[ प्रणय कुमार ]: गुलाम नबी आजाद की राज्यसभा से विदाई-बेला पर भावुक दृश्यों के आलोक में भारतीय मन-मिजाज और संसदीय परंपरा को बेहतर ढंग से जाना-समझा जा सकता है। यह देश अपनी प्रकृति-परंपरा में औरों से बिल्कुल अलग है। इसे किसी और चश्मे से देखने पर केवल निराशा ही हाथ लगेगी, आधा-अधूरा निष्कर्ष ही प्राप्त होगा, पर गहराई में उतरने पर कोई सहज ही अद्वितीय अनुभव और सार्थक जीवन-मूल्यों की थाती पा जाएगा। यहां प्रीति-कलह साथ-साथ चलते हैं। भारत की रीति-नीति-प्रकृति से अनजान व्यक्ति को गांवों-चौराहों-चौपालों पर चाय के साथ होने वाली गर्मागर्म बहसों को देखकर अचानक लड़ाई-झगड़े का भ्रम हो उठेगा, परंतु वे चर्चाएं हमारे विचार विनिमय के जीवंत प्रमाण हैं।

मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं

यहां मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद की स्थायी गांठ को कोई नहीं पालना चाहता और मतभेद चाहे विरोध के स्तर तक क्यों न चले जाएं, परंतु विशेष अवसरों पर साथ निभाना और सहयोग देना हमें बखूबी आता है। हमारे यहां दोस्ती तो दोस्ती, दुश्मनी के भी अपने उसूल हैं, मर्यादाएं हैं। मान-मर्यादा हमारी परंपरा का सबसे मान्य, परिचित और प्रचलित शब्द है। हम अपने-पराए सभी को मुक्त कंठ से गले लगाते हैं, भिन्न विचारों का केवल सम्मान ही नहीं करते, अपितु एक ही परिवार में रहते हुए भिन्न-भिन्न विचारों को जीते-समझते हैं और विरोध की रौ में बहकर कभी लोक-मर्यादाओं को नहीं तोड़ते। मर्यादा तोड़ने वाला चाहे कितना भी क्रांतिकारी, प्रतिभाशाली क्यों न हो, पर हमारा देश उसे सिर-माथे नहीं बिठाता। सार्वजनिक जीवन जीने वालों से तो हम इस मर्यादा के पालन की और अधिक अपेक्षा रखते हैं। यही भारत की रीति है, नीति है, प्रकृति है और संस्कृति है।

पीएम मोदी और कांग्रेसी नेता आजाद के वक्तव्यों से महान संसदीय परंपरा का परिचय मिलता है

प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेसी नेता आजाद के वक्तव्यों से भारत की महान संसदीय परंपरा का परिचय मिलता है। संसदीय परंपरा की मान-मर्यादा, रीति-नीति-संस्कृति का परिचय मिलता है। आज की राजनीति में कई बार इसका अभाव देखने को मिलता है। यह राजनीति की नई पीढ़ी के लिए सीखने वाली बात है कि भिन्न दल और विचारधारा के होते हुए भी आपस में कैसे बेहतर संबंध और संवाद कायम रखा जा सकता है? कैसे एक-दूसरे के साथ सहयोग और सामंजस्य का भाव विकसित किया जा सकता है। यह सहयोग-समन्वय ही तो भारत की संस्कृति का मूल स्वर है। हमने लोकतंत्र को केवल एक शासन पद्धत्ति के रूप में ही नहीं स्वीकारा, बल्कि उसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाया। लोकतंत्र हमारे लिए जीने का दर्शन है, आचार-व्यवहार-संस्कार है। कतिपय विरोध-आंदोलनों आदि के आधार पर जो लोग भारत और भारत के लोकतंत्र को देखने-जानने-समझने का प्रयास करते हैं, उन्हें संपूर्णता एवं समग्रता में भारत कभी समझ नहीं आएगा। भारत को समझने के लिए भारत की जड़ों से जुड़ना पड़ेगा, उसके मर्म को समझना पड़ेगा। उसकी आत्मा और संवेदना तक पहुंचना पड़ेगा। यहां गहरे पानी पैठने से ही मोती हाथ आएगा, अन्यथा ठगे-ठिठके रहेंगें।

आतंकी घटना के संदर्भ में आजाद का कथन, ‘‘खुदा तूने ये क्या किया..मैं क्या जवाब दूं?

लोक मंगल की कामना और प्राणि-मात्र के प्रति संवेदना ही हमारी सामूहिक चेतना का ध्येय है, आधार है। आतंकी घटना के संदर्भ में आजाद के इस कथन, ‘‘खुदा तूने ये क्या किया..मैं क्या जवाब दूं? इन बच्चों को... इनमें से किसी ने अपने पिता को गंवाया तो किसी ने मां को..।’’ में यही चेतना-संवेदना छिपी है। कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने की अपील, आतंकवाद के खात्मे की दुआ और उम्मीद के पीछे भी यह संवेदना ही है। यह संवेदनशीलता ही भारतीय सामाजिक-सार्वजनिक और कुछ हद तक राजनीतिक जीवन का भी मर्म है। जो इसे जीता है, हमारी स्मृतियों में अमर हो जाता है। उनके इस बयान ने सभी का दिल जीता कि ‘‘मैं उन खुशकिस्मत लोगों में हूं जो कभी पाकिस्तान नहीं गया, पर जब मैं वहां के बारे में पढ़ता हूं या सुनता हूं तो मुझे गौरव महसूस होता है कि हम हिंदुस्तानी मुसलमान हैं। विश्व में किसी मुसलमान को यदि गौरव होना चाहिए तो हिंदुस्तान के मुसलमान को होना चाहिए।’’

विभाजन की राजनीति करने वालों को दी नसीहत

उन्होंने अपने इस बयान से ऐसे सभी लोगों को गहरी नसीहत दी है, जो विद्वेष एवं सांप्रदायिकता की विषबेल को सींचकर विभाजन की राजनीति करते हैं। आजाद के साथ बिताए गए पलों-संस्मरणों को साझा करते हुए भावुक हो उठना, सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनके योगदान की मुक्त कंठ से प्रशंसा करना, प्रधानमंत्री मोदी की उदारता,संवेदनशीलता का परिचायक है। कृतज्ञता भारतीय संस्कृति का मूल स्वर है। उसे निभाकर प्रधानमंत्री ने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर स्वस्थ लोकतांत्रिक एवं सनातन परंपरा का निर्वाह किया है। ऐसे दृश्य भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। दुर्भाग्य से इन दिनों ऐसे दृश्य कुछ दुर्लभ से हो गए हैं।

संसदीय व्यवस्था में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सहयोग-सहकार का भाव होना चाहिए

संसदीय व्यवस्था में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सतत संवाद-सहमति, सहयोग-सहकार, स्वीकार-सम्मान का भाव प्रबल होना ही चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसी में संसदीय परंपरा की महिमा और गरिमा है। संभव है, इसे कुछ लोग कोरी राजनीति कहकर विशेष महत्व न दें, बल्कि सीधे खारिज कर दें, परंतु मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में ऐसी राजनीति की महती आवश्यकता है। ऐसी राजनीति ही राष्ट्र-नीति बनने की सामथ्र्य-संभावना रखती है। ऐसी राजनीति से ही देश एवं व्यवस्था का सुचारु संचालन संभव होगा। केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति से देश को कुछ भी हासिल नहीं होगा। विपक्ष को साथ लेना यदि सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है तो विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर सरकार का साथ दे, सहयोग करे, जनभावनाओं की मुखर अभिव्यक्ति के साथ-साथ विधायी एवं संसदीय प्रक्रिया एवं कामकाज को गति प्रदान करे। लोकतंत्र में सरकार न्यासी और विपक्ष प्रहरी की भूमिका निभाए- न ये निरंकुश हों, न वे अवरोधक।

( लेखक शिक्षा प्रशासक हैं )