[ एमजे अकबर ]: अमेरिका में संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई के राजदूत यूसुफ अल ओतेबा ने बीते दिनों एक बड़ा दावा किया। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक वर्चुअल कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि उनका देश भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता कर रहा है। यह बात कुछ अजीब इसलिए थी, क्योंकि उनसे इस बारे में कोई सवाल ही नहीं किया गया था। उनसे पूछा गया था कि क्या उनका देश अफगान शांति प्रक्रिया में पाकिस्तान को और उपयोगी बनाने के लिए उसे समझाने का प्रयास करेगा? इसके जवाब में उन्होंने खुद ही भारत और पाकिस्तान को लेकर यह टिप्पणी की। स्पष्ट है कि ओतेबा कूटनीति की पिच का अपने मुताबिक इस्तेमाल कर रहे थे, क्योंकि यह एकदम स्पष्ट है कि भारत, पाकिस्तान और यूएई के बीच कोई त्रिपक्षीय वार्ता नहीं हो रही है। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के बिल्कुल संपर्क में ही नहीं हैं। विशेषकर तब जब दोनों देशों के बीच सीमा पर तनाव घटाने को लेकर, जो इन परमाणु शक्तियों के बीच नागरिक सीमा न रहकर सैन्य सीमा बन गई है। इसीलिए दोनों देशों के सैन्य अभियानों के महानिदेशक तनाव घटाने की संभावनाओं को तलाशने के लिए एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं। यह सब उनकी जानकारी के बिना संभव नहीं है, जिन पर राष्ट्रीय सुरक्षा का दारोमदार है।

सभी प्रकार की वार्ताएं द्विपक्षीय स्तर पर होनी चाहिए

भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता की तार्किकता को लेकर कोई संदेह नहीं। संबंधों को शांतिपूर्ण एवं स्थायित्व रूप देने के लिए किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने कभी कोई हिचक नहीं दिखाई। सिर्फ एक उदाहरण से समझ लीजिए कि वर्ष 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री काहिरा से लौटते समय तबके पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान से वार्ता के लिए कराची में रुक गए थे। इसके बावजूद पाकिस्तान ने उसी साल भारत के साथ सीमा पर विश्वासघात किया। पाकिस्तान से वार्ता किस परिवेश में संभव हो सकती है, उसे लेकर स्पष्टता बहुत आवश्यक है। भारतीय कूटनीति का यही तकाजा रहा है कि सभी प्रकार की वार्ताएं द्विपक्षीय स्तर पर होनी चाहिए। वार्ताओं को लेकर भारत का अनुभव खट्टा ही रहा है। इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू द्वारा लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने वाले कदम के साथ ही हो गई थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पर अवश्य कड़ा रुख अपनाया था कि वार्ता और आतंक साथ-साथ नहीं चल सकते। दोनों देशों के बीच अंतिम शिखर वार्ता जो जुलाई 2001 में आगरा में हुई थी, उसमें पाकिस्तान ने मसलों को द्विपक्षीय स्तर पर सुलझाने की शर्त पर तो सहमति जताई, लेकिन आंतकवाद वाली दूसरी शर्त से वह मुकर गया। गत सात वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार दोहराया है कि इन दोनों शर्तों पर कोई रियायत संभव नहीं।

पाकिस्तान ने हमेशा से द्विपक्षीय विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास किया

भारत के उलट पाकिस्तान ने हमेशा से द्विपक्षीय विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास किया है। फिर इसमें चाहे उसे महाशक्तियों को या क्षेत्रीय ताकतों को जोड़ना हो या संयुक्त राष्ट्र के समक्ष ही गुहार क्यों न लगानी पड़ी हो। इस्लामाबाद में कुछ आशावादियों ने तो इसमें चीन तक को शामिल करने के भी प्रयास किए। असल में इस्लामाबाद किसी तीसरे पक्ष को इसलिए शामिल करना चाहता है ताकि वह भारत पर जम्मू-कश्मीर की स्थिति से समझौता करने के लिए दबाव बनाए और पाकिस्तान उसे अपनी ‘जीत’ के तौर पर पेश कर सके। भारत के साथ वार्ता को लेकर पाकिस्तानी नीति को एक वाक्य में इस प्रकार समेटा जा सकता है कि मानों कोई एक पैर ब्रेक पर मजबूती से टिकाकर ही आगे बढ़ रहा हो। यह खेल अभी भी जारी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी दोनों यह कह चुके हैं कि भारत के साथ तब तक वार्ता संभव नहीं जब तक वह जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को बहाल नहीं करता।

मित्रता का अर्थ यह नहीं कि सिद्धांतों की बलि दे दी जाए

जहां तक यूएई की बात है तो वह भारत का बहुत घनिष्ठ मित्र है। यह मित्रता एक निर्विवाद तथ्य है, लेकिन मित्रता का अर्थ यह नहीं कि उसमें सिद्धांतों की बलि दे दी जाए। एक बार द्विपक्षीयता के सिद्धांत से समझौता किया गया तो भारत के मित्र देशों की सूची से तीसरे देश का नाम कभी भी उछाला जा सकता है। क्या हम कल इस पर बहस करेंगे कि अमेरिका भारत का भरोसेमंद मित्र नहीं है? यदि यह स्वीकार करते हैं तो क्या हम उसके साथ जुड़ी अच्छी भावनाएं और उसके दर्जे को अनदेखा कर सकते हैं कि वाशिंगटन को तो वार्ता की मेज पर लाया ही जाएगा?

मित्र देशों ने द्विपक्षीय विवाद को दिल्ली के नजरिये से देखने के बजाय अपने ही चश्मे से देखा

इतिहास इसका साक्षी रहा है कि मित्र देशों ने इस द्विपक्षीय विवाद को दिल्ली के नजरिये से देखने के बजाय अपने ही चश्मे से देखा है। अब हम उस कालखंड से आगे बढ़ चुके हैं, जब ब्रिटेन यह सोचता था कि इसमें हस्तक्षेप उसका स्वाभाविक अधिकार है। या फिर उस दौर से भी जब अमेरिका अपने दक्षिण एशियाई समीकरणों के अनुकूल किसी किस्म के समझौते पर दबाव बढ़ा रहा था। हमारी विदेश नीति उन गलियारों में वापस नहीं लौट सकती, जिन्हें वह काफी पीछे छोड़ चुकी है।

यदि पाक भारत के साथ वार्ता के लिए तैयार है तो उसके नेताओं को दिल्ली में फोन लगाना होगा

अगर पाकिस्तान भारत के साथ वार्ता के लिए तैयार है तो उसके नेताओं को एक महफूज टेलीफोन चुनकर दिल्ली में एक फोन लगाना होगा। भारत और पाकिस्तान ऐसे लोगों को चुन सकते हैं, जो दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच भविष्य के सम्मेलन की रूपरेखा तैयार कर सकें। इतिहास में गंवाए अवसरों पर ध्यान नहीं देना होगा, जैसा इंदिरा गांधी ने 2 जुलाई, 1972 को शिमला समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ गंवा दिया था। उस क्षण कश्मीर विवाद को हमेशा के लिए सुलझाया जा सकता था, लेकिन हम एक परास्त, पस्त और हताश पड़े पाकिस्तान से केवल ‘जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के सम्मान की प्रतिबद्धता’ ही ले सके, जिसे ‘स्थायी शांति की कुंजी’ बताया गया।

भारत ने अपने रवैये में भविष्य की वार्ताओं के लिए कुछ लचीलापन छोड़ दिया

भारत ने अपने रवैये में भविष्य की वार्ताओं के लिए कुछ लचीलापन छोड़ दिया। उस समझौते के अनुसार, ‘दोनों देश इस पर सहमत हुए कि उनके बीच मतभेद द्विपक्षीय वार्ता के जरिये शांतिपूर्ण तरीके से या परस्पर सहमति से स्वीकृत किसी अन्य शांतिपूर्ण तरीके से ही सुलझाए जाएंगे।’ इसमें एक सन्निहित शर्त है कि किसी भी अन्य तरीके में दिल्ली की सहमति आवश्यक होगी। संभव है कि ओतेबा अपने मेजबान अमेरिकियों के बीच इस क्षेत्र में यूएई के रुतबे को दिखाने के लिए कुछ प्रयास कर रहे हों। ऐसे प्रयासों को सुर्खियों में जगह नहीं मिलनी चाहिए।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )