मध्य प्रदेश [आशीष व्यास]। कोरोना ने दुनिया को दो संक्रमण दिए हैं। पहला शारीरिक और दूसरा शाब्दिक। शारीरिक और मानसिक संकट से सीखते-संभलते हुए, हम जीते और जीतते जा रहे हैं, लेकिन शाब्दिक संक्रमण अभी भी जनजीवन के सामान्य शब्दकोश में शामिल होना शेष है। ऐसा ही एक शब्द है ‘पेशेंट 31’ जो दक्षिण कोरिया की देन है।

फरवरी तक दक्षिण कोरिया में कोरोना के केवल 30 मरीज थे। उसके बाद अचानक संख्या बढ़ने लगी। और एक समय ऐसा भी आया जब यह आंकड़ा चिंताजनक रूप से 4,700 तक पहुंच गया। डॉक्टरों ने कारण तलाशना शुरू किया। पता चला, बेड नंबर-31 की 61 वर्षीय मरीज कोरोना से चर्चा में आने से लेकर, सार्वजनिक समारोह में जाने तक एक हजार से ज्यादा लोगों के संपर्क में आई।

सरकारी अमला ‘पेशेंट 31’ की कांटेक्ट-हिस्ट्री को डिकोड करते हुए ताबड़तोड़ सभी मरीजों तक पहुंचा और उसके बाद स्थिति नियंत्रित कर ली गई। काम करने की इस प्रकृति-प्रवृत्ति से दक्षिण कोरिया ने खुद को संभाल लिया। लेकिन मध्य प्रदेश ने अपने हिस्से के ‘पेशेंट 31’ को ढूंढकर संक्रमण को रोकने की कोशिश के बजाय बड़ी-बड़ी गलतियां कर दीं।

जबकि यह वह राज्य है, जहां कोरोना का संक्रमण, देश में आए पहले मरीज की सूचना के लगभग महीने भर बाद सामने आया। इसलिए संभलने का बहुत समय था, लेकिन स्थिति की गंभीरता समझी ही नहीं गई। हालांकि गलतियों के बाद भी संभलने का मौका अभी भी बना हुआ है। आइए, अंतहीन लगते पीड़ा-परेशानी के बीते घटनाक्रम को पलटकर देखते हैं कि मध्य प्रदेश ने कहां-कहां और कैसी गलतियां कीं।

राजनीतिक भूल-अब भी एक फोरम पर नहीं हैं दो दल: मध्य प्रदेश अपने माथे से यह दाग कभी नहीं मिटा पाएगा कि जिस समय देश के दूसरे राज्य कोरोना संक्रमण से लड़ने की तैयारी में जुटे थे, उस वक्त प्रदेश के दोनों दल सत्ता की खींचतान में लगे थे। कांग्रेस की कुर्सी जाने और भाजपा की कुर्सी पाने के बीच बीते तीन सप्ताह में कोरोना दबे पांव मध्य प्रदेश में घुस चुका था।

इस जानलेवा दुश्मन के आने की आहट न कांग्रेस सुन पाई और न ही भाजपा। यही वजह है कि कांग्रेस सत्ता में रहते हुए भी इसे रोक नहीं पाई। भाजपा सत्ता में आने के बाद भी कोई चमत्कारिक परिणाम नहीं दे पाई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उपचुनाव में दोनों ही दलों को इस राजनीतिक मुद्दे का सामना करना पड़े।

प्रशासनिक लापरवाही-शुरू से ही नहीं समझ पाए अफसर: मध्य प्रदेश में 27 फीसद आदिवासी आबादी है। ग्रामीण अंचल में शिक्षा का स्तर कम है, लेकिन नासमझी राजधानी से शुरू हुई। राज्य की स्वास्थ्य सचिव पल्लवी जैन गोविल का बेटा विदेश से लौटा था। जांच करवाए बगैर वह विभाग के अधीनस्थों की बैठक लेती रहीं।

आयुष्मान भारत के सीईओ और हेल्थ कॉरपोरेशन के एमडी सहित 13 अधिकारी पॉजिटिव हो गए। जिस समय प्रदेश को इन सभी की सबसे ज्यादा जरूरत थी, ये सभी क्वारंटाइन हो गए। प्रदेश की सेहत सुधारने का जिम्मा जिनके हाथ में है, उनके पास खुद के लिए प्लान- बी और सी तैयार नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है।

ऐसी लापरवाहियों की कीमत अब निर्दोष नागरिक चुका रहे हैं। जानलेवा देरी-निजी अस्पतालों की नीति लागू करना ही भूले: कोरोना संक्रमण ने सरकारी ढर्रे की भी पोल खोल दी है। निजी अस्पतालों पर अंकुश लगाने के लिए 10 साल पहले आए कानून को मध्य प्रदेश में लागू ही नहीं करवाया गया। इसका असर तब सामने आया जब कोरोना उपचार के लिए शासन-प्रशासन निजी अस्पतालों के आगे हाथ जोड़ता दिखाई दिया।

लेकिन वे न तो आसानी से सेवाएं देने को तैयार हुए और न ही तत्परता से आयुष्मान योजना में अपना पंजीयन करवाया। मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद भी मरीज महंगा बिल खुद चुका रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि इंदौर के निजी गोकुलदास अस्पताल पर स्थानीय प्रशासन को ताला लगाना पड़ा।

सोती-जागती पुलिस: 

कोरोना पॉजिटिव पूर्व पार्षद बुरहानपुर जिला अस्पताल से इंदौर पहुंच गया! सऊदी अरब से आए पूर्व पार्षद मोइनुद्दीन ने जानकारी छिपाई। पॉजिटिव आया तो अस्पताल से भागकर धायक सुरेंद्र सिंह ठाकुर के घर पहुंचा। मदद से मना किया तो बेटों और गार्ड को लेकर 200 किमी का सफर करते हुए इंदौर तक आ गया। लॉकडाउन के दौरान किसी ने नहीं रोका। अपने परिवार के साथ विधायक के परिवार को भी संक्रमित कर दिया।

मध्य प्रदेश में कोरोना ने सबसे पहले जबलपुर पर हमला किया। जबलपुर इसे अपनी जद से एक बार बाहर निकालने में कामयाब हो गया, लेकिन अदूरदर्शिता देखिए, इंदौर-भोपाल की चिंता-चुनौतियों पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। उज्जैन- धार और खंडवा-खरगोन जैसे जिलों में आज जो हालात बन गए हैं उसके लिए प्रदेश का पूरा प्रशासनिक तंत्र जिम्मेदार है।

इस तर्क के साथ कि राजनीति सरकार बनाने में व्यस्त थी, लेकिन जबलपुर की सूचना के बाद प्रदेश के 52 जिला कलेक्टर, 10 संभागायुक्त सहित 300 से ज्यादा आइएएस क्या करते रहे? इंदौर में दस्तक देने के बाद कोरोना ने मालवानिमाड़ अंचल तक पहुंचने में 20 से 30 दिन का समय लिया। इस दौरान छोटी-छोटी गलतियों ने कोरोना को अंचल के छोटे-छोटे गांवों तक पहुंचा दिया। एक महीने की मशक्कत के बाद भी इंदौर मेडिकल कॉलेज कोरोना जांच के लिए किट का मोहताज है।

प्रबंधन कह रहा है कि यदि संसाधन उपलब्ध करवा दिया जाए तो सरकारी मेडिकल कॉलेजों की लैब में ही बेहतर परिणाम दिया जा सकता है। यह सच है कि महामारी के मंसूबे पढ़ना आसान नहीं है। लेकिन यह भी तो सच ही है कि मध्य प्रदेश एक गलती, बार-बार कर रहा है। (संपादक, नई दुनिया,मध्य प्रदेश)