[विनय तिवारी]। जैसे सूर्य अस्त होता है, वैसे ही फिर उदय भी होता है। अगर एक सभ्यता समाप्त होती है तो दूसरी जन्म लेती है। जो मरता है वह फिर जन्म लेता है। जो डूबता है वह फिर उबरता है। जो ढलता है वह फिर खिलता भी है। यही चक्र छठ है। यही प्राकृतिक सिद्धांत छठ का मूल है। यही भारतीय संस्कृति है। छठ इसी प्रकृति चक्र और जीवन चक्र को समझने का पर्व है। छठ अंत और प्रारंभ की समग्रता को समान भाव से जीवन चक्र का हिस्सा मानना है। पूजा दोनों की होनी है। प्रारंभ की भी और अंत की भी।

छठ प्रकृति चक्र की इसी शाश्वतता की रचना है। छठ सिर्फ महापर्व नहीं है। छठ जीवन पर्व है। जीवन के नियमों को बनाने का संकल्प छठ है। सात्विकता का सामूहिक संकल्प छठ है। दोहराने का नाम छठ है। प्रकृति का हनन रोकना भी छठ है। गंदगी, काम, क्रोध, लोभ को त्यागना छठ है। नैतिक मूल्यों को अपनाने का नाम छठ है। सुख सुविधा को त्यागकर कष्ट को पहचानने का नाम छठ है। शारीरिक और मानसिक संघर्ष का नाम छठ है।

छठ नदियों की पूजा है, सूर्य की पूजा है, परंपराओं की पूजा है

छठ सिर्फ प्रकृति की पूजा नहीं है। यह व्यक्ति की भी पूजा है। व्यक्ति प्रकृति का ही तो अंग है। छठ प्रकृति के हर उस अंग की उपासना है जिसमें कुछ कर गुजरने की, कभी निराश न होने की, कभी हार न मानने की, डूब कर फिर खिलने की, गिरकर फिर उठने का हठ है। यह हठ नदियों में है, यह बहते जल में है। यह हठ किसान की खेती में है। इसलिए छठ नदियों की पूजा है, सूर्य की पूजा है, परंपराओं की पूजा है।

छठ प्रत्यूषा की पूजा है

छठ प्रत्यूषा की पूजा है तो ऊषा की भी पूजा है। यह पर्व व्यक्ति के कठोर बनने की प्रक्रिया है। चार दिनों तक होने वाले तप की पूजा है। छठ में कला भी है और कृति भी है। वास्तव में छठ सिर्फ पूजा नहीं है। यह आध्यात्मिक क्रिया है। व्यक्ति को अपनी प्रकृति से जोड़ने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया योग साधना जैसी है। इसमें संपूर्ण योग है। शरीर और मन को पूरी तरह साधने वाला योग है। इसमें यम भी है, इसमें नियम भी हैं।

काम, क्रोध, लोभ से दूर विचारों में सत्यता और ब्रह्मचर्य का यम

कम से कम साधन उपयोग करने का नियम है, सुखद शैय्या को त्यागने का नियम है तो तामसिक भोज को त्यागने का नियम भी है। काम, क्रोध, लोभ से दूर विचारों में सत्यता और ब्रह्मचर्य का यम भी है। कठिन छठ व्रत बिना श्वास उपासना के संभव नहीं है। सूर्योपासना श्वास नियंत्रण से ही संभव है। नियंत्रण तो खान-पान का भी है। अन्न जल त्याग कर दूसरे दिन एकांत में खरना ग्रहण करने का अनुशासन है। यह अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करने जैसा है।

ढलते सूरज भी स्वाभिमानी लगने लगते हैं

ढलते सूरज भी स्वाभिमानी लगने लगते हैं। ढलती, गुजरती किरणों भी प्रफुल्लित-सी चहक उठती हैं। अनवरत बहती नदियां भी इस अद्भुत मानवीय शक्ति को निहारती रहती हैं। कुछ पल के लिए ठहर जाती हैं और अलौकिक आनंद में सहर्ष रम जाती हैं। जब सूर्य समाधि में व्यक्ति स्वयं निर्जल होकर भास्कर को जल समर्पित करता है तो प्रकृति और व्यक्ति के अतुल्य समर्पण के दर्शन होते हैं। व्यक्ति के प्रकृति को स्वयं से ऊपर रखने के दर्शन होते हैं। इस दर्शन से यह भरोसा निकलता है कि जब तक छठ है, तब तक प्रकृति ही ईश्वर है।

छठ में व्यक्ति और प्रकृति का संबंध जैसे आत्मा और परमात्मा का संबंध

व्यक्ति प्रकृति का ही अंग है। छठ में व्यक्ति और प्रकृति का संबंध जैसे आत्मा और परमात्मा का संबंध दिखाता है। छठ भारतीय संस्कृति के प्रति कृतज्ञता दर्शाने के दर्शन का भी नाम है। नदियों से मिले जल और सूर्य से मिली किरणों ने हमेशा से मानवता को पाला और पोसा है। बड़ी-बड़ी सभ्यताएं और संस्कृतियां नदियों और सूर्य के परस्पर समन्वय से ही विकसित हो पाई हैं। इस महापर्व के माध्यम से पूरी की पूरी उत्तर भारतीय संस्कृति मां गंगा, यमुना, सोन, घाघरा, सरयू, गंडक न जाने और कितनी असंख्य धाराओं, जलाशयों, पोखरों, तालाबों की ओर अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रही होती है। यह हमारी संस्कृति का दर्शन है।

सामूहिक कृतज्ञता को दर्शाना ही हमारा उत्सव

छठ पर हम बता रहे होंगे कि नदियां हैं तो हम हैं। सूर्य हैं तो हम हैं। जलाशय हैं तो हम हैं। इस सामूहिक कृतज्ञता को दर्शाना ही हमारा उत्सव है, पर्व है। यह कृतज्ञता हम अपने मेहनत से उगाए केले, गन्ने और मन से बनाए खरना और ठेकुआ के लोकमन के माध्यम से दर्शा रहे होंगे।

नदियों पर समाज एक सामाजिक संवाद करता भी दिखता है

नदियों और सूर्य की तरफ मुड़ता समाज अपनी पुरातन सामाजिक चेतना को जगाता रहता है। जीवन शैली में होने वाले बदलावों से अपनी सांस्कृतिक चेतना पर आंच नहीं आने देता है। अक्षुण्ण लोक संस्कृति ही समाज के संगठित स्वरूप का निर्माण करती है और उसे समय-समय पर विघटन से बचाती है। नदियों पर समाज एक सामाजिक संवाद करता भी दिखता है। सब प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं। अपनी-अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहे होते हैं। कौन किस रंग का है, किस जाति का है, किस वर्ण से है और कितना अर्थ लेकर जीवन यापन कर रहा है, यह सब सूर्य के सामने निर्थक हो जाता है। छठ पूजा न सिर्फ सामाजिक संवाद कराती है, अपितु समाज में आपसी आकर्षण बढ़ा कर समरसता लाती है।

छठ जैसे पर्वो को हर्षोल्लास के साथ मनाने की जरूरत

हमें जरूरत है तो छठ जैसे पर्वो को संभालने की, उन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की, लोक मानस के इस महापर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाने की। हमें जरूरत है तो छठ में निहित तत्वों के मूल अर्थो को समझने की, उन अर्थो के व्यापक विस्तार की, उस विस्तार को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने की, लोक पर्व के माध्यम से सशक्त समाज और जाग्रत राष्ट्र को बनाने की, छठ के माध्यम से गंगा की संस्कृति को विश्व की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति बनाने की।

(लेखक आइपीएस अधिकारी हैं)