डा. ऋतु सारस्वत। ल में ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को आपराधिक श्रेणी में सम्मिलित करने को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया, उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई है। इसका कारण यह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ के जस्टिस राजीव शकधर का जहां यह कहना था कि पत्नी से जबरन संबंध बनाने पर पति को सजा होनी चाहिए, वहीं जस्टिस सी. हरिशंकर ने कहा कि अदालतें विधायिका के दृष्टिकोण के लिए अपने व्यक्तिगत निर्णय को प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं। ज्ञात हो कि याचिकाकर्ताओं ने आइपीसी की धारा 375 के तहत ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को अपवाद मानने की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर इस संबंध में उसका दृष्टिकोण पूछा तो उसने कहा कि भारत आंखें मूंदकर पश्चिमी देशों का अनुसरण नहीं कर सकता और ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को अपराध घोषित नहीं कर सकता। सरकार के इस विचार को लैंगिक समानता के पैरोकारों ने ‘महिला विरोधी’ करार दिया।

लैंगिक समानता की पैरवी करने वालों की समस्या यह है कि उनमें से अधिकांश लैंगिक समानता के वास्तविक अर्थ से परिचित ही नहीं हैं। लैंगिक समानता का अर्थ बिना किसी लिंग भेद के सभी की समानता की बात करना है, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब भी लैंगिक समानता का प्रश्न उठता है तो बात सिर्फ महिलाओं के अधिकारों की होती है। प्रश्न उठता है कि महिला अधिकारों के संरक्षण के बीच पुरुषों के अधिकारों के शोषण का द्वार खोलने की जिद क्यों? इस प्रश्न की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को आपराधिक श्रेणी में सम्मिलित करने की पैरवी करने वाले यह क्यों विस्मृत कर देते हैं कि दुनिया भर के समाज अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक, आर्थिक-शैक्षणिक विशेषताओं के अनुरूप अपने वैधानिक ढांचे बनाते हैं, जैसे दहेज विरोधी अधिनियम भारत की सामाजिक व्यवस्थागत कमियों के चलते महिलाओं के संरक्षण के लिए बना, परंतु अन्य देशों में इसकी आवश्यकता नहीं है। यहां इस पर जोर दिया जा सकता है कि महिलाओं के अधिकार तो विश्व भर में एक समान होने चाहिए। यकीनन ऐसा होना चाहिए, परंतु किसी भी कानून के निर्माण से पूर्व उसके दूरगामी परिणामों पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता होती है।

‘वैवाहिक दुष्कर्म’ का प्रश्न उतना सहज नहीं है, जितना कुछ लोग महिलाओं की गरिमा की रक्षा के आधार पर इसे सहज बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि पति-पत्नी का दैहिक संबंध परस्पर सहमति से बनता है और पत्नी की सहमति के बगैर उससे बलपूर्वक संबंध बनाना किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए, परंतु बंद दरवाजे के भीतर जो कुछ घटित हुआ, उसकी सत्यता की पुष्टि किस आधार पर होगी? क्या मात्र पत्नी का कथन पति को अपराधी घोषित कर देगा? आखिर पति स्वयं को निदरेष कैसे सिद्ध करेगा? ऐसे प्रश्नों के उत्तर में अमूमन यह प्रतिक्रिया दी जाती है कि आखिर महिलाएं पति पर मिथ्या आरोप क्यों लगाएंगी? वे तो भावुक होती हैं। डा. कैथरीन मैकिनली अपने शोध पत्र ‘वुमन आर नाट मोर इमोशनल दैन मैन’ में लिखती हैं कि यह असत्य है कि महिलाएं अधिक भावुक होती हैं और पुरुष भावहीन। ट्रामा थैरेपी विशेषज्ञ लिज कोलक्लो कहती हैं कि यह धारणा कि कुछ लोग दूसरों की तुलना में अधिक भावुक होते हैं, गंभीर नुकसान पहुंचाती है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि महिलाएं त्याग और समर्पण का जीवंत उदाहरण हैं और वे हर अत्याचार सहन करके भी अपने परिवार को बनाए रखती हैं। इस तर्क के आगे हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि एक के बाद एक अदालतें घरेलू ¨हसा के झूठे आरोपों पर कठोर प्रतिक्रियाएं दे रही हैं। इसी कारण पुरुष आयोग बनाने की मांग भी उठ रही है।

घरेलू ¨हसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम पहले ही लैंगिक समानता के वास्तविक अर्थ को सिरे से नकार चुका है। वह यही मानता है कि महिलाएं ही घरेलू ¨हसा का शिकार होती हैं, परंतु एनएफएचएस-5 के आंकड़े बताते हैं कि हर दसवां पति पत्नी की ¨हसा का शिकार है। इसमें चार प्रतिशत वे हैं, जिन्होंने पत्नी के साथ कभी ¨हसक व्यवहार नहीं किया। जिन देशों के पदचिन्हों पर चलकर कथित आधुनिकतावादी-नारीवादी ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को आपराधिक बनाने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि इन्हीं देशों में घरेलू ¨हसा से पुरुषों को भी संरक्षण प्राप्त है। ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित करने की मुहिम इसलिए भी हैरान करती है, क्योंकि घरेलू ¨हसा से महिलाओं को संरक्षण वाले अधिनियम में यह प्रविधान है कि कोई भी महिला शारीरिक उत्पीड़न के विरुद्ध मामला दर्ज करा सकती है। इसमें दोराय नहीं कि जिस रिश्ते में पति जबरन संबंध बनाए, उस रिश्ते से मुक्त हो जाना चाहिए और जब यह मुक्ति घरेलू ¨हसा से संरक्षण वाले अधिनियम से मिल सकती है तो फिर ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को अपराध घोषित करने का हठ क्यों?

महिला अधिकारों के संरक्षण हेतु बने कानूनों का दुरुपयोग किसी से छिपा नहीं। कई मामलों में महिलाओं ने स्वयं यह माना है कि उन्होंने किसी द्वेष या लालचवश पति और ससुराल पक्ष पर झूठे आरोप लगाए। ऐसे मामलों को देखते हुए यह आवश्यक है कि ‘वैवाहिक दुष्कर्म’ को अपराध घोषित करने की मांग पर निर्णय लेने से पहले गहन सामाजिक शोध किया जाए, फिर किसी नतीजे पर पहुंचा जाए, अन्यथा ऐसा समय भी आ सकता है कि पुरुषों के लिए विवाह दुख और डर का पर्याय बन जाए। यह स्थिति विवाह संस्था को तहस-नहस कर सकती है।

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)