[ विवेक काटजू ]: इसमें कोई हैरानी नहीं कि चीन ने एक बार फिर जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की राह में अवरोध उत्पन्न कर दिया। अचरज सिर्फ इसी बात पर हुआ कि भारतीय सुरक्षा बिरादरी में कुछ लोगों ने यह सोचा कि चीन आसानी से इस मुद्दे पर सहमत हो जाएगा। हालांकि अभी भी ऐसा हो सकता है, लेकिन वह मुश्किल से ही ऐसा करेगा और वह भी तभी जब पाकिस्तान इसका बहुत ज्यादा विरोध न करे।

चीन को चेतावनी

अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन इस मसले पर चीन से चर्चा कर रहे हैं। यह चर्चा मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के हाल में पेश किए गए इन तीन देशों के प्रस्ताव पर चीन द्वारा अड़ंगा लगाए जाने के बाद से ही हो रही है। उन्होंने चीन को चेतावनी दी है कि पहले की तुलना में वे इस मामले को लेकर अब कहीं अधिक गंभीर हैं और वे आतंकवाद को लेकर चीन के दोहरे रवैये को बेनकाब करने की कोशिश करेंगे। इससे चीन पर दबाव बढ़ेगा, क्योंकि वह तब तक अलग-थलग होने का जोखिम नहीं लेगा जब तक कि उसका खुद का कोई बड़ा हित दांव पर न लगा हो।

प्रायोजित आतंकवाद

अगर मसूद अजहर को लेकर चीन के रवैये को समझना है तो फिर 14 फरवरी के बाद के घटनाक्रम पर गौर करना होगा। यह जानना जरूरी होगा कि पुलवामा में 14 फरवरी को हुए हमले के बाद चीन का व्यवहार कैसा रहा। ध्यान रहे कि इस हमले की जिम्मेदारी जैश ए मुहम्मद ने ही ली थी। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के तीन दशकों के इतिहास में भारतीय सुरक्षा बलों पर किया गया यह सबसे वीभत्स आतंकी हमला था।

आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तुरंत भान हो गया कि भारत इस हमले से बहुत कुपित हो गया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आतंकवाद के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई करेंगे। ऐसे में बड़े देशों द्वारा निजी दायरे में की जा रही भर्त्सना ही काफी नहीं होती। कुछ इससे अधिक करने की जरूरत थी और सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने निर्णय किया कि इस हमले की निंदा से जुड़ा एक बयान जारी किया जाए। इसमें कोई रहस्य नहीं कि चीन ने इसमें भी अड़ंगा लगा दिया, अन्यथा यह पहला मौका होता जब सुरक्षा परिषद भारतीय सुरक्षा बलों पर हुए आतंकी हमले की एक सुर में निंदा करती। चीन जैश-ए-मुहम्मद के नाम के उल्लेख में हिचक रहा था। वह तभी सहमत हुआ जब बयान में जैश का नाम शामिल नहीं किया गया, जबकि खुद जैश ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी। यह विरोधाभास किसी विडंबना से कम नहीं था। कुल मिलाकर चीन किसी तरह इस भंवर से निकल पाया जो एक तरह से भारत के लिए सकारात्मक ही रहा।

मसूद अजहर की ढाल

संयुक्त राष्ट्र ने जैश-ए-मुहम्मद पर अक्टूबर 2001 में ही प्रतिबंध लगा दिया था। सितंबर, 2001 में न्यूयार्क में हुए अल कायदा के हमले के महीने भर बाद ही यह कार्रवाई हो गई थी। चीन ने तब इसे आतंकी सूची में डालने पर आपत्ति नहीं जताई थी। न ही उसने पाकिस्तान में सक्रिय 21 अन्य आतंकी संगठनों और 132 आतंकियों पर हुई कार्रवाई का विरोध किया। हालांकि वह 2009 से ही मसूद अजहर की ढाल बना हुआ है और जब भी उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की पहल हुई, चीन ने उसमें रोड़ा अटका दिया। वर्ष 2009 के बाद 2016 और फिर 2017 में भी उसने यही किया। स्पष्ट है कि चीन जैश और उसके आका मसूद अजहर के बीच दोहरे मापदंड अपना रहा है। चीन केवल और केवल पाकिस्तान के साथ रिश्तों की खातिर ही यह सब कर रहा है।

भारत के प्रति नफरत

भारत के प्रति नफरत ही चीन-पाकिस्तान के रिश्तों की बुनियाद है। पाकिस्तान ने 1963 में अपने कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके का कुछ हिस्सा चीन को भेंट किया था। इसके बदले में चीन ने पाकिस्तान को परमाणु हथियार विकसित करने में मदद की। अगर हाल के दौर की बात करें तो पाकिस्तान जहां चीन में उइगर मुसलमानों को दी जा रही भयानक यातनाओं पर चुप्पी साधे हुए है तो बदले में चीन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर मौन रहता है। इन दोनों की साठगांठ में हाल में एक जुड़ाव चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपैक के रूप में भी हुआ है। चीन पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भारी निवेश कर रहा है और ग्वादर बंदरगाह को अपनी रणनीतिक परियोजना के रूप में विकसित कर रहा है। ऐसे में भारतीय नीति निर्माताओं को हमेशा के लिए यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच कोई पेंच फंसेगा तो चीन हमेशा पाक का पक्ष लेगा। हाल के दौर में भारत-चीन के रिश्तों में कुछ सुधार के बावजूद इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

भारत-चीनी भाई-भाई

एक के बाद एक भारतीय सरकारों ने भारत-चीन रिश्तों में प्रतिस्पर्धी पहलुओं की अनदेखी कर सहभागी पहलुओं पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इसी कारण भारत ने चीन के साथ मुक्त व्यापार को आगे बढ़ाते हुए उसके निवेश को गले लगाया। यहां तक कि संचार जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी चीनी निवेश के लिए लाल कालीन बिछा दी। यह सब भारत के विनिर्माण उद्योग की कीमत पर किया गया। वैश्विक स्तर पर जब भी साझा हितों की बात आती है तो भारत और चीन एक हो जाते हैं। यह ठीक भी है, लेकिन इससे भारत को उस खतरे की अनदेखी नहीं करनी चाहिए जिसका जाल चीन श्रीलंका और मालदीव जैसे हमारे पड़ोसी देश में बिछा रहा है। हालांकि मालदीव में हालिया चुनाव के बाद भारत के साथ उसके समीकरण सुधरे हैं, फिर भी चीन की नीयत और मंशा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

महत्वाकांक्षी चीन

भारत को एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि राष्ट्रपति शी चिनफिंग के नेतृत्व में चीन हर कीमत पर अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी करना चाहता है। इसमें उसे न तो अपने पड़ोसियों के हितों की फिक्र है और न ही अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों का लिहाज। ऐसे में भारत को भी अपना रुख कड़ा करना चाहिए जैसा उसने 2017 में डोकलाम गतिरोध के दौरान किया था। उसने चीन को अहसास करा दिया कि भारत अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम है। हर मौके पर उसे यही तेवर दिखाने होंगे। जब चीन ने मसूद अजहर के मामले में अवरोध पैदा कर ही दिया है तो भारत को भी दुनिया के सामने चीन का असली चेहरा बेनकाब करने से हिचकना नहीं चाहिए। यह ठीक नहीं कि भारत ने एक देश की ओर इशारा तो किया, लेकिन सीधे तौर पर चीन का नाम नहीं लिया। यह कूटनीतिक कमजोरी ही है विशेषकर तब जब संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश चीन का नाम लेने से नहीं हिचक रहे। यह मामला ‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’ की तरह नहीं होना चाहिए।

सस्ते चीनी उत्पाद

चीन के परिप्रेक्ष्य में दो और पहलुओं पर गौर करना होगा। पहला यह कि अगर भारत इस पर अपनी नाखुशी जाहिर करना चाहता है तो उसे इसकी कीमत भी चुकानी होगी यानी उसे व्यापार के मामले में कुछ कदम उठाने होंगे। क्या भारतीय उपभोक्ता सस्ते चीनी उत्पादों की तुलना में दूसरे देशों के महंगे उत्पाद खरीदना गवारा करेंगे? दूसरा पहलू यह है कि जब राष्ट्रीय हितों की बारी आती है तो नेताओं की निजी दोस्ती मायने नहीं रखती।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )