प्रो. पुष्पेश पंत। पकिस्तान को हर राजनयिक मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ रही है। कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की उसकी चाल नाकामयाब रही है, बावजूद इसके कि चीन ने इस साजिश में उसका बराबर का साथ दिया। इसके बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर (अब केंद्र शासित इकाइयों में विभाजित) भूभाग में मानवाधिकारों के हनन का आरोप भारत पर लगाना आरंभ कर दिया है। पाकिस्तान का यह प्रयास हास्यास्पद है। दरअसल उसके यहां जो कुछ हो रहा है, वही आरोप वह भारत के मत्थे मढ़ना चाह रहा है। दुनिया भर में किसी से यह छिपा नहीं है कि पाकिस्तान में मानवाधिकारों की बड़ी बर्बरता से आधी सदी से भी अधिक समय से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। कभी पूर्वी पाकिस्तान कहलाने वाले आज के बांग्लादेश का जन्म राक्षसी वंशनाशक नरसंहार की प्रसव वेदना ङोलने के बाद हुआ था। इस दैत्याकार रक्तपात के लिए पाकिस्तानी फौज ही जिम्मेदार थी। यूं पख्तूनों, सिंधियों तथा बलूचों के साथ किए जाने वाले अमानुषिक अत्याचार चर्चित रहे हैं।

चीन ने भी दिया है पाकिस्तान का साथ

शीत युद्ध के लंबे दौर में अमेरिका अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए इस तरफ देखने से कतराता रहा। बाद के वषों में अपने स्वार्थ साधन के लिए चीन भी भारत विरोधी धुरी में जुड़ गया। शिया हों या अहमदिया, इस्माइली हों या दाऊदी व बोहरा, इन्हें पाकिस्तान मुसलमान नहीं, काफिर मान इनके साथ बुरा सुलूक करता आया है। ईशनिंदा कानून की तलवार सदा इनके सर पर लटकती रहती है। अल्पसंख्यक ईसाइयों, सिखों, हिंदुओं की जिंदगी तो और भी नारकीय है। पाकिस्तान द्वारा नाजायज तरीके से हथियाए पीओके उर्फ तथाकथित ‘आजाद’ कश्मीर की बगावत निर्ममता से कुचले जाने का इतिहास बार-बार बनता रहता है। यहां निर्धन सामान्य नागरिकों तथा महिलाओं के बुनियादी मानवाधिकारों का भी कोई अस्तित्व नहीं।

चीन के खिलाफ हांगकांग में भी हो रहा प्रदर्शन

चीन की स्थिति इस संदर्भ में पाकिस्तान से फर्क नहीं। पिछले तीन महीने से हांगकांग में हिंसक उपद्रव जारी हैं। पहले नौजवान आंदोलनकारी शांतिपूर्ण सत्याग्रही थे, चीनी सरकार के निर्देश पर पुलिस द्वारा अनावश्यक बल प्रयोग ने ही उन्हें उत्तेजित किया है। आज यह खुशहाल द्वीप अराजकता की कगार पर पहुंच चुका है। ब्रिटेन ने 1997 में हांगकांग चीन को वापस इस आश्वासन पर किया था कि वहां के नागरिकों के जनतांत्रिक एवं बुनियादी मानवाधिकार अक्षत रखे जाएंगे। चीन ने तब यह भरोसा दिलाया था कि ‘एक राज्य और दो व्यवस्था’ वाली प्रणाली अपना हांगकांग की स्वायत्ता बरकरार रखी जाएगी।

चीन में भी हो रहा है मानवाधिकारों का उल्लंघन

पाकिस्तान की ही तरह चीन में भी मानवाधिकारों का उल्लंघन अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं। बहुसंख्यक हान मूल के चीनी नागरिक भी बुनियादी जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित रहे हैं। चेयरमैन माओ के तानाशाही शासन काल में चीन की दशा बांस के ‘लौह आवरण’ में छिपे बंदीगृह जैसी थी। सांस्कृतिक क्रांति के दौर में व्यक्तिगत जीवन की गरिमा पूरी तरह नष्ट हो गई। पारिवारिक जीवन को क्षत विक्षत कर दिया गया। इस तरह के हालात से मुक्तिदिलाने वाले देंग सियाओ पेंग ने थ्यान आन मेन चौक के वहशी रक्तपात को अंजाम दिया। आज भी सरकारी नीतियों की लेशमात्र आलोचना करने वाला देशद्रोह के अपराध में जेल भेज दिया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो दूर की बात है कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित विपक्षी को राहत नहीं दी जाती। चीन किस मुंह से भारत को मानवाधिकारों पर उलाहना दे सकता है?

चीन पर भरोसा करना नादानी

तिब्बत के अनुभव के बाद चीन के आश्वासन पर भरोसा करना नादानी था। 1950 से आज तक चीन यह दावा करता है कि तिब्बत एक स्वायत्त प्रदेश है, पर हकीकत यह है कि तब से अब तक तिब्बतियों के सुनियोजित वंश नाश का क्रूर अभियान जारी है। उइगुर समुदाय के इस्लाम के अनुयाइयों को लंबे समय से चीन के शिनजियान प्रांत में तथा पूर्वी तुर्किस्तान में भयंकर प्रताड़ना, उत्पीड़न और नस्लवादी अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है। भारत के लिए भले ही उसे पाकिस्तान या चीन के आगे रक्षात्मक रवैया अपनाने की जरूरत नहीं, वह उन जैसा असहिष्णु, अजनतांत्रिक आचरण नहीं कर सकता। जम्मू कश्मीर हो या कहीं और हमारी नीतियां पारदर्शी रहनी चाहिए। दहशतगर्दी का मुकाबला करते वक्त सामरिक संवेदनशीलता के कारण उठाए कड़े कदम निर्दोष नागरिकों के जनजीवन को प्रभावित करते हैं। इससे बचा नहीं जा सकता। पर हमारी कोशिश यथाशीघ्र स्थिति को सामान्य बनाने की होनी चाहिए।

(लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में प्रोफेसर हैं)