[हरेंद्र प्रताप]। माओवाद से प्रेरित चारू मजूमदार ने 22 अप्रैल 1969 को जिस नक्सली संगठन की घोषणा की थी उसका नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माक्र्सवादी-लेनिनवादी) रखा था। ऐसा इसलिए किया गया था, क्योंकि 1962 के चीनी विश्वसघात का जख्म गहरा था। दशकों बाद 2004 में दो नक्सली संगठनों-पीपुल्स वार ग्रुप और एमसीसी के विलय के बाद जो संगठन बना उसके नाम से माक्र्स और लेनिन हट गया, माओ का जुड़ा गया। सोवियत क्रांति से प्रभावित होकर जिन देशों के लोगों ने अपने देश में कम्युनिस्ट पाटी का संगठन खड़ा किया उनमें भारत भी एक था। सोवियत संघ भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के विस्तार में हर तरह की मदद कर रहा था।

चीन में माओ की सफल क्रांति के पहले वैश्विक साम्यवाद पर सोवियत संघ का एकाधिकार था परंतु उसे माओ से चुनौती मिलनी शुरू हो गई थी। इसके चलते भारतीय कम्युनिस्ट क्रांति के लिए चीन का रास्ता सही बताने लगे थे, लेकिन जब भारतीय कम्युनिस्टों का एक दल सोवियत संघ पहुंचा तो स्टालिन चीन का नाम सुनकर नाराज हो गया। इसके कारण भारतीय कम्युनिस्टों ने कहा, ‘भारतीय परिस्थितियों में वे लेनिनवाद के रास्ते पर ही चलेंगे।’ सोवियत संघ और चीन के बीच फंसी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा का अंतर्विरोध 1962 के चीनी आक्रमण के कारण कुछ समय के दब गया, लेकिन 1964 में उसमें विभाजन हो गया। भाकपा से अलग होकर चीन समर्थक माकपा का जन्म हुआ। चारू मजूमदार इसी माकपा का एक सक्रिय कार्यकर्ता था। 1962 के चीनी आक्रमण के समय अन्य कम्युनिस्टों की तरह उसने भी भारत को ही दोषी ठहराया था।

कम्युनिस्टों का एक प्रभावी नारा था, जो जमीन को जोते-बोवे वही जमीन का मालिक होवे। तब जमीन मालिक खेतिहर मजदूरों को उपज का एक चौथाई देते थे। चारू ने तेभागा आंदोलन चलाया यानी तीन भाग में एक भाग मजदूरों को मिले। इसके कारण वह उत्तर बंगाल में खेतिहर मजदूरों का मसीहा बन गया। इसी दौरान उसने पार्टी नेताओं को एक पत्र लिखकर कहा कि भारत में सशस्त्र क्रांति सोवियत संघ की तरह न होकर चीनी क्रांति की तरह हो और यह चे ग्वेरा की छापामार युद्ध की तरह नहीं, बल्कि माओ के जन युद्ध की तरह हो। उसने लिखा कि वह उनसे ही सहयोग लेगा-देगा जो माओ को माक्र्सवाद और लेनिनवाद का सच्चा उत्तराधिकारी मानता हो।

1967 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई। 2 मार्च 1967 को अजय मुखर्जी के नेतृत्व में संयुक्त फ्रंट की सरकार बनी जिसमें माकपा भी शामिल थी। इसके अगले दिन नक्सलबाड़ी नामक इलाके में परंपरागत हथियारों से लैस खेतिहर मजदूरों ने एक जमीन पर लाल झंडा गाड़कर कब्जा कर लिया। धीरे-धीरे जमीन पर लाल झंडा गाड़कर कब्जा करने का क्रम तेजी से बढ़ने लगा। 23 मई 1967 को गश्त पर निकले पुलिस वालों पर ग्रामीणों ने कुल्हाड़ी- भाले आदि से हमला कर दिया। दो दिन बाद इस हमले में घायल इंस्पेक्टर की मौत हो गई। इसी दिन पुलिस पर फिर हमला हुआ। इस बार पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें महिलाओं-बच्चों समेत दस लोग मारे गए।

सरकार में शामिल माकपा संकट में पड़ गई। उसके दबाव में नक्सलबाड़ी में पुलिस के जाने पर रोक लगा दी गई। इसी के साथ माओवाद नक्सलवाद के तौर पर जाना जाने लगा। जल्द ही चारू मजूमदार ने माकपा से दूरी बनाकर नक्सलबाड़ी को मुक्त क्षेत्र घोषित कर दिया। 28 जून 1967 को चीन के पीकिंग रेडियो ने इस मुक्त क्षेत्र का स्वागत किया। सामाजिक एवं आर्थिक शोषण और सामंती मानसिकता के खिलाफ हथियारों के बल पर शुरू हुए इस हिंसक आंदोलन को कुछ पढ़े-लिखे लोगों का समर्थन भी मिलने लगा। आजकल जिन शहरी नक्सलियों की खूब चर्चा हो रही है वे पहले भी थे। चारू मजूमदार की ओर से शुरू किया गया नक्सली आंदोलन शुरू से ही वैचारिक भटकाव का शिकार होता रहा।

चीन-पाकिस्तान की दोस्ती उस समय भी चर्चा में थी। चारू मजूमदार ने बांग्लादेश मुक्ति का विरोध किया, लेकिन उसके साथी बांग्लादेश के उदय के पक्ष में थे। 1972 में चारू मजूमदार का निधन हो गया। उसने जो संगठन खड़ा किया वह माक्र्स-लेनिन और माओत्सेतुंग के बीच पेंडुलम की तरह झूलता रहा। जिस पश्चिम बंगाल से यह आंदोलन शुरू हुआ वहां वह अपनी जड़ें जमाने में असफल रहा। इस आंदोलन के जो तमाम नेता कभी चुनाव बहिष्कार की बात करते थे वे धीरे-धीरे भूमिगत जीवन त्यागकर लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो गए, लेकिन आंध्र, बिहार, महाराष्ट्र और ओडिशा में विभिन्न गुटों में सक्रिय नक्सली संगठनों को अवैध वसूली का ऐसा चस्का लगा कि वे हिंसा छोड़ने को तैयार नहीं हुए। 1990 के दशक में साम्यवादी सोवियत संघ के विघटन और चीन द्वारा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के कारण नक्सलियों, नेताओं और उनके समर्थकों का मनोबल टूटने लगा। वे वैचारिक तौर पर कंगाल हो गए। बाद में उन्होंने एक रणनीति के तहत सार्वजनिक तौर पर माओ का नाम लेना छोड़ दिया, क्योंकि लोग उन्हें चीन का दलाल समझते थे।

2009 में जब श्रीलंका में तमिल अलगाववादी संगठन लिट्टे की पराजय हुई तो भयभीत नक्सलियों ने एक नीति पत्र के जरिये भारत में सत्ता छीनने की घोषणा कर डाली थी, क्योंकि उन्हें डर था कि उनका कैडर अब कष्टकारी भूमिगत जीवन छोड़ना शुरू कर देगा। नक्सली संगठन चाहे जैसा दावा क्यों न करें, वे भारत की एकता और अखंडता के बैरी ही अधिक हैं। वे अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ हैं, इसकी पुष्टि जनवरी 2013 के उनके उस बयान से होती है जिसमें उन्होंने संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की निंदा की थी।

माओवादी अथवा नक्सली गरीबों-आदिवासियों के हक की लड़ाई के नाम पर न केवल विकास कार्य को बाधित कर रहे हैं, बल्कि हथियारों के बल पर पैसे की उगाही करके करोड़पति भी होते जा रहे हैं। वे परंपरागत हथियारों केबदले आधुनिक हथियारों का जखीरा भी खड़ा कर रहे हैं। हालांकि विश्व में कहीं भी कोई साम्यवादी मॉडल ऐसा नहीं बचा जिसे वे भारत की जमीन पर उतार सकें, फिर भी वे किसी सनक में हिंसा का रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं। उनका सिकुड़ता दायरा उनके अंत की गवाही दे रहा है। उनके बौद्धिक पहरूये भी निष्प्रभावी होकर कालबाह्य हो रहे हैं। हालांकि भारत की विशाल सेना के रहते नक्सलियों की ओर से सत्ता छीनने की कल्पना भी हास्यास्पद लगती है परंतु लेवी खोर जमात डींग हांकने में कंजूसी नहीं बरतना चाहती।

आज दुनिया साम्यवादी मॉडल को नकार चुकी है तब इस पर हैरानी ही होती है कि भारत में अब भी कुछ लोग उसके शव के पास खड़े होकर हसीन सपने देखने में लगे हुए हैं। यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा कि पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का नक्सलियों से संपर्क था या नहीं, लेकिन उनकी गिरफ्तारी के बाद कुछ लोग जैसी हाय-तौबा मचा रहे हैं उससे इस पर संदेह होता है कि उनका गैर कानूनी कार्यों से कोई लेना-देना नहीं। पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तार लोगों के समर्थक इस तरह बातें कर रहे हैं जैसे वे ही पुलिस और जज हों।

(लेखक बिहार विधानपरिषद के पूर्व सदस्य हैं)