[ प्रो. निरंजन कुमार ]: जब राजनीति का उद्देश्य सिर्फ निजी स्वार्थ या पारिवारिक लाभ तक सीमित रह जाता है, तब राष्ट्रहित और जनता के हित हाशिये पर चले जाते हैं। ऐसे में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं, इसकी नवीनतम मिसाल है पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बंगाली बनाम बाहरी को मुद्दा बनाने की कोशिश। बंगाल में सत्ता विरोधी लहर की चुनौती झेल रही तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो एवं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा को घेरने के लिए एक नया शिगूफा छेड़ते हुए उसे बंगाल से बाहर की पार्टी कहा। संवैधानिक धरातल पर पड़ताल करें तो यह वक्तव्य निहायत ही गलत है। संविधान सभा के उपाध्यक्ष बंगाल के हरेंद्र कुमार मुखर्जी और संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर आदि की अगुआई में बना भारतीय संविधान किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं करता। संविधान के अनुच्छेद पांच के अनुसार कोई भी नागरिक पूरे देश का नागरिक होगा, न कि किसी राज्य का।

बंगाली बनाम बाहरी का जुमला संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता

यही नहीं, कोई भी नागरिक देश के किसी भी राज्य या क्षेत्र में जाकर लोकसभा ही नहीं, विधानसभा का चुनाव भी लड़ सकता है। अनुच्छेद 173 स्पष्ट रूप से कहता है कि कोई भी नागरिक किसी राज्य के विधानमंडल का सदस्य बनने की अर्हता रखता है। साफ है कि बंगाली बनाम बाहरी का जुमला संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता। ममता बनर्जी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर गुजरात से आकर बंगाल में राजनीति करने का तंज कसना कहीं से भी उचित नहीं है। देश का प्रधानमंत्री या गृह मंत्री किसी राज्य का नहीं, पूरे देश का होता है।

राष्ट्रीय दलों को बाहरी पार्टी कहना राजनीतिक दिवालियापन है

राजनीतिक आधार पर देखें तो जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 के अनुसार एक क्षेत्रीय पार्टी किसी दूसरे राज्य में तकनीकी रूप से एक हद तक बाहरी पार्टी जरूर होती है, लेकिन देश का संविधान-कानून ऐसे क्षेत्रीय दलों को दूसरे राज्यों में चुनाव लड़ने की पूरी छूट देता है। फिर राष्ट्रीय दल जैसे भाजपा, कांग्रेस अथवा माकपा आदि किसी एक राज्य तक सीमित न होकर अखिल भारतीय हैं, जो लगभग पूरे देश में चुनाव लड़ते हैं। ऐसे दलों को बाहरी पार्टी कहना एक तरह से राजनीतिक दिवालियापन ही है। जब खुद तृणमूल कांग्रेस बंगाल के बाहर दूसरे राज्यों में चुनाव लड़ती रही है, तब एक राष्ट्रीय पार्टी को बाहरी पार्टी कहना कहां तक सही है? यह व्यर्थ की ही बहस है।

इस देश को ‘भारत माता’ की संज्ञा पहली बार बंगाल की भूमि में ही दी गई

सांस्कृतिक स्तर पर भी विचार करें तो बंगाली बनाम बाहरी का जुमला गले नहीं उतरता। कई मायनों में तो बंगाल भारत की सांस्कृतिक आत्मा है। लोकप्रिय प्रतीक ‘भारत माता’ का नाम सुनते ही हरेक भारतीय के मन में एक झंकार उठने लगती है। जन्मभूमि या देश की परिकल्पना प्राचीन काल से ही अपने यहां माता के रूप में की गई है। वेदों में ‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ अर्थात भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूं, जैसे कई मंत्र हैं, लेकिन इस देश को ‘भारत माता’ की संज्ञा पहली बार बंगाल की भूमि में ही दी गई। 1873 में किरण चंद्र बनर्जी के नाटक ‘भारत माता’ में पहली बार देवी ‘भारत माता’ का उल्लेख आया। फिर बंकिमचंद्र चटर्जी ने 1882 में अपनी पुस्तक आनंद मठ में भारत-भूमि को ‘भारत माता’ के रूप में परिकल्पित किया। तत्पश्चात बंगाल के ही अवनींद्र नाथ ठाकुर ने केसरिया वस्त्र धारण की हुई ‘भारत माता’ का एक चित्र बनाया। उसके बाद तो बंगाल में परिकल्पित ‘भारत माता’ भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बनकर ‘जन-गण-मन’ में बस गईं। इस भारत माता की कोई भी संतान किसी एक राज्य की नहीं होकर पूरे देश की है।

स्वाधीनता आंदोलन का स्वर्णिम अध्याय: बंगाल समेत अन्य राज्यों का लक्ष्य पूरे देश की आजादी थी

भारत का स्वाधीनता आंदोलन हमारे इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। बंगाल समेत अन्य राज्यों के लोगों ने सिर्फ इस या उस राज्य की मुक्ति नहीं, बल्कि पूरे देश की आजादी के लिए संघर्ष किया था। चाहे 1857 में बंगाल के बैरकपुर में उत्तर प्रदेश के मंगल पांडेय द्वारा स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम की शुरुआत हो, 1905 का बंग-भंग विरोध हो, स्वदेशी का आंदोलन हो, बिहार का चंपारण सत्याग्रह हो, पंजाब के जलियांवाला बाग कांड का विरोध हो या सविनय अवज्ञा आंदोलन हो, भारत छोड़ो आंदोलन हो अथवा आजाद हिंद फौज का अभियान हो, सबका लक्ष्य पूरे देश की आजादी थी।

तृणमूल कांग्रेस द्वारा उपराष्ट्रवाद या क्षेत्रीय भावना भड़काने की कोशिश करना खतरनाक है  

राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के स्तर पर भी बंगाली बनाम बाहरी विवाद खतरे की एक घंटी है। पिछले काफी समय से क्षेत्रीयता बनाम राष्ट्रीयता का एक छद्म तनाव-संघर्ष खड़ा करने की कोशिश कई क्षेत्रीय दलों द्वारा की जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस तरह के उपराष्ट्रवाद की अस्मिता खड़ा करना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता और राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है। तमिलनाडु में द्रमुक और महाराष्ट्र की शिवसेना आदि के नक्शेकदम पर तृणमूल कांग्रेस उपराष्ट्रवाद या क्षेत्रीय भावना भड़काने की जो कोशिश कर रही है, वह खतरनाक है। ऐसी चीजें राष्ट्रीय भावना को कमजोर करती हैं। इनसे किसी भी जिम्मेदार राजनेता को बचना चाहिए।

चुनावी लड़ाई स्थानीय बनाम बाहरी जैसे छद्म मुद्दों पर नहीं होनी चाहिए

बंगाली उपराष्ट्रवाद को उभारने और गैर-बंगालियों को बाहरी कहने से बंगाल के बाहर देश के विभिन्न राज्यों में रह रहे लगभग दो करोड़ बंगाली मानसिक रूप से असहज होते हैं। यह भी न भूला जाए कि बंगाल और खासतौर से कोलकाता में आसपास के राज्यों से बड़ी तादाद में कामगार आते हैं। इनके अलावा वहां राजस्थान के समृद्ध मारवाड़ी समाज की भी उपस्थिति है। बंगाल के निर्माण में तकरीबन 15 फीसद की आबादी वाले इन गैर-बंगालियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। बंगाली बनाम बाहरी का विवाद इन गैर-बंगाली लोगों के लिए एक नया तनाव पैदा कर सकता है। यह कटु सत्य है कि चुनाव है तो राजनीति तो होगी ही, लेकिन चुनावी लड़ाई आर्थिक विकास, गरीबी, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि जन कल्याणकारी मुद्दों पर होनी चाहिए, न कि स्थानीय बनाम बाहरी जैसे छद्म मुद्दों पर।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )