[ प्रदीप सिंह ]: लोकसभा चुनाव सामने है, लेकिन कांग्रेस की दुविधा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि वह मोदी सरकार को हराने के लिए सब कुछ दांव पर लगाए या पार्टी के पुनरुद्धार की कोशिश करे। नरेंद्र मोदी पर आक्रमण के लिए उसने ऐसा मुद्दा चुना जो मोदी की सबसे बड़ी ताकत है। मोदी में तमाम कमियां खोजी जा सकती हैं, लेकिन शायद ही कोई मानने को तैयार होगा कि मोदी भ्रष्ट हैं। पहले चरण के मतदान में सिर्फ तीन हफ्ते रह गए हैं, लेकिन न तो मोदी के विरोध में बनने वाले 21 दलों के महागठबंधन का कहीं पता है और न ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम का। हाल यह है कि विपक्षी दल भाजपा पर जितना हमला कर रहे हैं उससे ज्यादा एक-दूसरे के प्रति आक्रामक हैं।

विपक्षी खेमे में बदलाव 

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन की सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में मंच पर जो दृश्य दिखा था वह भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता का सबब हो सकता था, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा में कम और विपक्षी खेमे में ज्यादा बदलाव आ गया। जो कांग्रेस कर्नाटक में बड़ी पार्टी होने के बावजूद छोटी पार्टी को मुख्यमंत्री पद देने को तैयार हो गई वह अब अपनी जमीनी हैसियत से ज्यादा सीटें मांग रही है। नतीजा यह हुआ कि कई राज्यों में उसके चुनावी गठबंधन अभी तक पुख्ता नहीं हुए हैं। कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में संभावित सहयोगियों ने पार्टी को किनारे कर दिया है। बिहार, झारखंड, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में गठबंधन की बात चल भी रही है और नहीं भी। महाराष्ट्र में कांग्रेस का एनसीपी से गठबंधन तो हो गया है, लेकिन कुछ सीटों पर पेच अभी फंसा हुआ है। ऐसे में इस बात की आशंका ज्यादा है कि कहीं उसका गठबंधन केमिस्ट्री बनने के बजाय अर्थमेटिक ही न रह जाए।

माया मिली न राम

कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि वह सब कुछ भूलकर पार्टी का जनाधार बढ़ाकर उसे पुनर्जीवित करने का प्रयास करे या किसी भी कीमत पर ऐसा गठबंधन बनाने का जिससे मोदी को हराया जा सके। मोदी को हराने में भी राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं तलाशने पर उसका ध्यान ज्यादा है। डर इस बात का है कि कहीं ऐसा न हो, ‘दुविधा में दोनों गए-माया मिली न राम।’ कांग्रेस की समस्या केवल गठबंधन के मोर्चे पर ही नहीं है। मुद्दों को लेकर कांग्रेस ज्यादा मुश्किल में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले के लिए राफेल सौदे का मुद्दा उठाकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लगवाया।

ईमानदार मोदी

आरोप वाले नारे तब चिपकते हैं जब आरोपी व्यक्ति की वैसी छवि हो। तीन बार गुजरात का मुख्यमंत्री रहने और पांच साल प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मोदी से हजार मुद्दों पर असहमत होने वाला भी मोदी को भ्रष्ट नहीं कह सकता। दरअसल ईमानदारी मोदी की सबसे बड़ी ताकत है। यह ताकत पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं के कहने या मोदी के दावे के कारण नहीं है। यह उनके दशकों के सार्वजनिक जीवन की वास्तविकता है।

‘चौकीदार चौर है’

17 साल से सत्ता में होने के बावजूद उनका परिवार किस हालत में है, यह किसी से छिपा नहीं है। अपनी इसी ईमानदारी की ताकत के बूते मोदी ने ‘चौकीदार चौर है’ के नारे का जवाब ‘मैं भी चौकीदार’ मुहिम से छेड़ दी। यह नारा सोशल मीडिया पर पहले दिन पूरी दुनिया में और भारत में दो दिन तक पहले नंबर पर ट्रेंड करता रहा। कांग्रेस अध्यक्ष ने मोदी की दूसरी ताकत को भी हल्के में लिया। अपने ऊपर होने वाले वार को अवसर में बदलने की कला में मोदी को महारत हासिल है। कांग्रेस कैसे भूल सकती है कि मौत का सौदागर बोलकर सोनिया गांधी ने कैसे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली थी। इसके अलावा मणिशंकर अय्यर ने चायवाला और प्रियंका गांधी ने नीच शब्द का इस्तेमाल किया तो मोदी ने उसको भी चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया।

विरोधी की कमजोरी पर आक्रमण

राजनीति में हमेशा यह याद रखना चाहिए कि अपने विरोधी की कमजोरी पर आक्रमण किया जाता है। नारे वही चलते हैं जिन्हें जनता सुनना चाहती है। 1971 में विपक्ष ने कहा, ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ और इंदिरा गांधी ने कहा, ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ।’ देश के लोगों ने इंदिरा गांधी की सुनी। संजय गांधी के राजनीतिक प्रादुर्भाव के बाद उन्हीं इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष ने नारा लगाया, ‘बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है।’ इस बार विपक्ष का नारा चल गया। 2009 के आम चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी ने मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहा। कोई सुनने को तैयार नहीं हुआ, पर 2014 आते-आते लोग उनके खिलाफ सब कुछ सुनने को तैयार थे। संप्रग सरकार के तमाम घोटालों के बावजूद भाजपा ने इसका खयाल रखा कि मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर सवाल न उठाए।

कांग्रेस की नई स्टार कैंपेनर

प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस की नई स्टार कैंपेनर हैं। जनसंपर्क और राजनीतिक गतिविधि में वह राहुल गांधी से ज्यादा सहज नजर आती हैं। उनके महासचिव बनने की घोषणा 20 जनवरी को हुई और वह पहली बार लखनऊ 11 फरवरी को पहुंचीं। दो-तीन दिन रात-रात भर बैठक करके संदेश दिया कि काम बहुत ज्यादा है और समय कम, लेकिन वह 14 फरवरी को लखनऊ से निकलीं और फिर सीधे 18 मार्च को प्रयागराज पहुंचीं। इस दौरान उनके राजनीतिक क्रियाकलाप की कोई जानकारी नहीं है। जलमार्ग से जाने का विचार एक नया और अच्छा विचार था। इस कार्यक्रम के जरिये वह गईं तो कांग्रेस का प्रचार करने थीं, लेकिन अनजाने में मोदी सरकार के काम का भी प्रचार कर गईं।

गंगा जल से आचमन

वह संगम के तट पहुंचीं और वहां गंगा जल से आचमन किया। इस तरह से पूरे देश को बता दिया कि मोदी सरकार की नमामि गंगे परियोजना ने इतनी प्रगति कर ली है कि प्रयाग में गंगा जल आचमन लायक हो गया है। प्रयागराज से वह फिर जलमार्ग से स्टीमर के जरिये यात्रा पर निकलीं। वही जलमार्ग जिसे मोदी सरकार ने बनवाया है और जिसके होने पर कांग्रेस के लोग सवाल उठाते रहते हैं। इसके बाद वह मोदी सरकार के बनवाए बनारस के सुंदर और स्वच्छ अस्सी घाट पर पहुंचीं और फिर कहा कि मोदी सरकार ने कोई काम नहीं किया है।

भाग्य भी मोदी के साथ

एक बात तो माननी पड़ेगी कि सरकार का काम ही नहीं, भाग्य भी नरेंद्र मोदी का साथ दे रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें मुख्य विरोधी दल के नेता के रूप में भ्रष्टाचार से बजबजाती सरकार मिली थी। जिसके खिलाफ लोग कुछ भी सुनने को तैयार थे। पांच साल सत्ता में रहने के बाद उन्हें मुख्य विपक्षी दल के नेता के रूप में राहुल गांधी मिले हैं। जो विरोधी के खिलाफ गोल कम और सेल्फ गोल ज्यादा करते हैं। पिछले चुनाव में चाय वाला दस साल की सरकार पर भारी पड़ा था। ऐसा लगता है कि इस बार ‘मैं भी चौकीदार’ अभियान पांच साल की एंटी इन्कम्बेंसी पर भारी पड़ जाएगा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )