बलबीर पुंज : अफगानिस्तान का हिंदू-सिख विहीन होना अब अंतिम चरण में है। बीते शनिवार को राजधानी काबुल में एक गुरुद्वारे पर हमला इसी मकसद से किया गया। इस हमले के बाद भारत सरकार ने 111 हिंदुओं-सिखों को आपातकालीन ई-वीजा जारी किए। उनके भारत लौटने पर अफगानिस्तान में हिंदू-सिख-बौद्ध का नाम लेने वाला शायद ही कोई बचे। किसी समय विश्व का यह भू-भाग हिंदू-बौद्ध परंपरा का एक प्रमुख केंद्र था। यह विनाशकारी परिवर्तन लगभग एक हजार वर्ष में अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचा है। क्या इस सांस्कृतिक संहार पर खुलकर चर्चा नहीं होनी चाहिए? जिस दर्शन के कारण अफगानिस्तान में यह सब हुआ, क्या उसके रक्तबीज भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद नहीं? क्या अफगानिस्तान के वर्तमान में पाकिस्तान, बांग्लादेश और खंडित भारत में गैर-इस्लामी अनुयायियों के भविष्य को देखना गलत होगा?

तालिबान शासित अफगानिस्तान में करते परवान गुरुद्वारा ही शेष बचा है। इस गुरुद्वारे पर आतंकी हमले की जिम्मेदारी आइएस खुरासान ने ली है। बकौल मीडिया उसने भाजपा से बाहर किए गए नेताओं की पैगंबर साहब पर टिप्पणी के विरोध में हमले को अंजाम दिया। क्या वाकई ऐसा है? वर्ष 2020 में इसी जिहादी संगठन ने काबुल के एक अन्य गुरुद्वारे पर हमलाकर 25 निरपराध लोगों, जिनमें अधिकांश सिख थे, को मौत के घाट उतार दिया था। लगभग आठ माह पहले तालिबान के एक गुट ने गैर-मुस्लिमों विशेषकर हिंदू-सिखों से 'इस्लाम अपनाने' या 'अफगानिस्तान छोड़ने' में से कोई एक विकल्प चुनने को कहा था। यही नहीं, चाहे हामिद करजई का शासन हो या फिर अशरफ गनी की सरकार, उस दौरान भी हिंदुओं-सिखों को निशाना बनाकर कई हमले हुए। पिछली सदी के आठवें दशक में अफगानिस्तान में हिंदुओं-सिखों की संख्या लगभग सात लाख थी। गृहयुद्ध, मजहबी शासन और तालिबानी जिहाद के बाद आज उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही बची है। यदि हालिया हमला पैगंबर साहब के अपमान का बदला लेने के लिए किया गया तो अतीत में आतंकी हिंदुओं-सिखों को किस अपराध की सजा देते रहे?

हिंदू-सिखों ने जो कुछ अफगानिस्तान में झेला, ठीक वैसा ही अनुभव उन्होंने अन्य गैर-मुस्लिमों के साथ इस्लामी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी किया है। इन सभी देशों में गैर-मुस्लिमों की संख्या में भारी कमी आई है। इसका कारण उस कालक्रम में छिपा है, जिसमें उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए विवश होना पड़ा या फिर मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए भारत सहित अन्य देशों में पलायन करना पड़ा। जिन्होंने ऐसा नहीं किया, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। कश्मीर में आज भी हिंदुओं को इसी नियति से गुजरना पड़ रहा है। यह ठीक है कि शेष भारत में इस्लाम के नाम पर इन मध्यकालीन गतिविधियों का खुलेआम संचालन संभव नहीं, लेकिन कई तरीकों से ऐसे कुप्रयास आज भी जारी हैं। गत वर्ष ही उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक बड़े इस्लामी मतांतरण गिरोह का भंडाफोड़ किया था। चिंताजनक बात यह है कि ऐसे क्रियाकलापों को हिंदू विरोधी विचाराधाराओं से प्रत्यक्ष-परोक्ष सहानुभूति मिलती रहती है।

काबुल में गुरुद्वारे पर हमले को लेकर समाचार माध्यमों ने यह तो बताया कि अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या निरंतर घट रही है, किंतु इसके लिए जिम्मेदार वैचारिकी पर चर्चा का साहस नहीं दिखाया गया। आज जैसा अफगानिस्तान दिखता है, वह सदियों पहले ऐसा नहीं था। यहां तक कि तब अफगानिस्तान नाम का कोई देश भी नहीं था। पुरातात्विक उत्खनन से स्पष्ट हो चुका है कि वर्तमान अफगानिस्तान भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अंग रहा है। 12वीं शताब्दी तक वर्तमान अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर मुख्य रूप से हिंदू-बौद्ध और शैव मत के प्रमुख केंद्र थे। वैदिक काल में अफगानिस्तान भारत के पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक गांधार था, जिसका वर्णन महाभारत, ऋग्वेद आदि ग्रंथों में मिलता है। यह मौर्यकाल और कुषाण साम्राज्य का भी हिस्सा रहा, जहां बौद्ध मत फला-फूला। चौथी शताब्दी में कुषाण शासन के बाद छठी शताब्दी के प्रारंभ में हिंदू-बौद्ध बहुल काबुलशाही वंश का शासन आया, जो नौवीं शताब्दी के आरंभ तक रहा। इसके बाद हिंदूशाही वंश की स्थापना राजा लगर्तूमान के मंत्री कल्लर ने की, जिसके शासकों का कालांतर में महमूद गजनवी से सामना हुआ। मात्र 17 वर्ष की आयु में खलीफा बने गजनवी ने प्रतिवर्ष भारत के विरुद्ध जिहाद छेड़ने की प्रतिज्ञा ली थी। 32 वर्ष के शासनकाल में उसने एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमले किए। उसने 'काफिर-कुफ्र' की अवधारणा से प्रेरणा लेकर तलवार के बल पर हिंदुओं-बौद्धों को इस्लाम अपनाने के लिए विवश किया। जब हिंदूशाही शासक गजनवी के हाथों पराजित हुए, तब क्षेत्र का मजहबी स्वरूप और चरित्र बदलना प्रारंभ हुआ। मार्च 2001 में तालिबान ने गजनवी वाली मानसिकता से प्रेरित होकर बामियान में भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं को ध्वस्त किया।

काबुल में गुरुद्वारे पर आतंकी हमले के सिलसिले में यह भी सामने आया कि तालिबान ने जहां जवाबी कार्रवाई करते हुए आइएस खुरासान के जिहादियों को मारने का दावा किया, वहीं तालिबानी गृहमंत्री और घोषित आतंकी सिराजुद्दीन हक्कानी ने सिखों से मुलाकात की। अभी अफगानिस्तान में तालिबान और आइएस खुरासान के बीच प्रभुत्व की लड़ाई चल रही है। ये दोनों जुड़वा भाई जैसे हैं, जिनका जन्म एक ही विषाक्त गर्भनाल से हुआ है। वे परस्पर सहयोग भी करते हैं और एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से भी देखते हैं। दोनों गजनवी वाली मानसिकता को अंगीकार किए हुए हैं। दोनों में बस एक रणनीतिक अंतर है। आइएस के लिए मुसलमानों में राष्ट्रीयता, नस्लीय और भौगोलिक पहचान का कोई अर्थ नहीं, जबकि तालिबान अफगान पहचान से जुड़ा है। तालिबान जहां अफगानिस्तान तक सीमित रहना चाहता है, वही आइएस स्वयं को वैश्विक बनाने के लिए तत्पर है।

आज पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जो दिख रहा है, क्या वह भविष्य में भारत में भी दिख सकता है? इस भयावह आशंका का कारण वह वर्ग है, जो आज भी गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली और टीपू सुल्तान जैसे आक्रांताओं को अपना नायक मानता है, जबकि उनके क्रियाकलापों ने ही भारतीय उपमहाद्वीप के एक तिहाई से अधिक क्षेत्र को हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन आदि से मुक्त किया।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)