तरुण गुप्त। एक ऐसे दौर में जब कोविड महामारी का शिकंजा निरंतर और कड़ा होता जा रहा है तो देश के मिजाज को भांपना कठिन नहीं। इस मिजाज में उदासी और आक्रोश का मिश्रण है। चारों ओर उथल-पुथल मची है। दुख से भरी ऐसे तस्वीरें आ रही हैं, जिनका वर्णन भी संभव नहीं। वेदना की यह चीख-पुकार रोष में रूपांतरित होना आरंभ हो गई है। अभी हम हर प्रकार की किल्लत से जूझ रहे हैं। अस्पतालों में बेड, आइसीयू, वेंटिलेटर्स, जीवन रक्षक दवाएं और यहां तक कि आक्सीजन की आपूर्ति भी सीमित हो गई है। आम से लेकर खास और संसाधन संपन्न लोगों को भी इनकी कमी से दो-चार होना पड़ रहा है। विडंबना देखिए कि हम यही सुनते हुए बड़े हुए हैं कि संसार में केवल प्रेम और हवा ही मुफ्त उपलब्ध हैं। जीवन की डोर से जुड़ी ये सांसें इससे पहले कभी इतनी मूल्यवान और दुर्लभ नहीं लगीं। अगर बहादुर शाह जफर की मशहूर गजल में कुछ फेरबदल करें तो मौजूदा हालात को इन शब्दों में बयां किया जा सकता है-सांस लेनी मुझे मुश्किल कभी ऐसे तो न थी।

मानों मरीजों का अपर्याप्त इलाज ही हमें उद्वेलित करने के लिए काफी नहीं था, उतनी ही खराब स्थिति शवों को लेकर भी दिखती है। श्मशानों-कब्रिस्तानों से आ रही तस्वीरें दर्शाती हैं कि मृत्यु के समय भी गरिमा का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा। स्थिति बेहतर होने से पहले हालात और भी भयावह एवं बदतर हो सकते हैं, ऐसा सोचकर ही सिहरन सी होने लगती है। हम शायद यह कभी जान ही नहीं पाएंगे कि इतनी बड़ी संख्या में हो रही मौतों का कारण कोरोना के नए प्रतिरूपों की घातक क्षमता है या फिर उपचार सुविधाओं का अभाव। जो भी हो, इससे तीन मोर्चों पर हमारी नाकामियां ही उजागर होती हैं। पहली यह कि हम दूसरी लहर का अनुमान नहीं लगा पाए। दूसरी, उसके लिए पर्याप्त तैयारी नहीं कर सके और तीसरी, अब इससे जूझ नहीं पा रहे हैं। ऐसे में हमें सवाल उठाने के साथ-साथ समाधानों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा। नीति-नियंताओं को गलतियों की स्वीकारोक्ति के साथ ही सांत्वना भरी सहानुभूति दिखानी होगी और उसके बाद व्यापक स्तर पर सुधार करने होंगे।

टीकाकरण को तात्कालिक रूप से तेज करना अनिवार्य है। इस बीच टीके की कीमत पर अनावश्यक बहस भी शुरू हो गई है। जिस वस्तु की हमें जरूरत है और जिसकी आपूर्ति फिलहाल तंग है, हम उसके मूल्य पर ही मोलभाव करने में लगे हैं। दवा कंपनियों ने रिकॉर्ड समय में वायरस का टीका विकसित किया है और इसके लिए उन्हें अनथक परिश्रम करना पड़ा है। ऐसे में उन्हें उनके हक से वंचित नहीं किया जा सकता। आखिर हम मुनाफे को बुरा समझने वाली अवधारणा से कब मुक्ति पाएंगे? ऐसी मानसिकता के कारण ही हम अपनी क्षमताएं बढ़ाने में नाकाम रहे हैं। जब भविष्य में और खतरनाक महामारियों के आने की अटकलें हैं, तब अपने दवा उद्योग की नवाचार भावनाओं पर आघात करना कितनी बुद्धिमानी की बात है? यदि भविष्य में किसी आपदा ने दस्तक दी तो क्या प्रोत्साहन से वंचित किए गए वैज्ञानिकों से उसी उत्साह के साथ अपने प्रयास दोहराने की अपेक्षा की जा सकती है? नि:संदेह प्रत्येक भारतीय टीका लगवाने का पात्र है, परंतु यह टीका उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी है। ऐसे में जो दायित्व सरकार का है, उसका बोझ भला निजी क्षेत्र पर क्यों डाला जाए? वास्तव में हमें वैक्सीन एवं आवश्यक दवा निर्माताओं के लिए अनकूल परिवेश भी उपलब्ध कराना चाहिए। साथ ही इस पर भी मंथन करना होगा कि क्षमताएं होने के बावजूद देश में टीकाकरण की रफ्तार सुस्त क्यों रही है?

जब हम वैक्सीन विनिर्माताओं के वाजिब मुनाफे पर हिचक दिखा रहे हैं, तब आवश्यक दवाओं, आक्सीजन सिलेंडर और कंसंट्रेटर को लेकर अवैध, अनैतिक और मनमाने दाम वसूलने के लिए हो रही मुनाफाखोरी और कालाबाजारी इस मुश्किल घड़ी में हम पर कहर बरपा रही है। इन पर लगाम लगाने में कितना वक्त लगेगा? यह बड़ा अजीब और विरोधाभासी समय है। एक ओर ऐसे लोग हैं जो हरसंभव मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ दुष्ट मुनाफाखोर अमानवीय उत्पीड़न में लगे हैं।

इसे बिल्कुल नहीं नकारा जा सकता कि कोरोना संक्रमण की पहली और दूसरी लहर के बीच काफी कुछ किया जा सकता था। हालांकि इससे हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र की ऐतिहासिक कमियों की ओर से ध्यान नहीं हटना चाहिए। उसकी हालत तो महामारी से पहले ही बहुत खस्ता थी। यदि हम विकसित देशों से तुलना करें तो उदाहरणस्वरूप अमेरिका जहां अपनी जीडीपी का 17 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, वहीं हमारा यह खर्च दो प्रतिशत से भी कम है। अर्थव्यवस्थाओं के आकार और आबादी के आधार पर प्रति व्यक्ति आंकड़े इस अंतर की खाई को और चौड़ा करते हैं। इसका समाधान यही है कि अधिक खर्च के लिए ज्यादा धन कमाया जाए। चूंकि इसमें समय लगेगा इसलिए तब तक अपने सीमित संसाधनों से खर्च की प्राथमिकताएं तय करना ही उपयोगी होगा। मैं रक्षा खर्च घटाने की दुहाई देने वालों में से नहीं हूं। अभी भी तमाम सब्सिडी और अनुत्पादक व्यय हैं, जिनमें कटौती कर बचे धन को स्वास्थ्य और अन्य जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति पर खर्च किया जा सकता है। हमारी सरकारी सेवाओं में अपार सुधार की गुंजाइश है। इसके लिए सरकार पर दबाव घटाना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि एक उदार लोकतंत्र में सरकार केवल स्वास्थ्य, शिक्षा, अवसंरचना, रक्षा और कानून एवं व्यवस्था तक ही स्वयं को सीमित रखे और इनमें विकसित देशों जैसे मानक प्राप्त करने का प्रयास करे।

बहरहाल यह एक दूरगामी लक्ष्य हो सकता है। अभी इस आपदा से निपटना आवश्यक है। बतौर नागरिक हम प्रश्न उठा सकते हैं, किंतु उनके उत्तर तो सरकारी अमले से ही मिलने हैं। कुछ राज्यों में संक्रमण की रफ्तार कुंद पड़ने की खबरों से एक उम्मीद जगी है। इस खुशखबरी की हकीकत भी जल्द ही पता लग जाएगी। नि:संदेह हम सरकारी क्षमताओं और उदारता से राहत की प्रतीक्षा में हैं, फिर भी हमें यह नहीं विस्मृत करना चाहिए कि आशा और सहयोग ही मानवीय सभ्यताओं के अस्तित्व के अहम अवयव रहे हैं। इसलिए धैर्य न छोड़ें और एक दूसरे की सहायता करते रहें। कहते हैं न कि अंधकार जब चरम पर होता है, तब उजाले की किरण भी बहुत दूर नहीं होती।