[ बद्री नारायण ]: कामगारों का अपने गांव-शहर से रोजगार की तलाश में बाहर जाना एक सहज सामाजिक प्रक्रिया रही है। वे जिस महानगर में जाते हैं वहां मेहनत कर उसे समृद्ध बनाते हैं। उनके जाने से उनके गृह क्षेत्र में एक भावनात्मक रिक्तता तो पैदा होती है, किंतु वहां की आर्थिक दुनिया में थोड़ा दबाव घटता है। वे बाहर जाते ही इसलिए हैं कि उनके गृह क्षेत्र-राज्य में उनकी जीविका के अवसर या तो कम होते हैं या संकुचित।

कोरोना महामारी आने से हुई सामाजिक एवं आर्थिक प्रक्रिया में एक बड़ी उथल-पुथल 

कामगारों के रोजगार की तलाश में बाहर जाने की इस सहज सामाजिक एवं आर्थिक प्रक्रिया में एक बड़ी उथल-पुथल कोरोना महामारी आने से हुई। इसने इस सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया को उल्टा कर दिया है। आज जहां रोजगार हैं वहां से कामगार लौट-लौटकर अपने घर आ चुके हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रवासी कामगारों की संख्या 45.36 करोड़ मानी जाती है। इनमें से लगभग 50 प्रतिशत प्रवासी कामगार उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान जैसे राज्यों के हैं। इनमें से भी सर्वाधिक प्रवासी कामगार उत्तर प्रदेश एवं बिहार से आते हैं। 

लॉकडाउन के बाद दो करोड़ से ज्यादा प्रवासी कामगार अपने गांव-घर लौट आए

एक अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के बाद दो करोड़ से ज्यादा प्रवासी कामगार अपने गांव-शहर और घर लौट आए हैं। उनसे बातचीत में यह संकेत मिला है कि इनमें से लगभग 60 प्रतिशत अब अपने गृह क्षेत्र में ही गुजर-बसर करना चाहते हैं। शेष 40 प्रतिशत का मानना है कि गृह क्षेत्र में काम नहीं मिलेगा तो रोजी-रोजगार के लिए बाहर तो जाना ही पड़ेगा। प्रश्न उठता है कि इन श्रमिकों का पुनर्वास गृह क्षेत्रों में किस प्रकार से किया जाएगा?

कामगारों को समायोजित करने में आज सबसे मददगार कार्यक्रम है मनरेगा

क्या हमारे समाज की इतनी मूल्यवान श्रम शक्ति बेकार होकर रोजी की तलाश में अपने गांव-शहर घूमेगी? अच्छी बात यह हुई है कि राज्य सरकारों ने बड़े शहरों से लौटे हुए प्रवासी कामगारों को रोजगार मुहैया कराने को अपना नैतिक दायित्व मानकर इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। इसके लिए इन कामगारों की दक्षता एवं योग्यता के आंकड़े इकट्ठे कर उन्हें समायोजित करने की अनेक कोशिशें विभिन्न राज्य सरकारें कर रही हैं। इन कामगारों को समायोजित करने में आज सबसे मददगार मनरेगा कार्यक्रम है।

यूपी में 57.13 लाख कामगारों को मनरेगा में काम दिया गया

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में राज्य में लगभग 57.13 लाख कामगारों को काम दिया गया है। इनमें लौटे हुए प्रवासियों की भी अच्छी-खासी संख्या है। राज्य सरकार ने कोरोना वायरस द्वारा पैदा की गई चुनौतियों का सामना करने के लिए लगभग 10 लाख और श्रमिकों को मनरेगा के तहत काम देने की व्यवस्था की है।

राजस्थान सरकार ने लगभग 54 लाख श्रमिकों को मनरेगा में काम दिया

राजस्थान सरकार ने भी लगभग 54 लाख श्रमिकों को मनरेगा में काम दिया है। इनमें लौटे हुए प्रवासी श्रमिकों की संख्या अच्छी-खासी है। बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों के पास भी लौटे हुए कामगारों को रोजगार देने के लिए मनरेगा एक उपयुक्त विकल्प बनकर उभरा है। एक अन्य विकल्प विभिन्न पंचायतों में आजीविका मिशन के तहत हो रहे काम हैं। इसके साथ ही सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) को सहयोग कर केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों में ऐसे कामगारों के लिए रोजगार के अवसर सृजित करने के विकल्प को भी विकसित करने में लगी है।

शहरों से लौटे कामगार कुशल श्रमिक हैं, उन्हें पुनर्वासित करना समस्या है और अवसर भी

अभी तक स्किल मैपिंग से जो आंकड़े उभर रहे हैं उससे लगता है कि शहरों से लौटे ज्यादातर कामगार कुशल श्रमिक हैं। उन्हें पुनर्वासित करना एक समस्या भी है और एक अवसर भी। भवन निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमेशन, पर्यटन व्यवसाय की दक्षता वाले कामगारों के लिए राज्य सरकारों को काम के अवसर सृजित करने होंगे, क्योंकि मनरेगा से उनके मन मुताबिक एवं योग्यता के अनुसार काम के अवसर सृजित करना मुश्किल होगा। शहरों से लौटे कामगारों को उनके गृह क्षेत्रों में रोजगार मुहैया कराने में सबसे बड़ी दिक्कत यह दिख रही है कि वे शायद अपने श्रम का वाजिब मूल्य न पा सकेंगे।

कई श्रमिकों को फिर से उन्हीं खेतों में काम करना होगा जिन्हें वे छोड़ गए थे

सरकारी विकल्पों के सीमित होने के चलते कइयों को फिर से उन्हीं खेतों में काम करना होगा जिन्हें वे उचित श्रममूल्य न मिल पाने के कारण छोड़ गए थे। इस तरह शहरों से लौटे हुए श्रमिक अपने श्रममूल्य के लिए मोल-तोल की शक्ति खो देंगे। हालांकि कोरोना संकट में कामगारों की प्राथमिकता पहले अपनी जान एवं शरीर की रक्षा है, फिर रोजगार के लिए बेहतर विकल्प की तलाश। ऐसे में कुछ कम पैसे पाकर भी उनमें से ज्यादातर अपने गांव-शहर के आसपास ही अपने लिए रोजगार तलाशना चाहेंगे। वहीं जो फिर से महानगरों एवं अन्य राज्यों में जाएंगे, वहां वे अपनी कंपनी एवं मालिक से मेहनताने के साथ-साथ अपने रहने के लिए साफ-सुथरी जगह की भी मांग करेंगे। इस मांग की र्पूित भी होने लगी है। यह एक शुभ लक्षण है। इससे पता चलता है कि कामगारों की महत्ता समझी जाने लगी है।

श्रमिकों के पुनर्वास का मॉडल विकसित करने की दिशा में कुछ राज्य लगे हुए हैं

कोरोना के कारण शहरों से लौट आए श्रमिकों के पुनर्वास का मॉडल विकसित करने की दिशा में कुछ राज्य रचनात्मक विकल्प भी विकसित करने में लगे हुए हैं। स्थानीय स्रोतों के विकास के साथ इन कामगारों को जोड़ना मुख्य रणनीति है। ऐसा ही एक प्रयास झारखंड में चल रहा है जिसमें इस राज्य में लौटे कामगारों को बहुपयोगी वृक्ष लगाने के लिए समर्थन देने की नीति बनाई जा रही है। कोशिश यह है कि ये लोग फलदार वृक्ष लगाएं, उनकी देखरेख करें एवं उनसे उत्पादित उपज से लाभ पाएं। ऐसे प्रयास उनके पुनर्वास का बड़ा जरिया भले न बन पाएं, पर इससे रोजगार के साथ-साथ उनके गृह राज्य की प्राकृतिक संपदा में विस्तार जरूर होगा।

आपदा हमारे लिए कई दरवाजे बंद करती है तो कुछ दरवाजे खोलती भी है

उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्य भी अपने स्थानीय उत्पादों के साथ लौटकर आई श्रम शक्ति को जोड़कर इस आपदा को अवसर में बदलने की दिशा में नीति विकसित करने एवं लागू करने में कार्यरत हैं। खेती एवं किसानी को रोजगार एवं लाभकारी व्यवसाय में बदलने की पहल भी इन राज्य सरकारों को तीव्रता से करनी होगी। कृषि उत्पाद और उन पर केंद्रित व्यवसाय रोजगार सृजित करने के बड़े अवसर प्रदान कर सकते हैं। इससे राज्य सरकारें न केवल लौटे हुए कामगारों के लिए रोजगार की समस्या का समाधान कर पाएंगी, वरन अपनी आंतरिक एवं स्थानीय आर्थिक शक्ति का विकास भी कर सकेंगी। यह अच्छा है कि राज्य अपनी क्षमता का नए सिरे से आकलन कर रहे हैं। किसी ने सही कहा है कि आपदा हमारे लिए कई दरवाजे बंद करती है तो कुछ दरवाजे खोलती भी है।

( लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )