वर उठना जनता में अनपेक्षित नहीं है, मगर बसों का जलाना, हिंसा भड़काना, रेलगाड़ियों को रोकना किस सभ्य समाज में स्वीकृत हैं? क्या एक उत्तरदायी विपक्ष का कर्तव्य इसे रोकना नहीं था? कहां गए वे प्रकांड बुद्धिजीवी जो देश में सेक्युलरिज्म के लिए केवल स्वयं को ही योग्य और जिम्मेदार मानते हैं? वे खुद दंगाइयों के पक्ष में खड़े हैं।

शास्त्री और गांधी को देखो जो सत्ता के शिखर पर पहुंचकर भी मूल्य आधारित राजनीति से नहीं डिगे

इस देश ने जिस मूल्य आधारित शासन व्यवस्था की अपेक्षा के साथ प्रजातंत्र में प्रवेश किया था, वह कहीं खो गया है। इस देश ने तमाम ऐसे लोगों को भी देखा है जो सत्ता के शिखर पर पहुंचकर भी मूल्य आधारित राजनीति से नहीं डिगे हैं। क्या कोई पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को भुला सकता है? वहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का ध्येय वाक्य ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ जीवनपर्यंत उन पर लागू रहा। वहीं देश ने उन नेताओं को भी देखा है जिन्होंने आर्थिक दृष्टि से अपने और अपने परिवार की संपन्नता के लिए नए शिखर छुए। जनता ने आपातकाल का अनुभव भी किया, अपनी तथा अपने मत की शक्ति को पहचाना और सत्ता को पारिवारिक अधिकार मानने वालों को धूल-धूसरित करने में कोई कोताही नहीं की।

सत्ता से बाहर हुए नेताओं की स्वार्थवश राजनीतिक पैंतरेबाजी को जनता ने भुलाया

इस समय जो कुछ देश में एनआरसी, सीएए और एनपीआर को लेकर हो रहा है, वह कुछ और नहीं, बल्कि सत्ता से बाहर हुए, अपनी स्थिति से निराश तथा असुरक्षित भविष्य की आशंका से डरे हुए लोगोंं का एक अंतिम प्रयास ही माना जा सकता है। वे यह क्यों नहीं याद करते हैं कि जनता संवैधानिक मूल्यों के प्रति उनके अनादर, जनता से कटे हुए, उनकी स्वार्थवश राजनीतिक पैंतरेबाजी को नहीं भूली है। अब ऐसा लगता है कि सत्ता से बाहर जाने पर नेताओं की आंख से शर्म भी कहीं न कहीं पूरी तरह तिरोहित हो जाती है।

देश के अति महत्वाकांक्षी और जनता द्वारा तिरस्कृत नेताओं की कमी नहीं

बीते दिनों सीएए के विरोध में कई जगह हिंसा फैली। उत्तर प्रदेश में भी कई स्थानों पर हिंसक वारदातें देखने को मिलीं। इसमें जान-माल का नुकसान भी हुआ। देश के अति महत्वाकांक्षी और जनता द्वारा तिरस्कृत नेताओं की राज्य में कोई कमी नहीं है। सूबे के तमाम जिले संवेदनशील श्रेणी में आते हैं और हताश नेता इस तथ्य का दुरुपयोग करने में कभी हिचकते नहीं। राज्य से आने वाले नेताओं में मुलायम सिंह और मायावती दोनों ही स्वयं को प्रधानमंत्री पद के करीब मानते रहे। मुलायम सिंह को उनके सुपुत्र ने ही बड़ी ‘शालीनता’ से दल में किनारे लगा दिया। वहीं मायावती को जनता ने हाशिये पर पहुंचा दिया। ऐसे में निराशा और हताशा का घर करना स्वाभाविक है। केवल इन्हीं नहीं, बल्कि अन्य दलों में भी यह भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

सत्ता में आने के लिए जब सिद्धांतों से दूरी बनाई जाती है तब मूल्य आधारित व्यवस्था बेमानी हो जाती

परिवर्तन की अपेक्षा में ही उत्तर प्रदेश की जनता से अखिलेश यादव को सत्ता में बैठाया। उन पर विश्वास किया, मगर मूल्यों की क्षरणता में कमी नहीं आई। अखिलेश ने बारी-बारी से कांग्रेस तथा बसपा से गठबंधन करके समाजवादी अवधारणा को अशक्त किया। उनके ऐसे दांव को कोई समझ नहीं पाया। तमाम गठबंधन लोगों की समझ से परे रहे हैं और अपने स्वाभाविक अंत की गति को प्राप्त होते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी का गठजोड़ भी इसी श्रेणी में आता था। सत्ता में आने के लिए जब सिद्धांतों से दूरी बनाई जाती है तब मूल्य आधारित व्यवस्था बेमानी हो जाती है।

सिद्धांतविहीन राजनीति को गांधी जी सामाजिक पाप मानते थे

जहां तक संविधान की बात है तो उसमें केंद्र शब्द ही नहीं है। उसके लिए संघ शब्द का प्रयोग बहुत सोच-समझकर किया गया है। इस भावना को बनाए रखना आवश्यक है। इन संबंधों की एक गरिमामयी संवैधानिक सीमा निर्धारित है। उसका पालन हर स्थिति में होना ही चाहिए। सिद्धांतविहीन राजनीति को गांधी जी सामाजिक पाप मानते थे। उनका नाम लेने वालों और उनकी विरासत पर दावा करने वालों को यह याद रखना चाहिए।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में कार्यरत हैं )