[प्रो. सतीश कुमार]। COVID-19: कोरोना के खतरे से निपटने की दिशा में भारत की कूटनीति ने दुनिया के सामने एक नई मिशाल पेश की है। ईरान, इटली और यूरोप के तमाम देशों में रहने वाले भारतीयों को देश वापस लाया गया, जबकि उन्हें वहां से लाने में बहुत ज्यादा मुसीबतें सामने आई थीं। इसके अलावा भारत ने सार्क देशों की एक विशेष बैठक बुलाकर इस वैश्विक महामारी से लड़ने की साझेदारी का नेतृत्व भी किया है। चूंकि यह समस्या वुहान से निकले कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई है। इसलिए इसको लेकर भी दुनिया की प्रतिक्रिया भिन्न है। जहां इस मामले में अमेरिका ने चीन को दोषी माना, वहीं अमेरिकी मीडिया पर चीन ने स्वयं को बदनाम करने की साजिश की बात कही, लेकिन आज समस्या जैविक हथियारों को लेकर है या भौतिकवादी जीवनशैली को लेकर।

एक बार बीबीसी के एक पत्रकार ने गांधीजी से पूछा था कि भारत के आजाद होने के बाद क्या आप अंग्रेजी आर्थिक ढांचे को लेकर चलेंगे तो गांधी का दो टूक जवाब था कि पूरी धरती को कब्जा करने के बाद भी जिसकी क्षुधा नहीं भरी तो भारत की आबादी दस गुना ज्यादा है। हमें तो ऐसे दस पृथ्वी की आवश्यकता होगी। आज इस वैश्विक समस्या से निपटने के लिए भारत की सोच भी अलग है। भारत पूरे जगत को एक परिवार मानता है। दुनिया यह मानती थी कि परमाणु हथियारों से दुनिया का विनाश होगा, लेकिन उसके पहले एक ऐसा अदृश्य शत्रु मानव जगत के सामने प्रकट हो गया है जो उसकी पूरी शाख को खत्म करने के लिए आमादा है। इस समस्या ने राष्ट्र राज्य की परिभाषा को नए सिर से परिभाषित किया है।

बीते रविवार को देश ने प्रधानमंत्री की बातों को माना और उसके बाद से निरंतर उसका पालन कर रहे हैं। हालांकि चंद लोगों के नजरिये में यह एक साजिश है जिसे सरकार ने अपनी असफलताओं को ढकने के लिए कोरोना वायरस का ईजाद किया है। एक ओर चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था है जहां पर पूरी सख्ती और निर्ममता के साथ कोरोना वारयस को फैलने से रोकने के लिए कदम उठाए गए। दूसरी ओर इटली और यूरोप के अन्य देशों के उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां पर लोगों की स्वतंत्रता और आजादी की फिक्र देश हित से ऊपर बन गया है। यदि इन दोनों ही व्यवस्था की तुलना करें तो भविष्य में लोग संभवत: यह मानने के लिए विवश हो सकते हैं कि चीन की राजनीतिक व्यवस्था यूरोप से बेहतर और ज्यादा कारगर है।

भारत राष्ट्र की परिभाषा दोनों राजनीतिक व्यवस्था से अलग है। जब भारत ने लॉकडाउन की बात कही है तो उसमें जनता का हित और लोकतंत्र की बुनियादी सोच दोनों ही बातें शामिल हैं। हम मूलत: अपने स्वार्थ के लिए समाज, समुदाय और राष्ट्र को दांव पर नहीं लगा सकते हैं। हमारी बुनियाद ही दूसरों के हित के लिए बनी है। फिर हम कैसे अन्य लोगों की जान को खतरे में डालकर मौज की नींद सो सकते हैं। इसलिए लॉकडाउन जरूरी भी था और उसका पालन भी उतना ही आवश्यक है। जब राष्ट्र चुनौतियों से जूझ रहा हो, उस समय भी राजनीतिक विरोध का परचम लहराना कितना उचित है, यह बात देश की जनता के सामने है।

कोरोना वायरस से निपटने के लिए भारत की सरकार ने जो रास्ता अपनाया है, उसकी प्रशंसा न केवल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने की है, बल्कि दुनिया के तमाम देशों ने भी सराहा है। इटली में तमाम बदहाल दशाओं के बावजूद भारत ने वहां से अपने ढाई सौ छात्रों को निकाल कर उनके परिवारों तक पहुंचाया। इसके पहले भी भारत ने चीन के वुहान से व्यापक संख्या में अपने फंसे हुए नागरिकों को निकाला था। जहां दुनिया के कई देश अपने ही फंसे हुए लोगों को निकाल कर लाने की बात पर चुप्पी साधे हुए हैं, वहीं भारत ने नागरिकता और देश के बीच भारतीय सोच को विकसित किया है, जो दुनिया के लिए एक नया आयाम बनेगा।

भारत की सरकार ने अपने कूटनीतिक ढांचे को मजबूत करने के लिए सार्क को भी गतिशील बना दिया और इस गतिशीलता के जरिये यह भी संदेश दिया कि आपदा और संकट के समय में भारत ही दक्षिण एशिया के देशों को निजात दिला सकता है। भारत सरकार ने एक कोरोना आपात फंड की शुरुआत भी की है। इसका प्रयोग भारत के पड़ोसी देशों के हित के लिए किया जाएगा। इस बीच वर्ष 2016 से सार्क ठंडे बस्ते में है, क्योंकि पाकिस्तान द्वारा आतंकी घटनाओं को जारी रखने के बीच पाकिस्तान में होने वाले सार्क सम्मेलन का भारत ने बहिष्कार किया था। उसके बाद बांग्लादेश, श्रीलंका समेत अन्य देशों ने भी वहां नहीं जाने का फैसला लिया था। उसके बाद से ही सार्क की कूटनीतिक धार कुंद सी हो गई थी। दूसरे कार्यकाल के उद्धघाटन सत्र में प्रधानमंत्री ने सार्क देशों को नहीं, बल्कि बिम्सटेक देशों को न्योता दिया था। भारत पाकिस्तान की वजह से सार्क के विकल्प के रूप अन्य क्षेत्रीय संगठनों को गतिशील बनाने की कूटनीतिक शुरुआत करने लगा, लेकिन सभी को मालूम है कि सार्क ही भारत की चौहद्दी है जहां से भारत के नेतृत्व की शक्ति का आगाज होता है।

बिम्सटेक के दो ऐसे देश हैं जो पूरी तरह से चीन के सामरिक समीकरण का हिस्सा हैं उसमें थाईलैंड और म्यांमार शामिल हैं। भारत की विदेश नीति विशेषकर प्रथम पड़ोसी देशों की नीति भी सार्क की पगडंडी पर खड़ी है, लेकिन वह पगडंडी हिलती-डुलती रहती है। जब तक इसमें जान नहीं भरा जाएगा, दक्षिण एशिया की शक्ल भी नहीं बदलेगी। जहां तक कोरोना वायरस का प्रश्न है वह भी सार्क की सीमाओं से जुड़ा हुआ है। दो सबसे ज्यादा प्रभावित देशों मसलन चीन और ईरान से दक्षिण एशिया की सीमा मिलती है। बड़े पैमाने पर व्यापार और आवागमन इन देशों के साथ है। लेकिन आपदा की दशा में न तो चीन और न ही ईरान की मदद दक्षिण एशिया को निजात दिला सकती है।

कोरोना वायरस से निपटने के लिए भारत की सरकार ने जो रास्ता अपनाया है, उसे दुनिया के तमाम देशों ने भी सराहा है। इटली में तमाम बदहाल दशाओं के बावजूद भारत ने वहां से अपने ढाई सौ छात्रों को निकाल कर उनके परिवारों तक पहुंचाया। जहां दुनिया के कई देश अपने ही फंसे हुए लोगों को निकाल कर लाने की बात पर चुप्पी साधे हुए हैं, वहीं भारत ने नागरिकता और देश के बीच भारतीय सोच को विकसित किया है, जो दुनिया के लिए एक नया आयाम बनेगा।

[राजनीतिक विश्लेषक]