[ ब्रह्मा चेलानी ]: कम्युनिस्ट शासन वाले नेपाल से जुड़े कुछ घटनाक्रम उसके चीन की ओर झुकाव का संकेत करते हैं। ये संकेत भारत के लिए खतरे की घंटी हैं। भारत नेपाल में की गई गलती का खामियाजा भुगत रहा है। नेपाल में संवैधानिक राजवंश को खत्म कर वहां कम्युनिस्ट वर्चस्व स्थापित कराकर भारत ने बड़ी भूल की, जिसकी वह आज कीमत चुका रहा है। प्रतीकात्मक रूप से नेपाल भारत के करीब माना जाता है, लेकिन आज वहां मुखर रूप से चीन समर्थक सरकार सत्ता में है जो गाहे-बगाहे भारत को आंखें दिखाती रहती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नेपाल के नए प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद ओली को लुभाने की कोशिश के बावजूद वह अपनी चीन हितैषी नीतियों पर अड़े हैं। ओली सरकार ने एक ओर बिम्सटेक समूह के तहत पहली बार किए जा रहे आतंक विरोधी सैन्य अभ्यास से कदम पीछे खींच लिए तो दूसरी ओर भारतीय हितों की अनदेखी कर चीन के साथ एक पारगमन परिवहन का अनुबंध किया। शुरुआत में नेपाल ने ‘मिलेक्स 2018’ नाम से होने वाले सैन्य अभ्यास के लिए सैन्य दस्ता भेजने पर सहमति जताई थी। काठमांडू में बिम्सटेक सम्मेलन के दौरान पीएम मोदी के भाषण में इसका उल्लेख भी था। इसके साथ ही नेपाल मिलेक्स 2018 के समापन समारोह में अपने सैन्य प्रमुख जनरल पूरण चंद्र थापा को भी भेजने वाला था, परंतु शक्तिशाली चीनी लॉबी के दबाव में उसने इस फैसले को पलट दिया। इस लॉबी में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा है।

ओली सरकार ने एक तरह से भारत को कूटनीतिक पटकनी दी। नेपाल ने जहां मिलेक्स 2018 में शिरकत करने से कन्नी काट ली वहीं वह चीन के साथ साझा सैन्य अभ्यास करने को तैयार हो गया। यह अभ्यास भी आतंक विरोधी अभियान पर केंद्रित है। इसका अर्थ यही है कि ओली सरकार को चीन के साथ सैन्य अभ्यास से कोई गुरेज नहीं, लेकिन वह भारत के साथ सहज नहीं।

बिम्सेटक के लिए नेपाल गए प्रधानमंत्री मोदी का बीते चार वर्षों में यह चौथा नेपाल दौरा था। किसी भी अन्य भारतीय प्रधानमंत्री ने नेपाल को इतनी तवज्जो नहीं दी, लेकिन मोदी को स्वदेश लौटे हुए कुछ वक्त भी नहीं बीता था कि ओली सरकार ने नेपाल-चीन पारगमन परिवहन अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए। भौगोलिक स्थिति के कारण नेपाल भारतीय बंदरगाहों पर ही निर्भर है। जहां नेपाल से कोलकाता की दूरी 933 किलोमीटर है वहीं सबसे करीबी चीनी बंदरगाह भी नेपाल से 3,300 किमी दूर है।

हालांकि पारगमन अनुबंध के जरिये नेपाल भारत पर पूरी तरह से निर्भरता खत्म करने की मंशा नहीं पाले हुए है। इसके बजाय वह भारत की भौगोलिक लाभ वाली स्थिति को कमजोर करने के साथ ही पारगमन में उसके वर्चस्व को तोड़ना चाहता है। उक्त समझौते के जरिये ओली सरकार भारत-नेपाल सीमा पर होने वाले गतिरोध का तोड़ निकाल रही है जो नेपाल में भारत समर्थित मधेसी कार्यकर्ताओं के कारण पैदा होता है। इस साल मई में भी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल का आधिकारिक दौरा किया था।

नेपाल में धन-बल इस्तेमाल करने की चीनी कोशिशों के उलट मोदी का गर्मजोशी भरा दौरा भारत और नेपाल के ऐतिहासिक रूप से करीबी सांस्कृतिक, धार्मिक एवं व्यक्तिगत संबंधों का स्मरण कराने पर केंद्रित था। मोदी के भारत लौटने के पांच दिन बाद ही चीन के सहयोग से वहां एक नई एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी यानी एनसीपी की स्थापना हुई जिसमें ओली की माक्र्सवादी-लेनिनवादी पार्टी और माओवादी समूहों को विलय हो गया। पहले तो बीजिंग ने इस एकीकृत पार्टी के जन्म में भूमिका निभाई और फिर इस पूरे घटनाक्रम की सराहना की।

नेपाली कम्युनिस्टों को मिली शांतिपूर्ण जीत ने उनर्का ंहसक अतीत भुलाने में मदद की है। ओली 1970-80 के दशक में जेल की सजा काट चुके हैं। उन्हें गुरिल्ला कम्युनिस्ट के तौर पर नेपाली राज्य के खिलाफ लड़ाई छेड़ने के जुर्म में कैद किया गया था। देश से राजशाही खत्म करने के लिए माओवादियों ने 1996 में ‘जन क्रांति’ के जरिये खूनी बगावत की। इसके एक दशक बाद भारत ने माओवादियों और सरकार के बीच शांति समझौता कराया। माओवादियों की मुख्य मांग राजशाही को खत्म करने की थी। उनके उन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों से गहरे रिश्ते थे जिनके समर्थन के बूते मनमोहन सिंह सरकार टिकी हुई थी।

भारत द्वारा की गई इस भारी भूल ने कम्युनिस्टों को बहुत ताकतवर बना दिया। भारत ने नेपाल को हिंदू राष्ट्र से चीन की ओर झुकाव वाले कम्युनिस्ट शासित देश में बदल दिया। नई एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी की अब नेपाल में तूती बोल रही है। सभी सरकारी संस्थानों में उसका बोलबाला है। नेपाल को साधे रखने में बीजिंग पूरी तरह से सक्रिय है। वहां चुनावों से पहले बीजिंग ने कथित रूप से धड़ों में बंटे कम्युनिस्टों को एकजुट करने और उनके चुनाव अभियान को वित्तीय मदद भी मुहैया कराई।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सहित अधिकांश कम्युनिस्ट दलों ने हिंसक तौर-तरीकों से ही सत्ता हथियाई है। फिलहाल दुनिया में कम्युनिस्ट शासन वाले छह देश हैं जिनमें से नेपाल इकलौता है जहां लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार है। आज यक्ष प्रश्न यह है कि क्या नेपाली कम्युनिस्ट सरकार लोकतंत्र को जीवंत रखेगी या चरणबद्ध रूप से उसका गला घोंटेगी? क्या वह चेकोस्लोवाकिया का अनुसरण करेगी जहां 1946 में चुनावों के जरिये कम्युनिस्ट सत्ता में आए। 1948 तक चेकोस्लोवाक कम्युनिस्टों ने सरकार का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेकर लोकतंत्र का दम ही घोंट दिया।

नेपाली प्रधानमंत्री पहले से ही संस्थानों की स्वायत्तता के पर कतरने के साथ ही वहां अपने वफादारों को नियुक्त करने में जुटे हैं। कम्युनिस्टों के पास संसद में लगभग दो-तिहाई बहुमत के साथ ही सात में से छह राज्यों में सरकार है। सभी संवैधानिक एवं अन्य प्रमुख पदों पर कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट काबिज होते जा रहे हैं। न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग तक में उन्हें समायोजित किया जा रहा है। अगर व्यवस्था पर प्रहार का यही सिलसिला कायम रहा तो नेपाल चेकोस्लोवाकिया की तरह एकल पार्टी वाला तंत्र बन जाएगा। कमजोर विपक्ष, दब्बू न्यायपालिका और दबंग कार्यपालिका नेपाल में निरंकुश शासन की जमीन तैयार कर रही है।

नेपाल के आंतरिक घटनाक्रम का भारतीय सुरक्षा से सीधा सरोकार है। आखिरकार भारत और नेपाल दुनिया में सबसे लंबी खुली सीमाओं में से एक साझा करते हैं, जहां पासपोर्ट के बिना ही आवाजाही होती है। खुली सीमा से नेपाल भारतीय सुरक्षा के लिए अहम बन जाता है। नेपाल में चीन की लगातार बढ़ती पैठ और नेपाल के बीजिंग की ओर बढ़ते झुकाव के भारतीय सुरक्षा के लिए गंभीर निहितार्थ हैं।

भारत को नेपाल में सत्तारूढ़ कम्युनिस्टों के प्रति नरम रवैया त्यागकर उन्हें अपने हितों का विरोधी मानना चाहिए। नई दिल्ली को नेपाली कम्युनिस्टों की इस धारणा को तोड़ना चाहिए कि वे भारत को आंखें भी दिखाते रहें और उन्हें इसकी कोई कीमत भी न चुकानी पड़े। भारत के पास और कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि नेपाल में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी उसके हितों को नुकसान पहुंचा रही है।

[ लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं ]