[डॉ. नीलम महेंद्र]। Citizenship Amendment Bill 2019 लोकसभा के बाद राज्यसभा से भी नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद से ही असम समेत पूर्वोत्तर के विभिन्न इलाकों में इसका विरोध हो रहा है। इसमें यह प्राविधान किया गया है कि अब पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रहने वाले ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ जैसे हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोग यदि भारत में शरण लेते हैं तो उनके लिए भारत की नागरिकता हासिल करना आसान हो गया है।

नागरिकता संशोधन कानून के दायरे 

हालांकि कानून बन चुका यह विधेयक उन लोगों पर लागू होगा जिन्हें उपरोक्त उल्लेखित तीन देशों में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किए जाने के कारण भारत में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। यहां यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि देश के पूर्वोत्तर राज्यों में इनर लाइन परमिट वाले भौगोलिक क्षेत्रों (जहां प्रवेश से पहले बाहरी व्यक्तियों को अनुमति प्राप्त करनी पड़ती है) और छठी अनुसूची के क्षेत्रों को नागरिकता संशोधन कानून के दायरे से बाहर रखा गया है।

इस बिल में ‘विवाद’ अथवा ‘विरोध’ जैसा कुछ नहीं 

इसका मतलब पूर्वोत्तर के अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा और असम के कई इलाकों में यह कानून लागू नहीं होगा। इसलिए देखा जाए तो इस बिल में ‘विवाद’ अथवा ‘विरोध’ जैसा कुछ नहीं है, फिर भी जिस प्रकार से विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों में धर्मनिरपेक्ष और संविधान के नाम पर इस कानून का विरोध किया और देश की जनता को भ्रमित करने की कोशिश की, उनका यह आचरण अपने आप में विपक्ष की भूमिका पर ही कई सवाल खड़े कर गया है।

गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत में शरण

संविधान के नाम पर धार्मिक आधार पर अत्याचार की हद तक प्रताड़ित होकर भारत आने वाले गैर मुस्लिम शरणार्थियों के प्रति विपक्षी दलों की इस संवेदनहीनता ने उनकी स्वार्थ की राजनीति को देश के सामने रख दिया। लेकिन इससे इतर जिन मुद्दों पर अनेक विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया, उससे तर्कों की कमी को लेकर उनकी बेबसी भी सामने आई। विपक्ष को अब यह समझना चाहिए कि उनके द्वारा सरकार पर बार बार ‘संविधान के साथ खिलवाड़’ और ‘लोकतंत्र की हत्या’ जैसे रटे रटाए आरोपों से जनता अब ऊब चुकी है। विरोध के लिए जनता अब कुछ ठोस और न्यायसंगत तर्कों की अपेक्षा करती है।

दोहरा राजनीतिक चरित्र

आज जब समूचा विपक्ष संविधान का सहारा लेकर इस बिल का विरोध करते हुए धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभाव से पीड़ित इन देशों के अल्पसंख्यकों से अधिक चिंता अपने देश के अल्पसंख्यकों या फिर अपने वोट बैंक की कर रहा है, तो ना सिर्फ उनके सेक्युलरिज्म की हकीकत, बल्कि उनका दोहरा राजनीतिक चरित्र भी दृष्टिगोचर हुआ है, क्योंकि जब बात तीन ऐसे देशों की हो रही हो जहां का राज धर्म ही इस्लाम हो, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हों, और जिन देशों में गैर मुस्लिम परिवारों पर होने वाले अत्याचार दुनिया के सामने आ गए हों, जब आंकड़े बताते हों कि इन वर्षों में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदुओं की संख्या निरंतर सिमटती जा रही हो, तब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर विपक्ष का इस बिल के लिए विरोध समझ से परे हो जाता है।

वोट बैंक की राजनीति

देश के प्रति दायित्व बोध का ख्याल यह वाकई में खेद का विषय है कि अपनी वोट बैंक की राजनीति के आगे विपक्ष को देश के प्रति अपने दायित्वों का भी बोध नहीं रहता। इसे क्या कहा जाए कि जब इस विधेयक में पूर्वोत्तर के राज्यों के अनेक इलाकों को शामिल ही नहीं किया गया है, फिर भी पूर्वोत्तर के राज्यों में इस कानून को लेकर लोग आक्रोशित ही नहीं, बल्कि हिंसक होने की हद तक भ्रमित हैं? दुष्प्रचार और अफवाहों की भीड़ में सच कैसे कहीं खो जाता है, असम इसका जीता जागता उदाहरण है। और जब अपने राजनीतिक स्वार्थों की खातिर भोले भाले छात्रों को आंदोलन की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जाता है तो राजनीति का कुत्सित चेहरा सामने आ जाता है।

ताकि मूल निवासियों और घुसपैठियों की हो सके पहचान

घुसपैठियों की समस्या से मिल सकती है मुक्ति दरअसल असम में घुसपैठियों की समस्या बहुत पुरानी है। वर्ष 1985 में राजीव गांधी सरकार ने भी घुसपैठ की समस्या खत्म करने के लिए वहां के संगठनों से असम समझौता किया था, लेकिन समझौते के बावजूद सरकार द्वारा इतने वर्षों तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। मौजूदा सरकार ने वहां इसी समस्या को खत्म करने के लिए एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस) यानी राष्ट्रीय नागरिकता पंजी को लागू किया गया था, ताकि वहां के मूल निवासियों और घुसपैठियों की पहचान की जा सके।

नागरिकता हासिल करने के कानूनी पहलू

एनआरसी के बनते ही असम में लगभग 19 लाख लोगों पर नागरिकता का संकट आ गया। अब असम के लोगों को डर है कि नये नागरिकता संशोधन कानून का सहारा लेकर एनआरसी से बाहर हुए लोग नागरिकता हासिल करने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि एनआरसी से वह घुसपैठियों की पहचान करके उनको बाहर का रास्ता दिखाएगी। सरकार यह भी घोषणा कर चुकी है कि वह असम समझौते की धारा छह के अनुरूप ही असम के लोगों के संवैधानिक, राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एनआरसी और सीएएल यानी नागरिकता संशोधन कानून, दोनों अलग अलग मुद्दे हैं और इनमें नागरिकता हासिल करने के कानूनी पहलू भी अलग अलग हैं।

यहां यह समझना आवश्यक है कि एनआरसी में जो लोग छूट गए हैं, उन्होंने आवेदन तो किया होगा, लेकिन कागजातों के अभाव में उनका नाम लिस्ट में नहीं आया। इस आवेदन में उन्होंने यह घोषणा की होगी कि वे भारत के ही नागरिक हैं और इसके लिए जरूरी दस्तावेज भी उपलब्ध कराए होंगे जिसके आधार पर वो अपना नाम एनआरसी में जुड़वाना चाहते होंगे। जबकि सीएबी के तहत नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदक को यह कहना होगा कि वो बांग्लादेश, अफगानिस्तान या फिर पाकिस्तान का नागरिक है। इसलिए दोनों मुद्दों को मिलाने की कोशिश करना संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। इसके बावजूद असम में इस बिल का हिंसक विरोध निराशजनक है।

[वरिष्ठ स्तंभकार]