[शिवानंद द्विवेदी]। अगले माह होने जा रहे पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के तहत 90 विधानसभा सीटों वाले राज्य छत्तीसगढ़ में चुनावी बिगुल बजने के बाद सियासी तापमान उफान पर है। चुनाव आयोग द्वारा तारीखों के ऐलान के बाद अब मतदान की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। आसन्न चुनावों में छत्तीसगढ़ का सियासी ऊंट किस करवट बैठने जा रहा है, इसको लेकर अलग-अलग कयास लगाए जा रहे हैं। परिणाम तो मतगणना से ही स्पष्ट होगा, किंतु तथ्यों के धरातल पर कयासों और अनुमानों से चुनावी मिजाज को भांपने की रवायत पुरानी है। छत्तीसगढ़ भारत के उन तीन राज्यों में से एक है जो इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में गठित हुए। राजनीतिक आंकड़ों की कसौटी पर देखने में छत्तीसगढ़ भले ही छोटा नजर आता हो, लेकिन भौगोलिक रूप से इसका विस्तार और इसकी विविधता व्यापक है।

अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों वर्ष 2003, 2008 और 2013 के चुनावों में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा और कांटे का रहा है। इन तीनों ही चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट फीसद का फासला क्रमश: 2.55 प्रतिशत, 1.7 प्रतिशत और 0.7 प्रतिशत क्रमश: का ही रहा है। सीटों के मामले में भी मामूली परिवर्तन ही हुए हैं। हालांकि अत्यंत कम वोट प्रतिशत की बढ़त से ही सही, किंतु विगत 15 वर्षो से छत्तीसगढ़ की सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है। कांग्रेस अभी तक भाजपा के इस किले को भेद नहीं सकी है।

सुरक्षित सीटों का असर

आंकड़ों के धरातल पर राज्य की स्थिति को देखें तो यहां की कुल 90 सीटों में से 10 सीटें अनुसूचित जाति के लोगों के लिए तथा 29 सीटें अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सुरक्षित हैं। शेष 51 सीटें सामान्य हैं। विधानसभा चुनाव 2013 में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 10 सीटों में से नौ पर भाजपा को जीत मिली थी। वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 29 सीटों में से 18 पर कांग्रेस काबिज रही, जबकि भाजपा के खाते में 11 सीटें आई थीं। सामान्य श्रेणी की कुल 51 सीटों में 30 पर भाजपा को जीत मिली थी, जबकि 20 सीटें कांग्रेस के खाते में आई थीं। एक अनुमान के मुताबिक राज्य के तकरीबन 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां अनुसूचित जाति समुदाय के मतदाता प्रभावी स्थिति में माने जाते हैं।

विधानसभा चुनाव 2013 के आंकड़ों को देखें तो अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीटों पर भाजपा की स्थिति मजबूत नजर आती है, वहीं जनजातिय क्षेत्रों में कांग्रेस की स्थिति मजबूत नजर आती है। लेकिन थोड़ा और पीछे जाएं तो 2008 के विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जनजाति की सीटों पर भाजपा का पलड़ा भारी नजर आता है। विधानसभा चुनाव 2008 में भाजपा को अनुसूचित जाति की सुरक्षित 20 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन 2013 में भाजपा को अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 29 सीटों पर नुकसान हुआ। छत्तीसगढ़ की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस के बाद जो तीसरा महत्वपूर्ण दल गत तीन चुनावों में प्रभावी रहा है वह है बहुजन समाज पार्टी। वैसे तो 2013 के विधानसभा चुनाव में बसपा को सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिली थी, लेकिन बसपा राज्य की 10 सीटों पर तीसरे पायदान की पार्टी रही। बसपा को लेकर एक आंकड़े पर गौर करना आवश्यक है कि राज्य की लगभग 13 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां बसपा का वोट फीसद 2013 में 10 से अधिक रहा है।

त्रिकोणीय मुकाबले के आसार

उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर किसी निष्कर्ष के इर्दगिर्द पहुंचने के लिए तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गौर करना होगा। वर्तमान में राज्य के दलगत समीकरण, प्रभावी दलों के नेतृत्व की विश्वसनीयता और सत्ता विरोधी रुझान की संभावनाए इन तीन बिंदुओं को केंद्र में रखकर छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का कोई आकलन रखा जा सकता है। पिछले विधानसभा चुनाव 2013 से अलग इस बार छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक नया रसायन घुलता नजर आ रहा है। वर्ष 2013 तक जो चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस की सीधी लड़ाई नजर आता था, वह अब त्रिकोणीय जैसा दिखने लगा है। अजित जोगी कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके हैं। वहीं बसपा इस बार अकेले चुनाव लड़ने की नीति से अलग अजित जोगी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है। बसपा का जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनहित कांग्रेस के साथ गठबंधन के निहितार्थ प्रदेश स्तर पर तो है ही, साथ ही इस गैर-कांग्रेस गठबंधन से राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की कठिनाइयों के संकेत भी मिलते हैं।

अब सवाल है कि बदले हुए राजनीतिक समीकरणों में क्या वाकई छत्तीसगढ़ का चुनाव त्रिकोणीय हो सकता है अथवा इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के बीच की सीधी लड़ाई होनी है? चूंकि बसपा का वोट फीसद पिछले विधानसभा चुनाव में 4.3 रहा है और अनुसूचित जाति बहुल उन 13 सीटों पर वह निर्णायक स्थिति में है, जहां उसका वोट फीसद 10 से अधिक है। इसका एक पहलू यह भी है कि राज्य की 10 अनुसूचित जाति की सुरक्षित सीटों में नौ पर 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जीत मिली थी, जब बसपा अकेले चुनाव लड़ रही थी। लेकिन इस बार इन सीटों पर बसपा और जोगी का गठबंधन मैदान में है। कांग्रेस से अलग जा चुके अजित जोगी अगर कांग्रेस के वोट बैंक में सेंधमारी करते हैं तो इस बात की संभावना प्रबल है कि उन 13 सीटों पर जहां पिछले चुनाव में बसपा मजबूत स्थिति में रही है, कांग्रेस को तीसरे पायदान पर जाना पड़े और भाजपा की लड़ाई बसपा के गठबंधन से ही हो।

ऐसे में बसपा-जोगी गठबंधन से बड़ा खतरा कांग्रेस के लिए नजर आ रहा है क्योंकि भाजपा के हिस्से बसपा के परंपरागत मतदाता अगर नहीं भी टूट कर आ रहे हों तो भी स्थिति काफी हद तक 2013 वाली ही कायम रहेगी, लेकिन इन सीटों पर कांग्रेस के लिए स्थिति वैसी नहीं रहने वाली है। अजित जोगी और बसपा का गठबंधन यदि बहुत अच्छा करने की स्थिति में होता है तो वह छत्तीसगढ़ की राजनीति में ‘तीसरी ताकत’ के रूप में उभर सकता है, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना कम ही दिख रही है। एक और बारीक पहलू पर गौर करना होगा कि अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 10 सीटों में कुछ सीटों पर ठीक-ठाक वोट हासिल करने वाली एक स्थानीय पार्टी ‘छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच’ का भाजपा में विलय हो चुका है। विधानसभा चुनाव 2013 में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच को 1.7 फीसद वोट मिले थे और अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित कुछ सीटों पर वह अच्छी स्थिति में रही थी। इस लिहाज से देखा जाए तो इस चुनाव में इस पार्टी का विलय भाजपा में होने का स्थानीय फायदा भी भाजपा को मिल सकता है।

वर्ष 2013 में सुकमा का असर

अब बात करते हैं उन 29 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की जिनमें वर्ष 2008 के चुनावों में भाजपा को 20 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन 2013 के चुनावों में भाजपा इस गढ़ में सिर्फ 11 सीटों पर सफलता हासिल कर सकी। दरअसल मई 2013 में सुकमा में हुए नक्सल हमले (जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सहित अनेक नेता मारे गए थे) की वजह से अनुसूचित जनजाति वाले इन सीटों पर भाजपा के खिलाफ मतदान हुआ। चूंकि राज्य में यह बड़ा नक्सली हमला चुनाव से महज कुछ महीने पहले ही हुआ था, लिहाजा चुनावों में उसका स्पष्ट असर दिखना स्वाभाविक था। हालांकि अब इस बात को पांच साल गुजर चुके हैं, ऐसे में भाजपा यह उम्मीद लगा रही है कि इन चुनावों में एक बार फिर वह 29 सीटों वाले अपने पुराने गढ़ में वापसी करेगी और 2008 का इतिहास दोहराएगी। यदि ऐसा होता है तो यह कांग्रेस के लिए मुसीबत पैदा करने वाली स्थिति होगी। वर्तमान में कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए ऐसा होना मुश्किल भी नहीं लग रहा।

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं)

जब पीएम की रैली में चली दनादन गोलियां और सरेआम कर दिया गया उन्‍हें कत्‍ल