सी उदयभास्कर। चुनाव अभियान में आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा बन गया है। वर्धा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अवांछित तरीके से इस मुद्दे को छेड़ दिया। अपने भाषण में वह समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामले में आए विशेष जज के फैसले का हवाला देकर अपने पक्ष में हवा बनाने की कोशिश कर रहे थे। इस मामले को समझने के लिए अतीत के कुछ पन्ने पलटने होंगे। समझौता एक्सप्रेस पर फरवरी 2007 में आतंकी हमला हुआ। दिल्ली से लाहौर के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में यह आतंकी हमला दिल्ली से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर पानीपत में हुआ था। इस हमले में लगभग 80 मुसाफिर मारे गए थे जिनमें से अधिकांश पाकिस्तानी नागरिक थे। उस समय इस साजिश की सुई पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा और 2006 में पुणे में बने एक हिंदू अतिवादी संगठन अभिनव भारत की ओर उठी।

समझौता एक्सप्रेस आतंकी हमला कई पहलुओं की वजह से बहुत पेचीदा बन गया था। इसमें एक सेवारत भारतीय सैन्य अधिकारी की संलिप्तता के आरोप सामने आ रहे थे। ऐसे में भारतीय जांच एजेंसियों ने पूरी एहतियात के साथ तफ्तीश का काम आगे बढ़ाया। वहीं अमेरिका इस नतीजे पर पहुंच गया कि हमले के संदिग्धों में से एक पाकिस्तान नागरिक और लश्कर से जुड़ा था और उसे आतंकी घोषित कराने के लिए वह संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी चला गया। जांच में स्वामी असीमानंद का नाम प्रमुख अभियुक्त के रूप में सामने आया जिसके तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे।

इस तरह यह मामला बहुत जटिल राजनीतिक समीकरणों में उलझ गया। उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार सत्ता में थी और अभिनव भारत के हिंदू जुड़ाव की वजह से‘हिंदू आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे जुमले इस्तेमाल होने लगे। इसे जिहादी आतंकवाद की तरह श्रेणीबद्ध किए जाने का भाजपा ने खुला विरोध किया जो उस समय विपक्ष में थी। इस मामले की जटिलता और इसके धार्मिक पहलू को देखते हुए इसकी जांच का जिम्मा राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए को सौंप दिया गया जिसने जून 2011 में आरोप पत्र दाखिल किया।

जैसा अनुमान लगाया जा रहा था कि न्यायिक पेचीदगियों के चलते मामले की जांच सुस्त पड़ती गई और आठ वर्ष बाद इस साल 20 मार्च को एनआइए की विशेष अदालत ने स्वामी असीमानंद सहित सभी चारों आरोपियों को बरी कर दिया। मामले पर टिप्पणी करते हुए विशेष अदालत के न्यायाधीश ने ‘गहरे दुख और भारी वेदना’ के साथ कहा कि ‘भरोसेमंद और स्वीकार्य साक्ष्यों के अभाव में हिंसा के ऐसे वीभत्स मामले में सजा नहीं दी जा सकी।’ अपराधियों को सजा दिलाने के लिए साक्ष्य जुटाने में एनआइए के अपर्याप्त प्रयासों से जुड़ी टिप्पणी में उन्होंने कहा कि ‘अहम साक्ष्यों की गुत्थी अभी भी सुलझना बाकी है।’

इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री मोदी ने समझौता ब्लास्ट मामले में आए फैसले को अपनी सुविधा के अनुसार भुनाने का प्रयास किया। प्रधानमंत्री ने वर्धा रैली में बहुसंख्यर्क हिंदुओं को लामबंद करने के लिए हिंदू आतंकवाद जैसा जुमला पेश करने वाली कांग्रेस को आड़े हाथों लिया। उनकी यह कोशिश अवसरवादी ही कही जा सकती है। ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसा शब्द गढ़ने के लिए कांग्रेस पर हमलावर होते हुए उन्होंने कहा, ‘दुनिया के सामने हिंदुओं को अपमानित करने वाली कांग्रेस को भला कैसे माफ किया जा सकता है? क्या हिंदू आतंकवाद जैसा शब्द सुनकर आप आहत नहीं हुए? आखिर शांति, भाईचारे और सद्भाव का पर्याय माने जाने वाले समुदाय को आतंकवाद से कैसे जोड़ा जा सकता है? हजारों वर्षों के इतिहास में आपको हिंदू आतंकवाद का एक भी मामला देखने को नहीं मिला होगा।’

प्रधानमंत्री का चुनावी लक्ष्य एकदम स्पष्ट था कि वह भाजपा को हिंदू हितों, गौरव और एकता की संरक्षक के रूप में पेश करें और कांग्रेस को मुस्लिम हितैषी बताकर उस पर राष्ट्रविरोधी होने का मुलम्मा चढ़ाएं। उनका यह दावा न केवल तथ्यों के आधार पर कहीं नहीं टिकता, बल्कि भारत जैसे विविधता से भरे देश के सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंचाने के लिहाज से भी खतरनाक है। कुछ तथ्यों पर गौर करना होगा। बीते सात दशकों में एशिया में तमाम किस्म के आतंक का बोलबाला रहा है।

इस दौरान हिंदू, मुस्लिम, सिख और बौद्ध जैसे धर्मों से कहीं न कहीं आतंक की कुछ जड़ें जुड़ी रही हैं। अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद वैश्विक स्तर पर जिहादी आतंक पर ध्यान केंद्रित होने के बावजूद आतंक को किसी एक धर्म के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। इसमें किसी एक का ही एकाधिकार नहीं है। श्रीलंका में एलटीटीई के रूप में जिस किस्म का आतंक हावी रहा या फिर एक हिंदू चरमपंथी द्वारा महात्मा गांधी की हत्या- ये सभी मामले आतंक की श्रेणी में ही आते हैं, फिर भी मोदी कहते हैं र्कि हिंदू समुदाय को आतंक के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। उनका यह दावा सही नहीं। भारत में हालिया घटनाक्रम से इसकी और परतें खुलती हैं।

वर्ष 2017 में जब मोदी ही प्रधानमंत्री थे तब एनआइए ने सुनिश्चित किया कि अजमेर ब्लास्ट मामले में आरएसएस से जुड़े एक व्यक्ति पर आरोप सिद्ध हो जाएं। इसके अलावा बीते साल दिसंबर में महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड ने मुंबई के नजदीक 12 लोगों को आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत गिरफ्तार किया। उस समय ऐसी खबरें आईं कि सनातन नाम की संस्था ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के लिए आतंकी हमले करने की साजिश कर रही थी। यहां यह दोहराना आवश्यक होगा कि आतंकवाद आतंकवाद ही होता है, भले ही उसे कोई अंजाम दे। इसमें धार्मिक जुड़ाव दूसरे पायदान पर आता है।

भारत जैसे देश में जहां तमाम किस्म के आतंकी हमले होते हैं वहां यही अपेक्षा की जाती है कि जांच और न्यायिक प्रक्रिया को ही सबसे ज्यादा वरीयता दी जाए और प्रधानमंत्री चुनावी फायदे के लिए उसे न भुनाएं। भारत पाकिस्तान से कहता रहा है कि वह मुंबई आतंकी हमले और हाल में पुलवामा हमले के दोषियों पर कानूनी शिकंजा कसे। ऐसे में समझौता ब्लास्ट मामले में अभियोजन को इस प्रकार आगे बढ़ाना ताकि पीड़ितों को इंसाफ मिल सके, विधिसम्मत शासन के प्रति भारतीय प्रतिबद्धता का प्रमाण होगा।

पाकिस्तान से इसी मानदंड का पालन करने की अपेक्षा की जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने वर्धा में आतंकवाद की चुनौती को जिस तरह पेश किया उसमें उन्हें सुधार करना चाहिए। मिथ्या बातों के सहारे हिंदू-मुस्लिम के बीच विभाजन की खाई बनाना सही नहीं होगार्। हिंदू और मुसलमान दोनों ही भारतीय नागरिक हैं जिन्हें यह हक हमारा संविधान देता है।

(लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसीज स्टडीज के निदेशक हैं)